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आहार शुद्धि और आरोग्य

Updated: Apr 7, 2024




हमारे परम हितैषी महर्षियों ने अपनी विशिष्ट बुद्धि शक्ति और वैज्ञानिक प्रतिभा से, सात्त्विक और संस्कारमय जीवन जीने के लिये क्या खाना चाहिये ? और क्या नहीं खाना चाहिये ? इस संबंध में विधि निषेधों का ज्ञान कराया है। इसमें भी जैन महर्षियों ने तो सिर्फ शारीरिक दृष्टी से नहीं अपितु आत्मा को दुःख पहुंचाने वाली हिंसा, पाप, आसक्ति, मानसिक प्रसन्नता, आत्मिक स्वस्थता, शारीरिक निरोगिता, हृदय की कोमलता, इहलोक-परलोक के श्रेय हेतु आहार शुद्धि के विषय में विस्तृत तथा तलस्पर्शी विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने ‘अभक्ष्य पदार्थों का त्याग परम सुखकर है’ यह तथ्य जगत के सम्मुख प्रस्तुत किया हैं।

मनुष्यों को दिन-ब-दिन आत्म संयम धारण कर, अनादिकालीन आहार संज्ञा पर काबू प्राप्त करना चाहिये। जिससे आत्मा अनाहारीपद अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो । मोक्ष में सदाकाल देह और आहार का अभाव रहता है ।

‘जैसा खाय अन्न, वैसा होय मन’ हिन्दी की प्रसिद्ध लोकोक्ति है। मन की निरोगिता, संयमीतता, पवित्रता और धर्मप्रियता में आहार का विशेष स्थान है। आर्य देश में मानव के लिये आर्यभूमि का अन्न ही उपयुक्त रहता है । न कि अनार्य भूमि का तामस भोजन । सत्य नीति और न्याय प्राप्त वनस्पति–धान्य आदि खाद्य वस्तुएँ मानसिक-शारीरिक रोग, दृष्ट विचार और दूसरों का अहित करने की भावनाओं से बचाती है। शुद्ध गुणकारी आहार के लिए जीवन में नीतिमत्ता, सत्य और प्रमाणिकता का सहि असर होगा। अतः धनोपार्जन के लिए न्याय सम्पन्नता आवश्यक है। जीवन-शुद्धि का यह मूलाधार है ।

भोजन का संबंध मन और आत्मा के साथ होने के कारण आहार का महत्व बहुत अधिक माना गया है। इसलिए जैनशास्त्रकारों ने भोजन संबंधी विचार के केन्द्र में मन और आत्मा को स्थान दिया है और जीवन के सुख, शान्ति समाधि और पारलौकिक हित को लक्ष्य में रखकर आहार विषयक विधि–निषेध बतलायें हैं ।

‘जैसा खाय अन्न वैसा मन, जैसा मन वैसे विचार,

जैसे विचार वैसी किया, जैसी क्रिया वैसा फल ।’

कतिपय लोगों का कहना है कि ‘ तो पेट भरने से वास्ता है। जो भी मिला वह खा लिया, इसमें नाहक माथापच्ची कैसी ? परन्तु यह कथन योग्य नहीं है। यदि स्पष्ट भाषा में कहे तो मनुष्य का अहित करने वाला है। हमारा पेट कोई कचरा पेटी नहीं है, कि जिसमें जी चाहे जो चीज डाल दी जायें ? पेट हमारे शरीर का महत्वपूर्ण हिस्सा है। जिसमें कोई भी वस्तु या पदार्थ डालें, तो उसकी प्रतिक्रिया होती है। इतना ही नहीं सम्पूर्ण देह और मन पर भी उसका अत्यधिक प्रभाव पड़ता है।

जो स्वादु लोग बिना विचार कुछ भी खा लेते हैं, वे नाना प्रकार की व्याधियों के शिकार बनते हैं। और मृत्यु के मुँह में भी फंस सकते है। हम आये दिन समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि आहार में फुड-पोइजन से इतने-इतने आदमी मर गए, इतने आदमी को उल्टी और दस्त की शिकायत हो गई. कुछ लोगों की हालत गम्भीर हैं। क्या यह सब बातें हमें इस बात की चेतावनी नहीं देती है, कि हमें आहार के विषय में सावधानी और विवेक रखना चाहिए ?

जिन्हें हम पशु कहते हैं और अपने से निम्न कोटि को समझते हैं, वे भी सबसे पहले किसी पदार्थ को सूँघते हैं, जाँचते हैं और अपने अनुकूल प्रतीत होने पर ही उसे खाते है, तब विवेकवान मनुष्य पूरे विचार, पूरी जाँताल, गुण-दोष का विचार किये बिना किसी भी वस्तु को कैसे खा सकते हैं ?

अनेक रोगों के कारणों की सूक्ष्मता पूर्वक जाँच करने से मालूम होता है, की बासी या द्विदल, तुच्छ फल या अज्ञात फल, चलित रस या गिला अचार, माँस या मदिरा, मधु या मक्खन, बर्फ या ओले, बहुबीज या अनंतकाय, रात्रि भोजन या जमीकंद, बाजारु या टीनफुड पदार्थों आदि का भक्षण अनेक प्रकार के रोगों को जन्म देता हैं, विशेषत: मानसिक स्वास्थ्य की हानि करता हैं, विकार वासना को उत्तेजित करता है, शरीर के राजा वीर्य को नष्ट करता है, कलुषित भावों तथा क्रोधादि को पैदा करता है, आत्मा को धर्म विमुख और कठोर हृदयी बनाता है। दुर्बुध्दि वश परलोक में नरक अथवा पशु की गति सुलभ हो जाती है।

जीवन में आहार शुद्धि का महत्व जानते हुए भी हम शुद्ध आहार न करें तो दीपक लेकर कुएं में गिरने जैसा ही है ।

तामसी भोजन में प्याज, लहसुन, माँस, मछली, मदिरा, शहद, मक्खन, अंडे, आमलेट, आदि हिंसक भाव पैदा करते हैं। पेट में गया भोजन शरीर, मन और आत्मा को अवश्य प्रभावित करता है। फ्रांस के साम्राज्य की प्रगति में परिवर्तन होने का कारण यह था कि जब मस्तिष्क को संतुलित रखने की जरूरत थी, तब लहसुन खाने के बाद आक्रमक बने नेपोलियन ने अपनी सेना को सही मार्गदर्शन करने में भूल की । परिणाम स्वरूप लिप्झीग के महत्वपूर्ण युद्ध में उसे पराजय का सामना करना पड़ा ।

माँस, मदिरा, प्याज, लहसुन जैसी तामसी खुराक बात-बात में क्रोध अशान्ति भड़ाकाने का कार्य करते है। मन के बेकाबू बनने पर हिंसक और अनुचित कार्य करने में देर नहीं लगती है, बाद में पश्चाताप् का भी पारावार नहीं रहता है, कि “मैंने मूर्खता में ऐसी गम्भीर भूल कर दी।”

अनुभवी वैद्य तथा डॉक्टरों का यह निष्कर्ष है कि अधिकतर शारीरिक रोग अनुचित खान-पान का परिणाम है । अतः भोजन में भक्ष्य (अर्थात् खाने योग्य) और अभक्ष्य (अर्थात् न खाने योग्य) का विचार करना आवश्यक है ।

स्वाद विजय बिना विषयों पर विजय प्राप्त करना असम्भव है। डॉ. काउएन कहते है कि, ‘कामवासना को उत्पन्न करने में दोषित भोजन (शराब, मांस, मधु, मक्खन, अंडे आदि) मुख्य है। डॉ. ब्लोच कहते हैं कि, ‘मिठाइयाँ और कुप्रवृत्तियों का घनिष्ठ संबंध है। जो बालक मिठाई के बहुत शोकीन है. उनके पतन की संभावना अधिक रहती है। डॉ. किलोग का कथन है कि ‘अच्छे बुरे आहार का प्रभाव शारीरिक क्रियाओं पर पड़ता है। हमारे विचारों का निर्माण भी भोजन से होता है। जो मनुष्य अचार, मैदे की रोटी, मिठाई, माँस, मछली, अंडे आदि खाते है, चाय, कॉफी, वाइन आदि पीते है और तम्बाकू का सेवन करते हैं, उनके लिए अपने विचारों का पवित्र रखना तो वायुवान की सहायता बिना आकाश में उड़ने के समान है।

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