सृष्टि के सृजन के विषय में आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रस्तुत Big Bang थिअरी आदि के विषय में तर्कसंगत उत्तर से रहित ढ़ेरों प्रश्न बिना सुलझे खड़े हैं। इसीलिए विज्ञान भी नई-नई कल्पनाओं के आधार पर अपने निष्कर्ष बदलता रहता है। यानी कि विवक्षित विस्फोट होकर विश्व को अस्तित्व में आए हुए कितने साल बीत गए उसका अनुमान ढाई अरब या तीन अरब वर्ष तो कभी चार अरब वर्ष, इस तरह बदलता रहता है।
यह सारी थिअरी तर्कसंगत नहीं है, यह स्पष्ट है फिर भी विज्ञान कहता है, इसलिए श्रद्धा करनी पड़ेगी। किन्तु यदि धर्म कहता है कि, कंदमूल में अनंत जीव हैं तो फिर उसमें भी तर्क लगाए बिना श्रद्धा के साथ स्वीकार क्यों नहीं करना है?
दुनिया में ऐसे भी अनेक धर्म हैं, जो इस विश्व को अनादि नहीं मानते हैं। विश्व का सृजन हुआ है, ऐसा मानते हैं। और विश्व के सृजनहार के रूप में ईश्वर को मानते हैं। अर्थात् ईश्वर ने इस सृष्टि का सृजन किया है, ऐसा कहते हैं। यह बात भी तर्कसंगत नहीं है। क्योंकि इसमें भी कईं रहस्यमय (बिना सुलझे हुए) प्रश्न हैं। वे प्रश्न इस प्रकार हैं:
यदि विश्व ही नहीं था, तो ईश्वर कहाँ थे?
ईश्वर स्वयं अनादि हैं, कि उत्पन्न हुए थे। यदि उत्पन्न हुए, तो उनको किसने उत्पन्न किया? उन्हें उत्पन्न करने वाले दूसरे ईश्वर ‘अनादि’ थे या उत्पन्न हुए थे? यदि दूसरे ईश्वर अनादि थे, तो उन्हें ही मूल ईश्वर और अनादि मान लेने में क्या दिक्कत है? दूसरे ईश्वर यदि उत्पन्न हुए थे, तो उनको उत्पन्न करने वाले फिर तीसरे ईश्वर को मानना पड़ेगा …। और ऐसे तो ईश्वरों का कहीं अंत ही नहीं होगा। ऐसी शृंखला को मानना अयोग्य है।
इसलिए यदि मूल ईश्वर को ही ‘अनादि’ मान लिया जाए तो विश्व को ‘अनादि’ मानने में क्या परेशानी है?
और यदि ईश्वर ‘अनादि’ है, तो आप जिस सृष्टि के सृजनकाल को मानते हो, उस विवक्षित काल में ही उसका सृजन क्यों किया गया? उसके पहले के अरबों वर्षों में उनको सृष्टि का सृजन करने की कोई जरूरत ही नहीं पड़ी थी? फिर उस विवक्षित काल में ही ऐसी जरूरत क्यों पड़ गई?
बिना किसी जरूरत के, बिना किसी प्रयोजन के कुछ भी करना क्या मूर्खता है?
क्या ईश्वर को मूर्ख समझेंगे?
और यदि पहले विश्व था ही नहीं, तो ईश्वर ने सृजन कैसे किया? किसने किया?
उपरांत, ईश्वर दयालु है या निर्दयी?
यदि दयालु है, तो जीवों को दुःखी क्यों बनाया?
दुःखों और दुर्गति का सृजन ही क्यों किया?
और यदि वह निर्दयी है, तो उसे ईश्वर ही कैसे मान सकते हैं?
क्या निर्दयी, क्रूर और निष्ठुर व्यक्ति ‘ईश्वर’ हो सकता है?
प्रश्न: ईश्वर तो दयालु ही है, पर जीव के जैसे कर्म होते हैं उसके अनुसार उसे सुख या दुःख मिलता है, ऐसा मान लें तो?
उत्तर: यदि पहले विश्व था ही नहीं, तो जीव ने अच्छे-बुरे कर्म कैसे बाँधे? कहाँ बाँधे? किसी जीव ने अच्छे कर्म बाँधे, किसी ने बुरे कर्म बाँधे ऐसा विभाग किस आधार पर करेंगे?
और सुख-दुःख आदि विषमताएँ यदि कर्म के आधार पर होती है तो फिर ईश्वर के पास करने के लिए बचा क्या?
वर्तमान में कोई दुःखी है तो कोई सुखी, कोई होशियार है तो कोई मूर्ख, कोई रूपवान तो कोई कुरूप, कोई धनवान तो कोई निर्धन; आदि जो विषमताएँ देखने को मिलती हैं, उसका कारण पूर्वजन्म के कर्मों को ही मानना पड़ेगा। और उस पूर्वजन्म में भी विषमताएँ तो थीं ही। यदि नहीं होती, तो उन सभी चीजों ने एक समान ही कर्म किए होते और वर्तमान में भी बिना विषमता के एक समान दिखाई देते।
यानी कि पूर्वजन्म में जो विषमताएँ थीं, उसकी संगति के लिए उससे पूर्वजन्म के कर्मों को जिम्मेदार मानना पड़ेगा और उस पूर्वजन्म की विषमताओं की संगति के लिए उसके भी पूर्व के जन्म को और वहाँ बाँधे गए कर्मों को ही मानना पड़ेगा। कभी भी बिना किसी कारण के यदि विषमताओं को मानना हो, तो वर्तमान विषमताओं को भी बिना किसी कर्म के मान सकते हैं।
और इसका अर्थ यह हुआ कि, बिना किसी कारण के कार्य हुआ। यदि ऐसा है तो, बिना मिट्टी के मटका भी बनना चाहिए पर ऐसा कभी भी नहीं होता। इसलिए हर एक विषमता के पूर्व में कर्मों को मानना जरूरी है। और इसलिए कर्मों को प्रवाह से अनादि मानना पड़ता है। जीव के बिना तो कर्म का कोई मतलब ही नहीं है, इसलिए जीव को भी अनादि मानना आवश्यक बन जाता है। और जीव तथा कर्म यदि अनादि काल से हैं, तो विश्व भी अनादि काल से है, यह सिद्ध हो ही जाता है।
बात एकदम सीधी है कि, प्रभु शासन की बातें, जो एकदम सरल हैं, वे हमारे दिमाग में बैठी ही नहीं है। हम उन सभी बातों के सामने प्रश्न उठा लेते हैं, और दूसरी ओर विज्ञान आदि अन्य की जो भी बातें हैं, जिनके उत्तर से हमारी शंका का समाधान नहीं होता, बल्कि और प्रश्न उठते हैं, फिर भी हम उनके समक्ष प्रश्न नहीं उठाते और ऐसी बातों को स्वीकार कर लेते हैं। तो यह तो हमने प्रभु के शासन के साथ अन्याय किया है और उसके द्वारा खुद के आत्मा के साथ भी अन्याय किया है।
इस प्रकार विश्व के प्रारंभ को मानने में अनेक विसंगतियाँ खड़ी हो जाने से विश्व का प्रारंभ तो प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए विश्व को अनादि काल से मानना जरूरी है।
प्रश्न: यदि विश्व अनादि है, तो ईश्वर ने क्या किया?
उत्तर: न्यूटन नाम का एक किसान अपने खेत में सेब के वृक्ष के नीचे बैठा था। पेड़ पर से एक सेब नीचे गिरा। यह दृश्य देखकर न्यूटन चिंतन करने लगा। और उसने The Law of Gravitation – गुरुत्वाकर्षण का नियम खोज निकाला।
सर आइजेक न्यूटन ने पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बनाया था? नहीं, यह तो इस घटना के पूर्व भी था ही। पहले भी सेब नीचे ही गिरता था, ऊपर या तिरछा नहीं जाता था। इसलिए न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण जैसी चीज बनाई नहीं है, पर बतायी है।
इसी ही तरह से विश्व तो पहले भी था ही, उसे ईश्वर ने बनाया है – ऐसा नहीं है, पर ईश्वर ने विश्व को बताया है। अर्थात् उसका स्वरूप, जिसे हम नहीं जानते थे, वह हमें बताया है।
जिस प्रकार से कच्चे माल के बिना कोई भी वस्तु उत्पन्न नहीं होती है, उसी तरह से भंगार छोड़े बिना कोई भी वस्तु का नाश नहीं होता है। मटका नष्ट होगा तो ठीकरी तो रहेगी, कपड़े का नाश होगा तो चीथड़े तो रहेंगे। अर्थात् मटके या कपड़े में से ठीकरी या चीथड़ा कुछ भी नहीं बचा हो, बिल्कुल शून्य बन गया हो, ऐसा मटका या कपड़े का नाश कभी भी नहीं हुआ है। उसका नाश होने पर पीछे ठीकरी या चीथड़ा इत्यादि कुछ ना कुछ तो अवश्य रहता ही है।
इसका मतलब यह है कि मटके का ठीकरी में रूपांतर हो जाना यही उसका नाश है। कपड़े का चीथड़े में रूपांतर हो जाना यह कपड़े का नाश है।
इसी ही तरह से विश्व का भी रूपांतर होता रहता है, पर बिल्कुल शून्य बन जाए, कुछ भी न बचे – ऐसा नाश कभी भी नहीं होता। और जो रूपांतर होता है वह भी विश्व का ही एक स्वरूप होता है, इसलिए विश्व सदैव टिका ही रहता है।
इन सभी बातों का सारांश यह है कि, अनादि भूतकाल में विश्व किसी न किसी स्वरूप में था ही, बिल्कुल शून्यकार कभी नहीं था। वर्तमान में विश्व वर्तमान स्वरूप में है, और भविष्य में भी वह किसी न किसी स्वरूप में अवश्य रहने वाला ही है, बिल्कुल शून्य बनने वाला नहीं है।
“इसलिए विश्व आदि = प्रारंभ बिना का = ‘अनादि’ है, और अंत बिना का = अनंत है। “
अब हम दूसरे मुद्दे के बारे में सोचते हैं:
जीव अनादि काल से है, प्रथम मुद्दे में यह बात आ गई है, उसे और दृढ़ करते हैं।
तांबे के कच्चे माल में से तांबा ही पैदा हो सकता है, सोना चांदी नहीं। हीरे के रफ माल में से हीरा ही बन सकता है, मोती-माणेक नहीं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि, रॉ-मटीरियल भी प्रोडक्ट के अनुरूप ही चाहिए होता है। कोई भी रॉ-मटीरियल में से कोई भी प्रोडक्ट बन जाए, ऐसा कभी भी नहीं होता है।
तो मान लो कि जीव आदिकालीन नहीं है, पर उत्पन्न होता है, तो …
वर्तमान में यदि जीव चैतन्य से धड़कता है, तो उसका रॉ-मटीरियल भी वैसा ही चाहिए, बिल्कुल जड़ पदार्थ जीव के रूप में रूपांतरित हो गया हो, ऐसा नहीं हो सकता है। इसलिए वर्तमान जीव के भूतकाल को भी चैतन्यवंत ही मानना पड़ेगा। इसलिए वह भी जीव स्वरूप ही था। इसलिए जीव का रूपांतर होता रहता है, पर वह एकदम नया पैदा होता है, ऐसा नहीं मान सकते हैं।
बालक जन्म के बाद सर्वप्रथम जो स्तनपान करता है, यह उसे किसने सिखाया? आशय यह है कि बालक भूखा होता है, तो रोता है। (रोता है तो ही माँ को पता चलता है कि वह भूखा है) तो भूख लगे तो रोना चाहिए, यह बालक को किसने सिखाया?
और माँ तो बालक के मुख को अपने स्तन तक ले जाती है। पर दूध कोई बिजली के प्रवाह जैसा नहीं है कि संपर्क होने मात्र से बहने लगे। बालक एक खास प्रक्रिया करता है, तो ही माँ के स्तन से दूध का प्रवाह बालक के मुख में आता है। यह प्रक्रिया बालक को किसने सिखायी?
हकीकत यह है कि, बालक ने भूतकाल में ऐसी प्रक्रिया की है, और उसके संस्कार पड़ गए हैं, जो वर्तमान में ऐसी situation मैं आने मात्र से जागृत हो जाते हैं। और बालक को इस प्रक्रिया का स्मरण करा देते हैं।
तो प्रश्न उठेगा कि भूतकाल में, पिछले जन्म में भी पहली बार उसने स्तनपान किया था वह उसको किसने सिखाया था। और ऐसा तो था नहीं कि बालक ने देखा हो कि उसकी माँ अपनी माँ का स्तनपान करती हो, और उसे देखकर बालक भी सीख जाता हो। इसलिए पिछले जन्म के स्तनपान के लिए उसके पूर्व भी ऐसी प्रक्रिया के उसके संस्कार जागृत होकर हो रहा स्मरण – यह सभी कुछ मानना ही पड़ता है। यह परंपरा भी आगे, और आगे होती रहती होने से जीवन आदि काल से है – यह बात सिद्ध होती ही है।
इस प्रकार से ही भूख लगे तब रोना, इस बारे में भी सोच सकते हैं। इसलिए इससे भी जीव की अनादि परंपरा सिद्ध हो जाती है।
इस विषय में अधिक बातें आगामी लेख में…
इस प्रकार कंदमूल के एक-एक कण में अनंत जीव हैं, यह बात साबित करने के लिए 5 मुद्दों में से प्रथम ‘विश्व अनादि अनंत है’ इस मुद्दे पर सोच कर दूसरे ‘जीव अनादि अनंत है’ इस मुद्दे पर हम विचार-विमर्श: करेंगे।
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