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चढ़ावे पैसों में ही क्यों लिए जाते हैं? देवद्रव्य का उपयोग अन्य किसी भी कार्य में क्यों नहीं हो सकता? आदि बातें अब बराबर से समझ में आ गईं हैं। अब प्रश्न है कि, इतने सारे देरासरों की क्या जरूरत है?
उत्तर : बाघ और सिंह अपने रहने के लिए गुफा बनाते हैं, सांप बिल बनाता है, पक्षी अपने लिए घोंसला बनाते हैं, अरे! चींटी भी अपना बिल बनाती है। पर पशु-पक्षी की सृष्टि में ऐसा कोई देखने को नहीं मिलेगा कि जो अपने निवास स्थान के सिवा और भी कुछ बनाता हो। दूसरे, पक्षी अपने लिए दूसरा घोंसला या दूसरे पक्षी के रहने के लिए घोंसला कभी भी नहीं बनाता, और अपना एक घोंसला भी जरूरत के जितना ही बनाता है, उससे ज्यादा बडा – बहुत विराट वह कभी भी नहीं बनाता है।
सिर्फ मानव ही ऐसा है जो अपना घर बनाता है, वह भी जरूरत 400 फुट की होने पर भी पैसों की सुविधा हो तो 2400 फुट का भी बनाता है। जिसमें बाकी के 2000 फुट में ज्यादातर उसका Ego रहता है। ऊपर से एक अच्छा घर होने पर भी हिल स्टेशन पर दूसरा बंगला बनाता है। (जिसमें 12 महीने में 12 दिन भी रहता होगा या नहीं यह बड़ा प्रश्न है।) पांच-सात साल बीतने पर लाखों रुपए खर्च करके नया इंटीरियर बनाता है। चार-चार मंजिल का मकान जो अभी और दूसरे 25-30-40 साल तक आराम से टिका रह सकता है, फिर भी उसे रिनोवेट करवाकर सात मंजिल का या उससे भी बड़ा बनाता है। यंत्र सामग्रियों उप प्रश्न से कुदरती स्रोतों का बेहिसाब उपयोग और बेहिसाब व्यय किया जाता है।
अरे! निवास स्थान के अलावा भी स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, सभागृह, थिएटर, दुकान, मार्केट, मॉल, बाजार, इंडस्ट्री, होटल, हॉस्पिटल, विधान-सभा भवन, संसद भवन इत्यादि ढेरों इमारतें करोड़ों-अरबों के खर्चे से बनाता है। इन सभी के लिए किसी को कोई भी प्रश्न नहीं उठता है, बस एक मंदिर के लिए ही कुछ लोगों को प्रश्न होते हैं, और उस प्रश्न को वे लोग बढ़ा-चढ़ाकर फैलाते रहते हैं।
प्रश्न :
पर यह स्कूल-कॉलेज आदि तो जरूरी निर्माण है, फिर उसके लिए प्रश्न क्यों उठेगा?
उत्तर :
मतलब कि आप मंदिर को अनावश्यक मानते हैं? यह तो आज की विकृत विचारधारा की गड़बड़ है। देखो ना! सरकार को भी मदिरा जरूरी लगती है, और मंदिर जरूरी नहीं लगता! इसलिए तो लॉकडाउन से अनलॉक सबसे पहले शराब की दुकान और बीयर बार से किया, और मंदिरों को सबसे आखिर में, उसमें भी अभी भी कितने नियंत्रण रखे गए हैं।
प्रश्न :
अगर मंदिर जरूरी है, तो उसका उपयोग क्या है?
उत्तर :
इस प्रश्न का उत्तर मैं प्रति-प्रश्न के द्वारा दूँगा।
प्रति-प्रश्न :
हॉस्पिटलों का क्या उपयोग है?
प्रति-उत्तर :
तरह-तरह के रोगों से मानव को निरोगी बनाने के लिए हॉस्पिटल होती है।
उत्तर :
शारीरिक रोगों को मिटाने के लिए जिस तरह हॉस्पिटल होती है; उसी तरह आत्मिक रोगों को मिटाने के लिए मंदिर होते हैं। फिर वह अना-वश्यक कैसे हुआ?
प्रश्न :
आत्मा को कौन-से रोग लगे हुए हैं?
उत्तर :
बेशुमार रोग हैं, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, विषय, वासना, ईर्ष्या, निंदा, आहारसंज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, बात बात में कमी महसूस होना, बुरा लग जाना, छोटी-छोटी बातों में चिंता करना, टेंशन करना, कृपणता, स्वार्थांधता, निर्दयता आदि।
प्रश्न :
सालों से पूजा आदि प्रभुभक्ति करने पर भी क्रोध तो वैसा का वैसा ही खड़ा मिलता है, तो फिर मंदिर के कारण ये आत्मिक रोग मिट सकते हैं, ऐसा कैसे कह सकते हैं?
उत्तर :
हॉस्पिटलाइज्ड होकर, 8-10-15 दिनों तक हॉस्पिटल में रहने पर भी, ट्रीटमेंट लेने पर भी, रोग नहीं मिटता। क्या ऐसा नहीं होता है?
प्रश्न :
पर मंदिर में जाने वालों का रोग मिट जाता है, उसका क्या प्रमाण है?
उत्तर :
क्रोध करने के बाद भी, कभी भी उसका स्वीकार नहीं करना, मात्र उसका बचाव करना, उस बचाव करने में अगर जरूरत पड़े तो नया झगड़ा करना, और नया क्रोध करना। ऐसा करने वाले साक्षात् क्रोध के अवतार के समान मनुष्य भी प्रभु चरणों में अपने क्रोध के लिए आंसू बहाते हैं, पश्चाताप करते हैं। क्रोध का तूफान, अहंकार का तूफान थोड़ा भी कम हो, तभी यह संभव होता है। वरना आंसू कैसे निकल सकते हैं? क्रोध की यह थोड़ी सी कमी क्या रोग के आंशिक निवारण का प्रमाण नहीं है?
संत नामदेव पहले एक खूंखार गुंडा था। किसी बड़े पर्व के दिन पर मंदिर में प्रभु की उपासना करने गया था। कमर पर तलवार तो थी ही। वहीं एक छोटा बालक और उसकी माँ भी मंदिर में आई हुई थी। उस दिन मंदिर में राजभोग चढ़ाया जाने वाला था, किन्तु राजभोग देखकर बालक अपनी माँ से राजभोग की मांग करने लगा। माँ ने कहा, ‘बेटा! शांति रख, अभी तो अभिषेक होगा, पूजा होगी, फिर राजभोग प्रभु को चढ़ाया जाएगा, और उसके बाद हमें प्रसाद मिलेगा।’ पर भूखा बालक राह देखने को तैयार नहीं था, इसलिए वह रोने लगा। माँ उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थी, लेकिन बालक और ज्यादा रोने लगा। खुद को विक्षेप होने की वजह से नामदेव उस बाई के पास आया और कहा कि, ‘बहन! बाहर मिठाई की दुकान से थोड़ी मिठाई खरीदकर तेरे बच्चे को खिला दे, तो वह शांत हो जाएगा।’
बाई की आंखों में से आंसू बहने लगे। रोती हुई आवाज से उसने नामदेव से कहा कि, (उसे पता नहीं था कि, सामने खड़ा व्यक्ति वही कुख्यात गुंडा नामदेव है।) ‘भाई! जब से गुंडे नामदेव ने इसके बाप की हत्या कर दी है, तब से खरीद कर मिठाई खाने के हमारे दिन खत्म हो गए हैं।’ और बाई बिलख-बिलख कर रोने लगी। नामदेव की नजर प्रभु की कृपा नजरों को पी रही थी, और कान इस बाई के शब्दों को सुन रहे थे। इस कृपा और शब्दों ने नामदेव के दिल को झंझोड़ दिया। वह मंदिर से बाहर निकला। बाई को बाहर बुलाया। अपनी तलवार उस बाई के हाथ में देते हुए कहा, ‘बहन! तेरे पति हत्यारा नामदेव मैं ही हूँ। ले यह तलवार! मेरी गर्दन पर चलाकर हत्या का बदला ले ले।’ ऐसा कहकर अपना मस्तक झुकाकर नामदेव खड़ा हो गया।
बाई ने तलवार तो हाथ में नहीं ली, पर नामदेव से कहा, ‘भाई! पति के बिना मेरी और मेरे संतानों की क्या हालत हुई है, यह मैं ही जानती हूँ। मेरी भाभी और भतीजों की ऐसी हालत में कैसे कर सकती हूँ? मैंने तो तुझे माफ कर दिया है।’
नामदेव वहाँ से निकल गया और सन्यास ले लिया। एक समय का नामी गुंडा अब नामांकित संत बन गया।
हाँ, मंदिर एक हॉस्पिटल है, यह क्रूरता, निर्दयता, तीव्र पाप-रस आदि रोगों को मिटाकर अहिंस-कता, दया, पाप के पश्चाताप आदि रूप आरोग्य प्रदान करता है।
वासना में अंध होकर भयंकर अकार्य करने वाले भी प्रभुचरणों में आकर फूट-फूटकर रोते हैं। वासना की तीव्रता कम हुए बिना क्या यह संभव है?
दूसरी बातों को एक बार छोड़ो। मंदिर की तरह पब्लिक की भीड़ तो मॉल और मल्टीप्लेक्स में भी होती है। पर भिखारी ज्यादातर मंदिर के बाहर ही खड़े रहते हैं। मल्टीप्लेक्स या मॉल के बाहर नहीं, क्यों? इसलिए कि भिखारी भी यह समझता है कि मंदिर में भगवान भले ही मौन हैं, पर फिर भी कृपणता, स्वार्थरसिकता आदि का ट्रीटमेंट प्रभु करते हैं, और भक्त को सहज उदारता, परोपकार आदि की प्राप्ति होती है।
उसी तरह मनुष्यों ने क्रिकेट, हॉकी, टेनिस आदि विविध क्रीड़ा संकुल बनाए हैं। जिससे रोज-बरोज के जीवन रूटीन से वह थोड़ा ताजा – fresh हो सके। कुछ खेल कुछ लोगों को बोर करते हैं, फिर भी अन्य कुछ लोगों को ताजगी भी देते हैं, इसी-लिए हर प्रकार के खेल के संकुल बनाए गए हैं। तो उसी तरह जीवन में अनेक प्रकार के विषाद की छाया से बाहर आकर ताजगी का अनुभव सैकड़ों, हजारों भाविक लोग प्रभुमंदिर में करते हैं। इसमें उनका अनुभव अपने आप में प्रमाण है। आप स्वयं भी इसका अनुभव कर सकते हैं।
मन को Up-Set करके, चिंता, टेंशन, डिप्रेशन, यहाँ तक कि Suicide तक की दिशा में ले जाए ऐसी घटना जब बनती है, तब मेरा आपको आह्वान है कि, देरासर में जाओ, प्रभु की नजरों से नजरें मिलाओ, और रत्नाकर पच्चीसी की पच्चीस स्तुतियाँ मंद स्वर से, धीमी गति से, शब्द दिल तक पहुँचे और दिल के तार झनझना दे, इस तरह बोलो।
15-17-20 मिनट की यह प्रभु भक्ति आपको मानसिक Stress से 50% रिलैक्स तो कर ही देगी ऐसी मेरी श्रद्धा है।
पर सामान्यतः मानव के जीवन में जब ऐसी कोई घटना होती है, तब चिंता, टेंशन, आर्त्तध्यान की शरण में जाना, या तो डिप्रेशन में जाकर आत्म-हत्या का मार्ग अपनाना, या तो गुटखा, शराब या ड्रग्स की शरण में जाना, वह इन सभी का ही आदी है। प्रभु-शरण में जाने के लिए तो प्रभु-शरण का रस होना चाहिए। उसके लिए रोज प्रभु भक्ति करना जरूरी होता है। यदि मंदिर ही नहीं होगा तो यह कैसे कर सकेंगे?
पर एक बात निश्चित है। चिंता, टेंशन आदि, या गुटखा, शराब आदि किसी भी वस्तु, जो विषम परिस्थिति का निर्माण हुआ होता है उसे हल तो कर ही नहीं सकती है। और ऊपर से शारीरिक, मानसिक और आत्मिक प्रचंड नुकसान करके परिस्थिति को और बिगाड़ देती है। उधर प्रभु भक्ति, शरीर को स्वस्थ रखती है, मन को प्रसन्नता से भर देती है, और आत्मा को शांत, प्रशांत और उपशांत बनाती है। साथ ही पापोदय को रोककर पुण्यो-दय करके परिस्थिति को सुलझा भी सकती है।
मानव ने मनोरंजन, आनंद, प्रमोद आदि के लिए थिएटर, मल्टीप्लेक्स, नाट्यगृह आदि बनाए हैं। तो उसी ही तरह सैकड़ों-हजारों प्रभु भक्तों को प्रभुभक्ति में आनंद का अनुभव होता है।
कैसा आनंद? खाना भूला, पीना भूला, अरे! नींद और आराम तक भूला। ऐसा एकाकार हुआ कि सुलगता संसार भी भूल गया। यदि आनंद का अनुभव नहीं होता, तो रोज-रोज घंटों तक प्रभु-भक्ति करना संभव ही नहीं है।
मानव ने टाइम-पास के लिए टी.वी., मोबाइल, व्हाट्सएप, यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम, चैटिंग आदि कईं माध्यम अपनाए हैं। पर ये सारे माध्यम उसके जीवन की पवित्रता, सदाचार, और शील के लिए जुए के समान हैं। दांपत्य जीवन में आग लगाने वाले हैं। प्राण से भी अधिक प्यारे पार्टनर का (पति का या पत्नी का) खून कराने तक पहुँचाने वाले हैं। ये सब इस दुनिया का Worst से Worst व्यसन है। यह गृहिणी को गृहकार्य नहीं करने देता है, विद्यार्थी को पढ़ने नहीं देता है, कर्मचारी को ऑफिस के कार्य करने में रुकावट पैदा करता है, सेवा करने वाले को सेवा करने से वंचित कर देता है। यह मानव को शंकाशील, चिड़चिड़ा, गुस्सैल, अपनी फर्ज के प्रति लापरवाह और आलसी बना देता है। इन सारी चीजों का दुनिया ने हजारों बार अनुभव किया है, और अभी भी रोज-रोज अनुभव कर रही है। फिर भी इसके लिए कोई प्रश्न नहीं उठाता है।
जबकि मंदिर और प्रभु भक्ति तो टाइम-पास करने का श्रेष्ठ माध्यम और निर्दोष माध्यम है। और ऊपर से इसका कोई drawback नहीं है।
साथ ही इससे शारीरिक, मानसिक, आत्मिक इत्यादि सारे लाभ तो अनेक मिलते हैं। और फिर भी उसके लिए ही प्रश्न!
अहो! कलिकाल!
अहो! विषम शिक्षण!!
अहो! विपरीत विचारधारा!!!
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