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प्रभु महावीर आतमजागृति का अखंड दीप है।
प्रभु महावीर का अर्थ होता है औरों से अन छुआ निजत्व।
प्रभु महावीर का मतलब है जिनको किसी से भी मतलब नही है।
प्रभु महावीर यानि आनंदपूर्ण अलिप्तता।
माता त्रिशलाराणी की कोख में प्रभु का अवतरण हुआ,
वहा देवलोक में प्रभु का देव रूप से मरण हुआ…
ये दोनों परिवर्तनों के बीच प्रभु का जागरण बरकरार रहा।
न तो मरण का अनुभव कीया,
न तो अवतरण का अनुभव लीया,
क्योंकी ये दोनों पेदा हुए…
जो पेदा होते है, वो होते नही है,
ओर जो होते हैं वो पेदा नही होते…।
आसमां होता है इसलिए पेदा नही होता है,
बादल नहीं होते इसलिए पेदा हो जाते है।
मरण हो या जन्म दोनो पैदाशी है,
युँ तो सारी घटनाएँ वैसी ही है।
ओर जो पैदाशी घटनाओं में जीते है।
वो सदा नहीं होने का ही अहेसास करते है।
सारा जीवन ढुंढ़ते ही रह जाते घटनाओ में अपने होने को,
फीर भी नही बन पाता है, कुछ खाली के खाली रह जाते है हम।
होने के लिए कुछ कर लेते है पर कुछ करने से अपनेपन को छुआ नही जा सकता,
होने का स्पर्श नही होता।
कुछ करने का भाव अपने अभाव की अभिव्यक्ति है।
अपूर्णताकी उद्घोषणा है,
जब आपने कहा मैने कुछ किया……..
करना भी पैदाशी है अगर करने से आपका ‘होना’ निर्धारित हुआ,
मतलब आप थे नही, मगर हुए कुछ कीया, आपने इसलिए आप कुछ हुए,
आप भी पैदाशी हो गये………
पैदा होने का अर्थ है ‘नहीं में‘ से उठना और ‘नहीं’
में समा जाना……..
दिपक की ज्योति नहीं ‘से उठती है’ ‘नही’ में समा जाती है……..
‘नहीं में‘ रहना वो हमारा स्वभाव नहीं है इसलीए हम हमारी खेती करते है।
नये नये रूप से पैदा होने की परंपरा को जारी रखते है और उसका बीज
बोते है कुछ करने के भाव से…….
यहि चलता आया है अनादि काल से……..
ये सारी कठिनाई का कारण है की हम ‘नहीं’ में नहीं रहना का प्रयास पैदाशी घटनाओ के आधार पर हि किये जा रहे है।
जो खुद ‘नहीं’ से निकलती और ‘नहीं’ में मिलती है…….
यहा अटकना असंभव है……..
यही तो बंधन है। यही तो जाल है।
अटकोगे तो लगेगा की मर जायेंगे और नहीं अटकोगे थो महेसुस करोगे की मर रहे है…।
प्रतिक्षण मृत्यु हो रहा है…।
ऐसे चक्रव्यूह में से बाहर निकलने के लिए तो जिनशासन है।
जिनशासनकी स्थापना वे करते है, जो इस इस चक्र्व्यूह से मुक्त हो चुके है। चक्रव्यूह को यथार्थ रूप से जानते है और अगणित जीवो को उसमे से मुक्त करने की व्यवस्था बनाते है…….।
यही हेतु है, की हम भगवान को तीर्थंकर कहकर पुकारते है।
तीर्थ यानि तैरने की व्यवस्था कर = करने वाले……..
तीन्नाणं तारयाणं
प्रभु तर गये थे, जो तैरा हुआ है वो हि तार सकता है औरो को…….)
गर्भ प्रवेश की प्रथम क्षण में भी प्रभु उत्तीर्ण थे।
घटनाओं के उस पार विराजमान थे प्रभु!
न मरण को जीया, न अवतरण को जीया,
जिया खुद को यहि जागरण था।
➡️ देवगति का देह विसर्जित हो गया था और अब यहा नवसर्जन होने जा रहा है।
➡️ विसर्जन पुद् गल में हुआ था और वो प्रभु ने देखा था सर्जन भी…।
➡️ पुद् गल में ही हो रहा है। वो भी प्रभु देख रहे है…।
➡️ प्रभु को देखने का भी भाव नहीं है। बस दिख रहा है…।
➡️ एक बिंदु में जिस सर्जन का प्रारंभ हुआ है। वो सात हाथ का उंचा मनोहर एक मानव पिंड बनेगा प्रभु ये जानते है…।
➡️ पर में बन रहा हुं ऐसा उनको कभी नहीं लगा…।
➡️ क्योंकी प्रभु जिसमें ‘में’ का अनुभव कर रहे थे वो कभी बना ही नहीं था।
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