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इंद्रियों के गुलाम या मालिक ?

Updated: Apr 12




ऐसे पुण्यशाली जीव जिन्हें रोज दो-चार घण्टे का Extra Time मिलता है, उन्हें उस Extra Time में धर्म की वृद्धि करनी चाहिए – गुरु भगवन्त ऐसा उपदेश क्यों देते हैं? इस प्रश्न के उत्तर पर हमारी चर्चा चल रही है। पिछले लेख में हमने देखा कि दो हजार Square Feet के प्लॉट में यदि 500 Square Feet की Extra जगह हो तो हर व्यक्ति वहाँ बगीचा ही बनाना पसन्द करेगा, क्योंकि वहाँ कचरा करना किसी को नहीं सुहाएगा।

इसी प्रकार कुदरत के दिए गए एकदम Fresh 24 घण्टों के प्लॉट में से जिसके पास रोज 2-4 घण्टों का Extra Plot हो, तो उसमें बगीचा बनाना कौन नहीं चाहेगा। किन्तु इसके लिए Planning के साथ मेहनत की जरूरत पड़ती है। पहली बात, व्यक्ति अपने बारे में (आत्मा के बारे) में बेफिक्र होता है, और ऊपर से, वह मोहराजा की ‘आलस’ नामक कन्या से अनादि-काल से विवाहित भी है। इसलिए वह न तो Planning करता है, और न ही मेहनत। बगीचा अपने आप तो बनेगा नहीं, लेकिन कचरा अपने आप इकट्ठा भी होता है और बढ़ता भी रहता है। कचरे को बढ़ने का बेरोकटोक Chance मिल गया, वह इसे कभी Miss नहीं करता।

इस लेख को पढ़ने वाले हर वाचक को स्वयं को मिलने वाले Extra Plot का विचार करना चाहिए, कि वह Extra Plot सदाचार की सुन्दरता और सद्गुणों की सुगन्ध से सुशोभित बगीचा है, या दुराचार की कुरूपता और दुर्गुणों से भभकता कीचड़ है। इस Extra Time में मुझे सामायिक करनी चाहिए, प्रभु भक्ति, स्वाध्याय और सद्वांचन करना चाहिए, गुरु भगवन्तों का सत्संग और सेवा करनी चाहिए, संघ, साधर्मिक, अनुकम्पा और जीवदया के कार्य करने चाहिए – ऐसा कोई Plan किया है? अनादिकाल से जीव के साथ जुड़ी ‘आलस’ नामक पत्नी उसे ये सब नहीं करने देती, अन्दर से मना करती रहती है। लेकिन ‘मुझे सत्त्व बनाए रखना है, आलस छोड़ना है, और इस Extra Time को सामायिक, स्वाध्याय आदि से अलंकृत करते रहना है’ आदि विचार सतत करते रहने हैं।

यदि यह Planning और यह सत्त्व नहीं रखा, तो आपकी इच्छा हो या न हो, आपको पसन्द हो या न हो, आपको स्वीकार हो या न हो, कचरा इकट्ठा हो ही जाएगा। क्योंकि जैसा पहले बताया, उस हिसाब से आपके पास दो ही Choices हैं, या तो बगीचा, या कचरा। ना बगीचा और ना ही कचरा, ऐसा कोई Option हमारे पास नहीं है। यह चन्द्र जैसा है, जिसके पास दो ही Option हैं, वह या तो बढ़ता है, या घटता, ‘न घटना, न बढ़ना’ ऐसा नहीं होता, चन्द्र स्थिर नहीं रहता। यदि उसे घटना नहीं है तो बढ़ना पड़ेगा।

दिन के 24 घण्टों में से 22 घण्टे मन खाली नहीं होता, कुछ न कुछ कार्य करता रहता है। लेकिन दो घण्टे कुछ भी कार्य न करने के कारण मन निठल्ला होता है। उस समय यदि प्रयत्नपूर्वक उसे शुभभावों से न भरा गया तो खाली मन शैतान का घर बन सकता है। 

शास्त्रों में एक बात आती है :

विशाल साम्राज्य का राजकुमार या अरबों-खरबोंपति धनाढ्य श्रेष्ठि का इकलौता बेटा, भर यौवनवय में प्रचण्ड वैराग्य के साथ दीक्षा ली। फिर तप, त्याग और विनयपूर्वक स्वाध्याय की धूनी जलाई, चौदह पूर्वधर बन गए, आचार्य बन गए और अनेक शिष्यों को भी पढ़ाकर उन्हें भी चौदह पूर्वधर बनाए। फिर साधना द्वारा ऐसी लब्धि प्रकट करे कि जिससे पुनरावर्तन न भी करे, फिर भी पढ़ा हुआ एक भी शब्द ना भूले। अब नूतन दीक्षित साधुओं को पढ़ाने का कार्य चौदह पूर्वधर बन चुके शिष्य करते है। अर्थात् अब ये आचार्य को अध्ययन आदि का कोई प्रयोजन नहीं रहा। ऐसी भूमिका तक पहुँचने वाले ऐसे आचार्य भगवन्त के लिए भी शास्त्रों में कहा गया है, कि उन्हें भी सतत स्वाध्याय करते रहना चाहिए। नहीं तो खाली पड़ा मन आपके संयम को और पदवी को शोभा न दे ऐसा गलत विचार भी करवा सकता है।

यदि प्रबल वैरागी और प्रचण्ड ज्ञानी के लिए यह बात बताई गई है, तो फिर हमारी तो बिसात ही क्या? इसलिए जिसे शैतान न बनना हो उसे खाली समय को शुभता और शुभ्रता से भरने की मेहनत चालू कर देनी चाहिए।

प्रश्न : मनुष्य यदि खाली पड़े दो घण्टे शैतान बन जाए, लेकिन बाकी के 22 घण्टे तो सज्जन बना रह सकता है न ?

उत्तर : हमने पिछले अंक में स्पष्ट रूप से देखा था, कि यदि 500 Square Feet की खाली जगह को कचरे से भर दिया, तो बाकी के 1500 Square Feet पर भी बुरी असर पड़ती है।

प्रश्न : बंगले में आने वाली दुर्गन्ध, मक्खी-मच्छर आदि बुरी असर स्पष्ट दिखाई देती है, लेकिन दो घण्टे की बुरी असर बाकी के 22 घण्टों पर हो, ऐसे कोई उदाहरण हैं ?

उत्तर : अनेकों उदाहरण हैं, मैं उनमें से कुछ उदाहरण बताता हूँ :

(1) सामान्यतः जो आराधक हैं, प्रभु-भक्त हैं और पापभीरु हैं, ऐसे श्रावक भी आलोचना करते समय या अपनी कमी बताते हुए हमें यह बताते हैं, कि दृष्टिसंयम हमारे लिए Next to Impossible है। Public Place या रस्ते पर ठीक, लेकिन देरासर में भी हमारी आँख का ठिकाना नहीं रहता। ‘कम से कम देरासर में तो पवित्रता रखें’ ऐसी प्रामाणिक इच्छा और इस हेतु दृढ़ संकल्प होने पर भी रत्नाकर पच्चीसी की यह पंक्ति :

आवेल दृष्टिमार्गमां मूकी महावीर! आपने, 

में मूढ़धिए हृदयमां ध्याया मदनना चापने।

उपरोक्त पंक्ति अक्षरशः हम पर लागू हो जाती है। प्रभु को निरखती आँखें प्रभु को छोड़कर परस्त्री की तरफ कब चली जाती है, पता ही नहीं चलता। यह याद भी आता है कि मैं देरासर में हूँ, मुझे उस ओर नहीं देखना, फिर भी आँख और मन के बीच युद्ध चलता है, फिर हमारा Control नहीं रहता और आँख परस्त्री की ओर चली जाती है। 

महाराज साहेब! ऐसा क्यों होता है ? 

जवाब में मैं उन्हें शास्त्रों में वर्णित एक कथा कहता हूँ।

एक ब्राह्मणी थी, उसे पूरे जहां का अनुभव था, वह बहुत दक्ष और चतुर थी। उसकी तीन बेटियाँ थी, उनमें से पहली का विवाह हुआ। उसे ससुराल विदा करते समय माँ ने अकेले में कहा, ‘पहली रात को शयनखण्ड में जब पहली बार तेरा पति तेरे पास आए, तो उसके पेट पर जोर से लात मारना, फिर क्या होता है, मुझे बताना।’ बेटी को लगा कि ये कैसी विचित्र सलाह है? लेकिन फिर सोचा कि मेरी माता तो विचक्षण है, उसने मेरे भले के लिए ही ऐसा कहा होगा। ऐसा सोचकर उसने माँ की सलाह पर अमल करने का तय किया, और रात को वास्तव में उसने अपने पति के पेट पर जोर से मारा। एक बार तो पति चौंका, फिर उसने सोचा और कहा, ‘लातें तो पूरी दुनिया मारती है, लेकिन तेरे पैर कोमल हैं, कहीं तुझे लगी तो नहीं?’ यह कहकर वह पत्नी के पैर दबाने लगा।

बेटी ने दूसरे ही दिन अपनी माँ को रिपोर्ट दी, तो माँ बोली, ‘तेरा पति तेरा दास बनने के लिए बना है, तू जैसा-जैसा बोलेगी और उससे काम करवाती रहेगी वैसे-वैसे वह तुझ पर प्रसन्न होता रहेगा, और तू सुखी रहेगी।’

फिर दूसरी बेटी का विवाह हुआ, माँ ने उसे भी वही सलाह दी। लेकिन उसने जब अपने पति को लात मारी तो वह गुस्से से भर गया, थोड़ी देर नाराज रहा, फिर शान्त पड़ा। दूसरी बार ऐसा न करने की शर्त पर उसने पत्नी को माफ किया। बेटी ने जब अपनी माँ को रिपोर्ट बताई, तो माँ बोली, ‘तुझे अपने पति के साथ मध्यम मार्ग अपनाना पड़ेगा, कभी तुझे उसकी आज्ञा माननी है तो कभी अपनी बात मनवानी है, थोड़ा काम तुझे करना होगा और थोड़ा उससे करवाना होगा, ऐसा करेगी तो सुखी रहेगी।’ 

फिर तीसरी बेटी का विवाह हुआ, माँ ने फिर वही सलाह दी। लेकिन इस बार पासा उल्टा पड़ा। बेटी ने जैसे ही पति को लात मारी तो पति का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वह तुरन्त शयन कक्ष से बाहर निकला और वापिस लौटा ही नहीं। उपरान्त उसने अपने माता-पिता को भी बोल दिया कि लड़की बद्तमीज और नीच कुल की लगती है, इसे वापिस पीहर भेज दो। फिर उस लड़की को धमकी दी, कि वापिस इस घर में कदम भी मत रखना और उसे घर से निकाल दिया।

लड़की रोते-रोते माँ के पास आई और बोली, आपने यह कैसी सलाह दी, मेरी जिन्दगी खराब कर दी। माँ ने जब माजरा पूछा, तो लड़की ने रोते-रोते सब कुछ बताया। माँ ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा, ‘तू चिन्ता मत कर, सब अच्छा होगा।’ फिर लगभग दस बजे माँ अपनी बेटी को लेकर उसके ससुराल पहुँची। वहाँ पहले से ही माहौल बिगड़ा हुआ था। किसी ने उनकी ओर मुँह उठाकर भी नहीं देखा, लेकिन फिर माँ ने सबको बुलाया और पूछा, ‘मेरी बेटी को वापिस क्यों भेजा?’ जमाई राजा अभी भी गुस्से में थे, ‘हमें क्या पूछ रही हो? अपनी शहजादी से पूछो, उसने क्या पराक्रम किया ?’

‘ माँ शान्ति से बोली, ‘जमाई राजा! आप ही बताइए न ! इसने क्या किया ? ’

‘इसने मुझे लात मारी।’

‘इसे गुस्सा आए, ऐसा कुछ आपने किया ?’

‘मैंने क्या खाक किया? मैंने तो एक शब्द भी नहीं बोला, अरे! मैं तो इसके पास भी नहीं पहुँचा था, इसने तो सीधे लात मार दी? ये कौन से संस्कार हैं ?’

माता ने शान्ति और समझदारी से कहा, ‘तो जमाई राजा! आपको समझना चाहिए था कि इसने गुस्से में लात नहीं मारी।’

तो फिर क्यों मारी?’

‘जमाई राजा! हमारी कुलदेवी की ऐसी मान्यता है, कि यदि कन्या पहली रात में पति को लात मारे तो उनका दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक गुजरता है, इस-लिए मैंने इसे लात मारने के लिए कहा। इसलिए इसने आपको लात मारी।’

‘ऐसी फालतू की कोई मान्यता होती है?’ जमाई ने पूछा, तो माँ बोली, ‘आपको विश्वास न हो तो मेरे पहले के दोनों जमाइयों से पूछ लीजिए।’ फिर कुछ इधर-उधर की बातें बोलकर माँ ने जमाई को समझा-बुझाकर शान्त कर लिया। मामला ठण्डा हुआ और बेटी फिर से ससुराल गई। फिर माँ ने बेटी से कहा, ‘यदि तुझे सुख से जीना हो, तो अपने पति की हाँ में हाँ मिलाते रहना।’

बात यह है कि पुरुष के पास पत्नी के मामले में तीन विकल्प हैं, या तो पत्नी का गुलाम बन जाए, या पत्नी को गुलाम बना ले या तीसरा मध्यम मार्ग रखे। किन्तु जीव को आँख आदि इन्द्रियों के मामले में दो ही विकल्प होते हैं, या तो आँखों के मालिक बन जाओ या फिर गुलाम। टीवी, मोबाइल आदि की संगत में रहकर ‘मैं आँखों का गुलाम हूँ, लेकिन देरासर में मैं आँखों का मालिक हूँ या आँख मेरे Control में है’ ऐसा मध्य मार्ग अपनाना सम्भव नहीं है।

इसलिए जिसे देरासर में आँखों को पवित्र रखना हो, उसे पूरे दिन आँखों को पवित्र रखना होगा। Extra वाले दो घण्टे में टीवी और मोबाइल की शरण में रहने वाले के लिए ऐसा करना सम्भव नहीं है। जब देरासर में उसकी आँख कहेगी कि यहाँ भगवान को नहीं उस रूपवती स्त्री को देख और मुझे खुश कर, तो जीव को आँख की आज्ञा माननी पड़ेगी। क्योंकि जीव ने आँख का इसी प्रकार पोषण करके उसे महारानी बना दिया है, सर पर चढ़ा दिया है, और स्वयं निःसत्व होकर निर्बल और कायर बन चुका है।

टीवी और मोबाइल ने अधिकतर पुरुषों की यही हालत कर दी है, यदि कोई सुन्दर और स्मार्ट लड़की दिखे तो, बार-बार नजर वहीं जाती है। अखबार, मैगजीन, पोस्टर वगैरह हर जगह आँखें वही चीज ढूंढती है। गंदगी की बास तो ऐसी ही होती है ना ?

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