शिक्षण और संस्कार
शुद्ध जीवन व्यवहार की दृष्टि से संस्कार की बहुत ही आवश्यकता है। “क्यों आया ?” “कैसे आया ?” “ किस लिए पधारे ?” इन तीनों वाक्यों में कितना अंतर है? अर्थ एक ही है, परन्तु वाणी में भिन्नता है। संस्कारयुक्त वाणी मनुष्य की कीर्ति में अभिवृद्धि करती है। किसी व्यक्ति ने सुन्दर आभूषण धारण किए हों, सुन्दर वस्त्र पहने हों, किन्तु वाणी अच्छी न हो तो ऐसा प्रतीत होगा, मानो हंस के वेश में कौआ है। संस्कारी बनने का प्रथम सोपान है शुद्ध आहार, विहार, मन और भाषा की श्रेष्ठता। भाषा और विचारों से मनुष्य का मूल्यांकन संभव हैं।
राजा, मंत्री और दरबान तीनों एक साथ घूमने निकले। रास्ते में तीनों मार्ग भूल गए और एक-दूसरे से अलग-अलग हो गए। उन्होंने रास्ते में एक अंधे साधु को बैठे देखा। पहले ने पूछा “प्रज्ञाचक्षु ! क्या आपने यहाँ से किसी को जाते हुए देखा?” उत्तर मिला “नहीं भाई ! मैं अंधा हूँ।“ पूछने वाले ने कहा “माफ करना, मुझसे भूल हो गई।“
पूछने वाला आगे चला गया। थोड़ी देर बाद दूसरा आया, और उसने पूछा “हे सूरदास ! यहाँ से किसी को जाते हुए देखा?” उत्तर मिला “हाँ भाई! राजा आगे गए हैं।“ उसके जाने के कुछ देर बाद तीसरे ने आकर पूछा “अबे अंधे ! यहाँ से कोई निकला है?” साधु ने जवाब दिया “हाँ, पहले राजा जी गए, फिर मंत्री गए और अब तू दरबान है, उनके पीछे जा।“
आगे जाकर वे तीनों मिले। बातचीत हुई, तीनों को आश्चर्य हुआ कि अंधे साधु ने उन्हें पहचान कैसे लिया? वे तीनों वापस साधु के पास आए। साधु ने उनकी शंका का समाधान किया, “हे प्रज्ञाचक्षु ! वाले संबोधन में विनय-विवेक है, अर्थात् यह बोलने वाला उच्चकुल का संस्कारी व्यक्ति होना चाहिए, इसलिए मैंने उन्हें राजा माना। हे सूरदास ! संबोधन में पहले की अपेक्षा मान की थोड़ी कमी थी, किन्तु उद्दण्डता का अभाव था, इसलिए मैंने उसे मंत्री समझा। जबकि तीसरे संबोधन ‘अबे अंधे’ में तिरस्कार के भाव थे, इसलिए मैंने उसे दरबान समझा।“
वाणी को संस्कारी बनाने के लिए विचारों को संस्कारी बनाना चाहिए। विचारों को संस्कारी बनाने हेतु आहार शुद्धि जरूरी है। कॉन्वेन्ट में अंग्रेजी मीडियम में पढ़ने वाले बालकों में उच्च संस्कारों का खात्मा हो रहा है। बालक अल्प समय में स्वच्छंदी और पाश्चात्य अनार्य संस्कार से प्रभावित हो जाते हैं। अधिकतर बालक माता-पिता का कहना नहीं मानते, यह एक हकीकत है। हमारी मातृभाषा से अज्ञात होने के कारण हमारे महापुरुषों द्वारा बताई गई सुन्दर बातें, आदर्श चरित्र, सत्साहित्य और सत्संग से वे वंचित रहते हैं। बच्चों को सर्वप्रथम अपनी मातृभाषा और संस्कारमय शिक्षण की आवश्यकता है। इससे बच्चे विनयी बनेंगे, और संस्कार संपन्न बनकर अपना भविष्य उज्ज्वल बनाएँगे।
आरोग्य और आहार
अंग्रेजों ने पिछले कुछ वर्षों में ‘ब्रिटेन के नागरिकों ने कैसा आहार लेना चाहिए ?’ यह निश्चित किया है। अंग्रेज जिस आहार का सेवन करते हैं, उनमें से सत्तर प्रतिशत टिन पैक और कारखाने में बने हुए आहार लेते हैं। जिसके कारण प्रतिवर्ष डेढ़ लाख से अधिक लोग हृदयरोग से मृत्यु पाते हैं। ताजा आहार ही आरोग्य प्रदान करता है। जबकि बासी भोजन रोग को निमंत्रित करता है। आजकल चिकित्सकों का कहना है कि पैंतीस प्रतिशत केन्सर का रोग खराब आहार-विहार से होता है। विश्व में फूड-पोइज़न से होने वाली मृत्यु का प्रमाण दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। न्यू स्टेट्मेन्ट्स नामक अंग्रेजी साप्ताहिक ने निष्कर्ष निकाला है कि ‘चरबी, शक्कर और नमक का आहार बढ़ाने से एलर्जी बढ़ती है।‘
तन्दुरुस्ती के लिए गाय का दूध श्रेष्ठ होता है। क्योंकि जो शक्ति साँड में है, वह पाडे में नहीं है। भारतवासी भूल रहे हैं कि गाय के दूध में कोलेस्ट्रोल कम और विटामीन अधिक है। गाय का दूध आँखों का तेज बढ़ाता है।
धनवान लोगों को प्रोसेस्ड आहार खाते देख, मध्यमवर्गी लोग भी ताकत बिना का और महंगा आहार खाने लगे हैं। मैदे वाले और भारी खुराक खाने से बीमार रोगी जो दवाई खाते हैं, वह ज्यादा हानिप्रद है। ब्लडप्रेशर कम करने वाली सेलाक्रीन की दवाई लेने से लीवर बिगड़ता है। दर्द को मिटाने वाली दवाएँ लीवर और किडनी खराब करती है।
अल्सर और एसीडिटी खट्टे, तीखे, तले हुए पदार्थ खाने से होती है। अल्सर के लिए सिमेटिडीन लेना पड़ती है, जिससे मनुष्य का पुरुषत्व घटता है। केले के आसेवन से पेट में म्युकोस सेल्स अर्थात् कोमल त्वचा की वृद्धि होती है, जिससे पेट के अल्सर को रक्षण मिलता है। लंदन से प्रकाशित ‘गार्डिजन’ नामक साप्ताहिक की रिपोर्ट :
‘बाल्टिमोर यूनिवर्सिटि के अपराध विज्ञान के प्रोफेसर डियाना फिशबी ने फ्लोरिडा की जेल के कैदियों पर प्रयोग किया। जिसमें कुछ कैदियों के समूह को रीफाइन किया खाद्यन्न और मैदे व शक्कर की वस्तुएँ भोजन में देनी बंद कर दी, परिणामतः वे अनुशासित और शान्त बनते गए। कुछ समय बाद पुनः उन्हें मैदा, शक्कर और तला हुआ भोजन देना प्रारंभ किया, तो उनके आचरण में विकृति आने लगी। इसी प्रकार कुछ मस्तीखोर बालकों के भोजन में रीफाइन्ड शक्कर, सोफ्ट ड्रिंक आदि बन्द कर, उन्हें ताजे फलों का रस देना शुरु किया, परिणामतः उनकी शरारतें कम हो गई।‘
आहार और आरोग्य के विषय अधिकांश लोगों को नहींवत् ज्ञात है। आरोग्य को स्वस्थ रखने हेतु आहार विज्ञान का अभ्यास होना जरुरी है। इग्लैंड के डॉक्टर सर रिचार्ड डॉल का कथन हर कोई आरोग्यशास्त्री स्वीकार करते हैं: ‘तुम्हें केन्सर, हृदयरोग, हाइपर-टेन्शन, डायबीटीज, अल्सर और पेट के रोगों से बचना हो तो ज्यादा कैलोरी देने वाले साबुत धान्य, हाथ का पिसा हुआ आटा, दलहन, हरी सब्जी और फल का खुराक पर्याप्त है। चरबी, अंडे, मांस, मछली और मीठे पदार्थ नुकसानदायी होने से उनका त्याग करना चाहिए।
पाँच हजार से अधिक वर्ष पूर्व मानव ने सर्वप्रथम अपने भोजन में नमक का समावेश किया। उसके पश्चात् भोजन में स्वाद के लिए कुछ-न-कुछ बढ़ाते गए। दाल, पीझा आदि में ‘मोनो सोडियम ग्लुकोनेट’ मिलाने से स्वाद बढ़ता है। चाइनीज़ सामग्रियों में ‘आजिनो – मोटो’ मिलाया जाता है। इनके सेवन से केन्सर हो सकता है। यह स्वाद रसिकों के लिए बड़ी चेतावनी है।
तेल और घी में बनी वेफर, बिस्किट आदि ज्यादा समय पैकेट में रहने के कारण बिगड़ जाती है। इन्हें सुरक्षित रखने हेतु उसमें ‘एन्टीओक्सिडन्ट’ आदि का मिश्रण करते हैं। आलू की वेफर और नमकीन बिस्किट में हाइड्रोएक्सिटोल्यून’ रहता है, जिससे चर्मरोग तथा बच्चों के मस्तिष्क कमजोर होते हैं। बच्चे ‘हाईपर एक्टिव’ बनते हैं।
ताजे फल और शाकभाजी ही गुणकारी है। परन्तु अब बासी फल या डिब्बे में रखे फलों को सुन्दर रखने के लिए उनमें रासायनिक दवाइयाँ मिलाई जाती है। दूध का पावडर सफेद दिखाने के लिइ उसमें कृत्रिम रंग मिलाये जाते हैं। कन्डेन्स्ड मिल्क के डिब्बे में और इन्सटन्ट कॉफी में भी कृत्रिम रंगो की मिलावट की जाती है। ये रंग कोल-तार आदि में से बनते है। खाद्य पदार्थों में टार ट्राझिन नामक कृत्रिम रंग रहता है, जो बालकों के लिए हानिकारक है।
होटल में आइस्क्रीम, पुडिंग और मिल्कशेक आदि पदार्थों में इमल्सीफायर और स्टेबीलाइज़र नामक रसायन मिलाए जाते हैं। सभी खाद्य पदार्थों को स्वादिष्ट और सुगंधित बनाने के लिए उसमें फ्लेवरींग एजन्ट मिलाया जाता है। इन फ्लेवरींग एजन्टों की संख्या 3500 जितनी होती हैं। किसी भी खाद्य पदार्थों को ज्यादा टिकाने के लिए उनका कारखानों में प्रोसेसिंग होता है, इस कारण उसके पोषक तत्त्व, मूल रंग, स्वाद और सुगंध नष्ट हो जाते हैं।
नुडल्स, बिस्किट, केक, कॉफी, आलू की चिप्स, डिब्बे में पैक सब्जियाँ, टिन फूड में 50 जाति के कृत्रिम रंग, 13 प्रकार की मिठास, 70 तरह की खुराक का रंग – रूप बदलने के रसायन (टेक्सचर मोडीफायर्स), 43 प्रकार के प्रिजर्वेटीव (खाद्य को टिकाने वाले रसायन), 13 जाति के एन्टीऑक्सीडन्ट रसायन आदि 3794 प्रकार के रसायन तैयार खाद्य पदार्थों में मिलाये जाते हैं।
चीज़, पनीर आदि में नाइट्राइट्स नामक रसायन मिलाया जाता है, जो प्रतिदिन खाने से लीवर और किडनी खराब होती है।
बाजारों में दुकानदार जो मिलावट करते हैं, वह हम जानते हैं, परंतु कारखानों में सफेद कॉलरधारी उद्योगपति टेकनोलॉजी द्वारा जो मिलावट करते हैं वह हम पकड़ नहीं सकते। अखबार वाले भी टेकनोलॉजी की इस मिलावट को प्रकट नहीं करते हैं। क्योंकि अखबार वालों को इन कम्पनिओं से विज्ञापन के पैसे मिलते हैं। चॉकलेट के प्रचार हेतु सिर्फ ब्रिटेन में 250 करोड़ रूपये के विज्ञापन प्रकाशित होते हैं। कॉफी के विज्ञापन के लिए 180 करोड़ रूपये, आलू की वेफर में 90 करोड़ रूपये शुगर केन्डी और च्युइंगम के लिए 85 करोड़ रूपये और बिस्किट के विज्ञापन के लिए 86 करोड़ रूपये का व्यय होता है।
फलों का रस, जिसे सोफ्ट ड्रींक्स कहते हैं, उसमें सेब का रस, संतरे का रस और आम रस आदि में सेब, संतरा या आम्रफल का अंश भी नहीं रहता है, मात्र शक्कर, पानी, फ्लेवर और रसायन होते है। अतः सभी को सावधान होकर आरोग्य के खतरों से बचना चाहिए।
आज स्वाद-रसिक जीव आरोग्य अथवा मौत का विचार किए बिना अनारोग्य के कुएँ में कूद रहे हैं। जबकि आरोग्य प्रेमी जीव सूक्ष्म बात विचारकर अशुद्ध और मिलावटी वस्तुओं के त्याग को हितकारी समझते हैं।
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