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आत्मा स्वयं है, स्वयंभू है, वो ही प्रभु है।

Updated: Apr 7, 2024




परमात्मा देह को संयोग के रूप में धारण करते हुए भी

स्वरूप से देह को धारण नहीं कर रहे थे। 

धारण करने के लिए धारणा चाहिए,

और धारणा उसकी की जाती है, जो कभी अपरिचित रहा हो,

या कभी अपरिचित हो जाता हो। 

जो ‘स्वयं’ नहीं है उसकी धारणा होती है,

‘स्वयं’ की धारणा है तब तक ‘स्वयं’ नहीं है,

और जब ‘स्वयं’ है तब धारणा नहीं, 

देखा-देखी की बात है, प्रत्यक्ष अनुभव है। 

प्रभुवीर गर्भ से निष्क्रांत हुए अब कुछ पल ही हुए थे, 

एक शरीर में से दूसरा शरीर निकला था, 

लेकिन उसमें जो था वह जानता था कि मैं शरीर नही हूँ 

शरीर से शरीर पैदा किया जा सकता है, आत्मा नहीं…

आत्मा स्वयं है, स्वयंभू है, वो ही प्रभु है।

प्रभु की नवजात देह रत्न की भांति दिप्तिमंत थी,

कमल की तरह कोमल थी, पूर्ण अंगोपांग से युक्त थी,

मानो कि समस्त पुण्य का पुंज थी। 

उस देह को, जो अभी-अभी गर्भमुक्त हुआ था,

उसे मन्द मन्द पवन की लहरों का स्पर्श हुआ,

और देह के भीतर जो चैतन्य था, उसे ज्ञात हुआ कि

मुझे नहीं, देह को पवन का स्पर्श हुआ है,

वातावरण सुरभि था, सुगन्धमय परमाणुओं से व्याप्त था, 

घ्राणेन्द्रिय के संपर्क से मन को आह्लादित कर रहा था,

पुद्गल से पुद्गल को लाभ हानि होती है,

प्रभु सिर्फ निर्लेप और निर्दोष भाव से सिर्फ ज्ञाता रूप ही रहे। 

गर्भ से जन्म, यह बड़ा परिवर्तन है,

गर्भ में सब बंद, जन्म में सब खुला

गर्भ में खान-पान आदि सभी क्रियाए परतंत्र,

जन्म के बाद स्वतंत्रता आ जाती है। 

किंतु प्रभु ये सारे परिवर्तन अपने में नहीं,

वरन् शरीर में देख रहे हैं, 

अपने आप में तो कोई परिवर्तन नहीं देखा प्रभु ने…

आप तो आप ही रहे, जो बदलाव हुआ वह 

बदल जाने वाले में हुआ, 

और बदल जाने वाला वह है, जो पराया है। 

प्रभु वीर का नवनिष्क्रांत किसलयसा देह 

स्वयं श्वसित होने लगा,

प्राण-ऊर्जा बाहर से भीतर, भीतर से बाहर आने-जाने लगी,

सांसो की यह उत्पाद व्यय की श्रृंखला 

आम आदमी को भ्रमित कर देती है 

कि जीवन ध्रुव है। 

लेकिन शिशु होते हुए भी प्रभु तो परमज्ञानमय थे,

सांसो से चलने वाला यह देहतंत्र, 

और देहतंत्र से चलने वाली सांसे, 

सब प्रभुने अपने से पृथक् ही जान लिया, 

और जानने वाला ही मैं हूँ, ऐसे अपनी संज्ञा में स्थित रहे।

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