पाप विपाक नामक प्रथम अध्ययन पर देशना फरमाने के उपरान्त परमात्मा वीर प्रभु ने द्वितीय अध्ययन का प्रारंभ किया।
इस जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में वाणिज्यग्राम नामक एक नगर था। इस नगर के प्रजाजन अत्यंत समृद्ध व गगनचुम्बी महलों में निवास करते थे। सभी के घर में धन-धान्य के भण्डार थे। सभी लोग सुखी थे।
नगर के राजा का नाम मित्र था। वह बहुत शूरवीर और पराक्रमी था। उसकी अनेक रानियां थीं। राजा की पटरानी का नाम श्री था। श्री रानी रूपवती तो थी ही, शीलवती व गुणवती भी थी।
इसी नगर में विजयमित्र नाम के अति श्रीमंत सार्थवाह रहते थे। उनकी पत्नी का नाम था सुभद्रा। सुभद्रा सर्वांग सुन्दरी थी। सांसारिक भोगों का आनंद भोगते हुए सुभद्रा को रूप-रंग से परिपूर्ण एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र का नामकरण हुआ – उज्झितक।
एक दिन की बात है। विहार करते हुए हम (वर्धमान स्वामी) वाणिज्यग्राम के ईशान कोण में अवस्थित द्यूतिपलाश नामक उद्यान में पधारे। उद्यान के एक कोने में सुधर्मा यक्ष का यक्षायतन (मंदिर) था। यहाँ देवताओं ने समवसरण की रचना की। नगरजनों के साथ राजा भी देशना सुनने के लिए आए और देशना सुनकर सभी प्रसन्न हुए।
मध्याह्न भिक्षाचर्या का समय था। मेरी अनुज्ञा प्राप्त कर छट्ठ के पारणे छट्ठ की तपस्या करने वाले इन्द्रभूति गौतम वाणिज्यग्राम के घरों से भिक्षा लेने हेतु निकले। मार्ग में उन्हें विचित्र दृश्य देखने को मिला। राजमार्ग पर हाथी, घोड़े और सैनिकों की टुकड़ियां किसी भीषण युद्ध के लिए उद्यत दिखाई दे रही थीं।
गौतम कुछ और आगे बढ़े तो उन सैनिकों के बीच में एक विचित्र पुरुष दिखाई दिया। उसके नाक-कान कटे हुए थे। हाथ पीछे की ओर बंधे थे। उसके गले में लाल रंग के पुष्पों की माला थी। पूरे शरीर को तेल से स्निग्ध कर गेरू का चूर्ण डाला हुआ था।
वह व्यक्ति बहुत ही भयभीत था। उसकी आंखों में जीने की अदम्य लालसा दिखाई दे रही थी। राजा द्वारा नियुक्त बधिक निरंतर उसका अंग-भंग कर रहे थे और उसके शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े कर उसके सामने ही राजमार्ग पर फेंक रहे थे, जिन्हें खाने के लिए चील-कौवे आदि पक्षी झपट रहे थे।
यह पीड़ा जैसे अधूरी सी हो, सो सैकड़ो लोग उसे पत्थर और चाबुक से मार रहे थे।
ऐसी स्थिति में हजारों लोगों के जनसमूह से घिरे हुए उज्झितक को नगर के गली-मौहल्लों के बीच घुमाया जा रहा था। प्रत्येक चौक पर उद्घोषक द्वारा घोषणा की जा रही थी – ‘हे नगरजनों! उज्झितक की इस दुर्दशा के पीछे राजा या राजपुत्र कारणभूत नहीं हैं। यह स्वयं द्वारा कृत कर्मों के कारण दुःखी है।’
यह दृश्य देखकर गौतम का मन द्रवीभूत हो उठा। उनके मानस में विचार आया कि यह पुरुष कितनी नरकतुल्य वेदना का अनुभव कर रहा है।
वाणिज्यग्राम से भिक्षा ग्रहण कर गौतम लौटे तो उनका मन उद्विग्न हो रहा था। वे विचार कर रहे थे कि आखिर इस पुरुष ने कौन से ऐसे कर्म किए हैं, जो कि इतनी पीड़ा भोग रहा है ?
मुझे वंदना कर गौतम ने प्रश्न किया- ‘हे परमात्मा! आज जिस पुरुष को नरक की वेदना का अनुभव करते हुए देखा, उसने अपने पूर्वभव में ऐसे कौन से कर्म का बंध किया है, जो उसकी यह विषम दशा हो रही है ?’
गौतम के प्रश्न के समाधान हेतु मैंने विस्तार पूर्वक उज्झितक के पूर्व भव का वर्णन इस प्रकार किया-
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नामक नगर था। उसका राजा सुनंद था। सुनंद की महानता हिमालय पर्वत जैसी अद्भुत और अडिग थी।
इस नगर के मध्य भाग में सैकड़ों स्तम्भों से युक्त सुन्दर, मनोहर एवं चित्त को प्रसन्न कर देने वाली विशाल गौशाला थी। इस गौशाला में हजारों गाय, भैंस, बछड़े, बैल और सांड़ रहते थे। उनके भोजन के लिए घास-पानी की उत्तम व्यवस्था थी। इस गौशाला में उन्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं था। किसी उपद्रव की कोई आशंका नहीं थी। पशुओं के लिए सभी प्रकार की सुविधाएं वहां उपलब्ध थीं। इस गौशाला की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यहां पर प्रजाजनों के पशु तो आते ही थे, साथ ही ऐसे दूसरे पशु भी बहुतायत संख्या में थे, जिनका कोई मालिक या स्वामी नहीं होता था और वे इधर-उधर आवारा घूमते रहते थे।
इसी हस्तिनापुर नगर में भीम नामक एक महाक्रूर व्यक्ति रहता था। वह भयंकर मायावी, झूठ-प्रपंच व कूट-कपट नीति में निपुण था। अधर्म उसका स्वभाव था। दूसरों को प्रताड़ित कर उसमें आनंद का अनुभव करना उसका धर्म था।
भीम की पत्नी का नाम उत्पला था। एक समय उत्पला गर्भवती थी। गर्भ के तीन महीने पूर्ण हो चुके थे। ऐसे समय में उसे एक भयानक दोहद उत्पन्न हुआ- ‘वे स्त्रियां, वे माताएं धन्य हैं, सौभाग्यशाली हैं, उनका जीवन सफल है, जिन्हें गाय आदि विविध प्रकार के प्राणियों के विविध अंगों का सिका हुआ, तला हुआ, भुना हुआ अथवा विविध प्रकार के मसालों से आविष्ट पका हुआ मांस खाने और खिलाने को मिलता है। साथ में सुरा, मधु, आसव, कादम्बरी, द्राक्षा आदि पेय पदार्थ भी पीने-पिलाने को मिलते हैं। सचमुच वे नारियां धन्य हैं, जिन्हें ऐसे दोहद की पूर्ति होती है। मुझे भी दोहद हुआ है। काश! किसी प्रकार यह पूर्ण हो सके।’
उत्पला के मन में ऐसे भाव जगे तो, लेकिन वे मन के मन में ही रह गये। वह अपने पति से मन की बात न कह सकी। उसका दोहद पूर्ण नहीं हो रहा था, अतः वह क्षुधातुर व चिंतातुर रहने लगी। इससे उसका शरीर सूखने लगा। शरीर का मांस गल गया और कंकाल मात्र दिखने लगी। शरीर रोगी जैसा दिखाई देने लगा। चेहरे की चमक गायब हो गई। वह हमेशा दीन-हीन सी रहने लगी। देह फीकी और पीली पड़ गई। आंखों का तेज गायब हो गया। कमलिनी जैसा चेहरा मुरझा गया। सुगंध, सुन्दर वस्त्र, स्वर्णाभूषण, सुकोमल पुष्प से उसने बनाव-श्रृंगार करना बंद कर दिया। करणीय-अकरणीय का विवेक नष्ट हो गया। वह सम्पूर्णतः शून्य मनस्क हो गई।
उत्पल के शरीर में आने वाले ये परिवर्तन छुप न सके। कृषकाय पत्नी को देखकर भीम ने पूछा- ‘प्रिये! तुम्हारे शरीर में आने वाले इस बदलाव का क्या कारण है? तुम हमेशा शोकमग्न रहती हो, जबकि यह तो तुम्हारे उत्सव के दिन हैं। ऐसे समय में चिन्ता के बादल क्यों दिखाई दे रहे हैं? तुम्हारा दुःख देखकर मेरा हृदय टुकड़े-टुकड़े हो रहा है।’
यह सुनकर उत्पला ने कहा- ‘स्वामीनाथ! मेरे गर्भ को लगभग तीन महीने पूरे हो रहे हैं। मुझे इस प्रकार का दोहद आया है कि वे स्त्रियां कितनी धन्य हैं, जो भांति-भांति के मांसाहार और विविध प्रकार के मदिरापान से अपना मनोरथ पूरा करती हैं। मुझे इनमें से क्या मिलता है? मेरा दोहद कैसे पूरा होगा? प्राणेश्वर! मेरा यह मनोरथ पूरा नहीं हो रहा है, इसलिए मेरे चित्त की प्रसन्नता चली गई है। मेरा मन उत्साहहीन हो चुका है। मैं सतत आर्त्तध्यान में रहती हूं। हे प्रियतम! मुझे लगता है कि जब तक मेरा यह दोहद पूर्ण नहीं होगा, तब तक मेरे शरीर और उत्साह में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।’
यह सुनकर भीम ने अपनी पत्नी से कहा- ‘प्रिये! अब तुम चिन्तामुक्त हो जाओ। तुम्हें आर्त्तध्यान करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारा दोहद, तुम्हारा मनोरथ मैं अवश्य पूर्ण करूंगा।’
भीम के इस प्रकार के वचनों को सुनकर उत्पला आश्वस्त हुई।
दिन पूरा हुआ, संध्या ढली, रात्रि का आगमन हुआ। मध्यरात्रि में भीम अपने शयन-कक्ष से बाहर निकला। उसने शरीर पर मोटा कवच धारण किया और कंधे पर धनुष-बाण। हाथ में अन्य कई छोटे-बड़े शस्त्र लेकर घर से बाहर निकला और हस्तिनापुर नगर के मध्य भाग में स्थित गौशाला में जा पहुंचा।
कोई देख न सके, इस प्रकार भीम ने गौशाला के अंदर प्रवेश किया। पशुओं को भी पता न लगे, इतनी सफाई से उनके आंख, कान, पूंछ, थन, डील आदि काटने लगा। उसका हथियार इतना तीक्ष्ण था कि गाय आदि पशुओं के अंग एक ही बार में कट कर अलग हो जाते। इस प्रकार उसने मांस एकत्र किया और खून टपकते अंगों को लेकर गौशाला से बाहर निकल आया और छुपते हुए घर पहुंच गया। उसने प्रेम के साथ गाय आदि पशुओं के ये अंग पत्नी उत्पला को सौंप दिया। मेरी इच्छा पूर्ण हुई, यह जानकर उत्पला एकदम प्रसन्न हो गयी। रक्ताभ मांस को लेकर वह रसोई में गयी और अपनी इच्छानुसार उसे सेका, भूना, पकाया और मद्यपान के साथ भोजन किया।
इस प्रकार उत्पला का दोहद पूर्ण हुआ और वह सुखपूर्वक गर्भ का वहन करने लगी। गर्भ के नौ माह पूर्ण होने पर उत्पला ने एक पुत्र को जन्म दिया। जन्म लेने के साथ ही बालक ने भयंकर रूप से चीखना शुरू कर दिया। उसकी चीख से कान के पर्दे फटने लगे। यह चीख सुनकर गौशाला में रहने वाले गाय, बैल, बछड़े आदि पशु भयभीत हो गये और बंधन तोड़ कर इधर-उधर भागने लगे। यह देखकर माता-पिता ने विचार किया कि इसकी चीख से गायों को भी त्रास हुआ, अतः इसका नाम गोत्रास रखा जाये।
इस प्रकार पुत्र का नाम पड़ा – गोत्रास। गोत्रास का बचपन खेलकूद में बीत गया। वह युवा हुआ। एक दिन अचानक गोत्रास के पिता भीम का देहावसान हो गया। अचानक आने वाली इस आपत्ति से गोत्रास घबरा गया। परिवारजनों ने आकर सांत्वना दी। स्वजनों, ज्ञातिजनों, मित्रें आदि के साथ रोते-कलपते हृदय से उसने पिता का अग्नि संस्कार किया और अनेक मृतक कार्य (श्राद्ध कर्म) को पूर्ण किया।
हस्तिनापुर के नरेश सुनंद को जब समाचार मिला तो उन्होंने भी गोत्रास को आश्वासन दिया। इतना ही नहीं, राजा ने भीम जिस पद पर कार्यरत था, उसी पद पर गोत्रास की नियुक्ति कर दी। गोत्रास अपने पिता जैसा नहीं था। भीम को समझाने में थोड़ी मुश्किल होती थी, पर गोत्रास किसी भी स्थिति में कुछ समझने को तैयार नहीं था।
एक बार गोत्रास को अपने जन्म से पूर्व माता को आये दोहद की तरह गाय आदि पशुओं का मांस खाने की इच्छा हुई। वह अपने पिता की तरह सैनिक का वेश धारण कर मध्यरात्रि में गौमण्डप में पहुंच गया। वहां उसने गाय आदि अन्य पशुओं के आंख, कान, नाक, पूंछ, थन, डील आदि अवयवों को काट कर घर ले आया और भून कर, पका कर मदिरा के साथ उसका सेवन किया। इसके बाद तो यह उसका नित्यक्रम हो गया। वह प्रत्येक रात्रि इसी प्रकार मांसाहार और मद्यपान करने लगा। यह करते हुए उसने भयानक पापकर्म का बंध कर लिया।
कुल पांच सौ वर्ष की आयु पूर्ण कर अंत समय में वह अत्यंत भय, चिन्ता, दुःख से पीड़ित हो गया। कालान्तर में मृत्यु को प्राप्त कर दूसरी नरक में उत्कृष्ट आयु वाला नारकी बना। वहां उसने अनेक प्रकार से दारूण-दुःख सहन किए।
हे गौतम! इस वाणिज्यग्राम ने विजयमित्र नाम के एक सार्थवाह श्रेष्ठी रहते हैं। उनकी पत्नी का नाम सुभद्रा है। पूर्व कर्मों के उदय से सुभद्रा ने जितनी बार भी प्रसूति की, हर बार मृत संतान पैदा हुई। विजयमित्र और सुभद्रा इससे दुःखी, उदास व खिन्न रहने लगे।
इधर गोत्रास का जीव द्वितीय नरक में असंख्य काल तक परमाधामी देवों द्वारा प्रदत्त भयंकर पीड़ाओं को सहन करता रहा। कालान्तर में नरक का आयुष्य पूर्ण कर विजयमित्र की पत्नी सुभद्रा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। नौ माह का गर्भकाल पूर्ण होने पर उसका जन्म हुआ। हर बार बालक के जन्म लेने के बाद उसकी मृत्यु हो जाती थी। इस बार ऐसा नहीं हुआ। इस भय-भार से दबे हुए माता-पिता ने अनुभव किया कि यह बालक जीवित रहेगा। इससे उन्हें अपार प्रसन्नता हुई। बालक दीर्घायु बने, इस उद्देश्य से सुभद्रा ने उसे नगर के बाहर घूरे पर फेंक दिया और फिर उठा लाई। घर लाकर बालक का सुन्दर लालन-पालन आरंभ किया।
कुल मर्यादा के अनुसार माता-पिता ने पुत्र जन्म की बधाई, सूर्य-चन्द्र दर्शन, जागरण उत्सव आदि कार्यों में उदारता व प्रसन्नता पूर्वक व्यय किया। इस प्रकार ग्यारह दिन पूरे हुए। बारहवें दिन नाम-करण के अवसर पर माता-पिता ने बालक का नाम उज्झितक रखने का आग्रह किया, कारण कि जन्म के साथ ही उसे घूरे पर फेंक दिया था। सभी उपस्थित बंधु-बांधवों ने इसका समर्थन किया और हर्षपूर्वक स्वीकार किया।
पांच-पांच धाय माताओं की गोद में हंसते-खेलते-कूदते उज्झितक धीरे-धीरे बड़ा हो गया।
एक दिन विजयमित्र ने विचार किया कि उज्झितक अब काफी बड़ा और समझदार हो गया है। इसके भरोसे घर छोड़कर मैं व्यापार हेतु विदेश जा सकता हूं। ऐसा विचार कर विजयमित्र ने पत्नी और पुत्र से अनुमति ली।
विजयमित्र ने परदेश में बिक्रय हेतु घी, तेल, गुड़, शक्कर, नारियल, वस्त्र, हीरा, पन्ना, माणिक आदि अपने जहाज में भर लिया। एक अच्छे मुहूर्त में पत्नी और पुत्र की शुभकामनाओं के साथ लवणसमुद्र में प्रस्थान किया। सुनहरे सपने देखता हुआ विजय-मित्र अपने जहाज के साथ समुद्र में लगातार आगे बढ़ता जा रहा था।
भाग्य के खेल तो निराले ही होते हैं। विजयमित्र का भी भाग्य फूटा हुआ था। जहाज किनारे लगने से पूर्व ही एक अदृश्य समुद्री चट्टान से टकरा कर टूट गया। सभी सामान समुद्र में समा गया। साथ में चलने वाले यात्री और नाविक, सभी जहाज के साथ ही डूब गये। बचने का भरपूर प्रयत्न करते हुए विजयमित्र ने निरूपाय व असहाय अवस्था में जल-समाधि ली। वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।
थोड़े ही दिनों में विजयमित्र और उसके जहाज की दुर्घटना का समाचार वाणिज्यग्राम में फैल गया। सुभद्रा और उज्झितक की पीड़ा का कोई पार नहीं था। ‘मेरा पति करोड़ो रूपये मूल्य के द्रव्य व जहाज के साथ लवण समुद्र में डूब गया।’ इस विचार पर चिंतन करते हुए सुभद्रा शोक के महासागर में डूब गई। उसका मस्तिष्क शून्यवत् हो गया। जिस प्रकार चम्पक वृक्ष कुल्हाड़ी के एक वार से धराशायी हो जाता है, उसी प्रकार सुभद्रा धड़ाम से भूमि पर गिर पड़ी। सगे-संबंधी, मित्र व पड़ोसियों ने पानी के छींटे दिये, पंखा झलते रहे। एक घड़ी बाद उसकी चेतना लौटी। सभी ने उसे ढाढ़स बंधाया।
पर वाह रे इस स्वार्थमयी संसार की विचित्रता! नगर के विश्वासी अधिकारियों, श्रेष्ठियों और सार्थवाहों का जो कुछ द्रव्य-आभूषण आदि विजयमित्र ने ले रखा था, वे सब अपना सामान लेकर वाणिज्यग्राम से बाहर किसी अज्ञात स्थान पर चले गये।
अश्रुपूरित सुभद्रा ने अपने परिवार के साथ पति के लौकिक-मृतक कार्य किए। सभी कार्य पूरे होने के बाद नाती-रिश्तेदार अपने-अपने घर को चले गये। परंतु, सुभद्रा की आंखों से निकलता आंसुओं का महासागर रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। पति को याद करते हुए कितने ही दिन बीत गये, पर सुभद्रा सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। उसे परदेश गये पति की याद आती, करोड़ो रूपयों के द्रव्य याद आते, जहाज की जलसमाधि याद आती, तो कभी पति की अकाल-मृत्यु का स्मरण ताजा हो जाता। इस प्रकार रोते-तड़पते एक दिन वह अपने पति के मार्ग पर चली गई। सुभद्रा मृत्यु को प्राप्त हुई।
सुभद्रा की मृत्यु का समाचार पवन वेग से पूरे नगर में फैल गया। जब नगर-रक्षकों को यह समाचार मिला तो वे सुभद्रा के घर में घुस आये। सबसे पहले उन्होंने उज्झितक को घर से निकाल बाहर किया। उसके बाद उज्झितक के पिता विजयमित्र ने नगर के जिन लोगों से रूपया उधार लिया था, उन सभी लेनदारों को बुलाकर रूपयों के बदले घर सौंप दिया।
इस प्रकार उज्झितक पूरी तरह अनाथ हो गया। पहले पिता मृत्यु को प्राप्त हुए। पिता के साथ धन का एक बड़ा हिस्सा चला गया। फिर मां भी चली गई। मां के साथ जो कुछ भी बचा था घर आदि, वह सब भी चला गया। अब तो उसके लिए नीचे धरती, ऊपर आकाश जैसी स्थिति हो गई। इन परिस्थितियों में न तो स्वजनों ने उसका साथ दिया, न ही मित्रों ने।
अकेला, अनाथ, निराधार, असहाय बन चुका उज्झितक वाणिज्यग्राम के गलियों और चौराहों पर भटकने लगा। कभी आश्रयगृहों में तो कभी राजमार्गों पर। जिस प्रकार बिना छत के घर सुरक्षित नहीं होता, उसी प्रकार मां-बाप की अनुपस्थिति में बालक निरंकुश बन जाता है। उज्झितक को भी कोई रोकने-टोकने वाला नहीं था। वह पूरी तरह से स्वच्छंद हो गया। इस पर भी कड़वा करेला नीम पर चढ़ने सदृश गलत मित्रोंका साथ। इन सभी कारणों से वह चोरी, जुआ, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन जैसे कुव्यसनों में पूरी तरह लिप्त हो गया। चोरी और जुए से जो भी धन प्राप्त होता, उसे वह वेश्यागमन में लुटा देता। कारण, नगर की कामध्वजा नामक वेश्या के पीछे वह अनहद पागल बन चुका था।
कामध्वजा वाणिज्यग्राम नगर की अत्यंत रूप-वती गणिका थी। वह नारी की 72 कलाओं और गणिका के 64 गुणों से परिपूर्ण थी। उसके शरीर का प्रत्येक अवयव सुडौल और आकर्षक था। जब वह सोलह श्रृंगार कर अपने भवन में प्रवेश करती तो साक्षात कामदेव की पत्नी रति के आगमन का आभास होता। इसके रूप, सौंदर्य, नृत्य और गीत की बराबरी करने वाली पूरे वाणिज्यग्राम में दूसरी गणिका नहीं थी। उसके विलास भवन पर ऊंची ध्वजा लहराती रहती थी, जो हजारों काम-रसिकों को मौन आमंत्रण देती थी। उसके साथ एक रात्रि व्यतीत करने का मूल्य एक हजार स्वर्ण-मुद्रा थी।
नगर में गमनागमन के लिए कामध्वजा के पास सुन्दर लाक्षणिक अश्वों से युक्त कर्णरथ नामक रथ था। उसके संरक्षण में हजारों गणिकाएं थीं, जो कामध्वजा के निर्देश पर काम करती थी। नगर के राजा ने प्रसन्न होकर उसे छत्र, चंवर आदि भेंट किया था। संक्षेप में कहें तो, कामध्वजा राजमान्य गणिका थी।
उज्झितक इस कामध्वजा वेश्या के रूप के पीछे पागल बना हुआ दिन-रात उसके पैरों में ही पड़ रहता था। वह उसके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता था। वह कामध्वजा के साथ मनुष्य लोक में रहते हुए दिव्य सुखों के आनन्द का आस्वादन करता रहता। इसके लिए उज्झितक हजारों-लाखों स्वर्णमुद्रायें खर्च कर चुका था।
विजयमित्र इस वाणिज्यग्राम नगर का राजा था। राजा विजयमित्र बलवान और रूपवान श्रीमंत था। उसकी पत्नी का नाम था श्रीदेवी। श्रीदेवी अपने आप में रूप और सौंदर्य का अक्षय भंडार थी। राजा और रानी के बीच अनहद प्रेम था। इस प्रकार भोग-सुखों के आनन्द में समय बीत रहा था।
पूर्वकृत असाता वेदनीय कर्म का उदय हुआ। रानी श्रीदेवी योनिशूल नामक रोग से ग्रस्त हो गई। रोग से वह सतत पीड़ा में रहने लगी। संसार के किसी भी सुख में उसे रस नहीं रहा। पीड़ा की इस अवस्था में राजा विजयमित्र रानी के साथ भोगोपभोग नहीं कर सकता था। राजा को सांसारिक भोगों से वैराग्य भी नहीं था, अपितु भोग सुखों के लिए उसकी कामना तीव्रतर होती जा रही थी। रानी श्रीदेवी से उसे भोग सुख मिलना असंभव था। अतः राजा कामपूर्ति के लिए कामध्वजा गणिका के यहां जाने के लिए उद्यत हुआ।
गणिका भवन में प्रवेश करते समय राजा को समाचार मिला कि उज्झितक दिन-रात काम-ध्वजा के पीछे पागल बना पड़ा रहता है। राजा ने विचार किया कि यह व्यक्ति मेरे सुख में बाधक बनेगा। राजा के आदेश से अंगरक्षकों ने उज्झितक को अपमानित कर भवन से निकाल बाहर किया। उज्झितक के जाने पर राजा को शांति का अनुभव हुआ। वह कामध्वजा के साथ निश्चिंत होकर मनुष्य लोक का उत्कृष्ट भोग-सुख का उपभोग करने लगा।
इस प्रकार निकाले जाने पर उज्झितक शरीर से कामध्वजा से दूर हो गया, किन्तु मन तो सदैव कामध्वजा में ही रमण करता रहा। उसे दिन-रात कामध्वजा के ही विचार उद्वेलित करते रहते। उस कामध्वजा के बिना एक क्षण का जीवन उज्झितक को 100 वर्ष के बराबर लग रहा था। कामध्वजा के विरह में उसके मन की सुख-शान्ति खो गई। किसी पागल की भांति वह ‘कामध्वजा’ का नाम लेकर बड़बड़ाता रहता था। तात्पर्य यह कि वह मन, वचन, काया से कामध्वजा के प्रति समर्पित हो चुका था।
ऐसी स्थिति में उसके मन में एक ही विचार चलता रहा कि मैं क्या करूं, जिससे कि मैं पुनः काम-ध्वजा के साथ विषय-सुखों का भोग कर सकूं। वह गणिका भवन के आसपास चक्कर लगाता रहता, इस उम्मीद के साथ कि क्या पता, भवन में प्रवेश का कोई गुप्त मार्ग मिल जाए और वह अंदर प्रवेश कर सके।
आखिर एक दिन उसे कामध्वजा के गणिका भवन में प्रवेश का गुप्तद्वार मिल ही गया। उसने गुप्तद्वार से भवन में प्रवेश किया तो कामध्वजा ने मीठी मनुहार के साथ उसका स्वागत किया। उज्झितक फिर से कामध्वजा के साथ विषय-सुखों के भोग में लिप्त हो गया।
व्यक्ति जब काम-वासना में अंधा हो जाता है तो वह अपने दुःख, शत्रु और यहां तक कि मृत्यु को भी विस्मृत कर देता है। बड़े-बड़े ज्ञानी तपस्वी भी विषय-सुखों के दास बन जाते हैं, फिर मूढ़ मानव की क्या बिसात! कामध्वजा के यहां रहकर विषय-सुख भोगते हुए उज्झितक की भी यही स्थिति थी।
एक दिन की बात है। जिस समय उज्झितक कामध्वजा के साथ कामक्रीड़ा में व्यस्त था, ठीक उसी समय राजा विजयमित्र भी वहां आ पहुंचा। अपनी प्रिय गणिका के साथ उज्झि-तक को कामक्रीड़ा में रत देखकर विजयमित्र का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया। उसका चेहरा लाल हो उठा। भृकुटी चढ़ गई। क्रोध से तमतमाते हुए उसने अंगरक्षकों द्वारा उज्झितक को गणिका भवन के बाहर फिंकवा दिया। राजा के सैनिक इतने पर ही नहीं माने। उन्होंने डंडे और मुक्के से उसकी जम कर पिटाई कर दी। शरीर का एक-एक अवयव ढीला पड़ गया। शरीर की हड्डियां बजने लगीं। सैनिकों ने उसके दोनों हाथ पीछे बांध दिये और वधस्थल पर ले गये। यह वही अवसर था, जब तुमने उसे देखा।
गौतम! विषयांध उज्झितक की यही करुण-कथा है।
उज्झितक के कर्मों की यह कठोर परिणति देख कर गौतम आश्चर्य से भर गये।
गौतम ने पूछा : भगवंत! उज्झितक यहां से मर कर कहां जायेगा? कौन सी गति में उत्पन्न होगा ?
मैंने कहा : गौतम! शूली पर चढ़ा हुआ उज्झितक आज ही संध्याकाल में पच्चीस वर्ष की आयु पूर्ण कर मृत्यु को प्राप्त होगा। यहां से वह प्रथम रत्नप्रभा नरक में नारकी के रूप में उत्पन्न होगा। परमाधामी देवों द्वारा भयंकर पीड़ा सहन करते हुए नारक-आयुष्य पूर्ण कर जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत की तलहटी में वानर के रूप में जन्म लेगा। यौवन काल के आगमन के साथ ही उसमें पूर्वभव के कामभोग के संस्कार फिर से जागृत हो जायेंगे। वह युवा वानरियों के साथ कामक्रीड़ा में लिप्त होगा। जो बच्चे होंगे, उनको वह मार डालेगा। इस प्रकार निरंतर कुकर्म करते हुए अशुभ कर्म का बंध कर मृत्यु को प्राप्त होगा। वह पुनः जम्बूद्वीप के इन्द्रपुर नगर में एक गणिका के घर पुत्र रूप में जन्म लेगा। जन्म के साथ ही मां-बाप उसे नपुंसक बना देंगे। उसका नाम होगा- प्रियसेन।
युवा-वय को प्राप्त करने के साथ ही प्रियसेन के रूप में निखार आयेगा। वह रूप, यौवन व लावण्य से भरपूर होगा। अपनी बुद्धि और ज्ञान से तेजस्वी बनेगा। आगे जाकर इन्द्रपुर नगर के राजा, श्रेष्ठि, सेनापति, कौटुम्बिकों आदि को अपनी विद्या व अभिमंत्रित चूर्ण के माध्यम से अदृश्यीकरण, वशीकरण, प्रसन्नीकरण से पराधीन कर अपने वश में कर लेगा और वह मनुष्य लोक के सभी भौतिक सुखों का उपभोग करते हुए जीवन व्यतीत करेगा।
इस प्रकार पूरे जीवन भर दुष्कर्म करते हुए, जीवन को पापमय बनाते हुए भारी कर्म बांधता हुआ 121 वर्ष की आयु पूर्ण कर प्रियसेन का जीव प्रथम नरक में उत्पन्न होगा। यहां से निकल कर वह सरीसृप योनि के सर्प आदि के रूप में अनेक बार जन्म लेगा। तदुपरांत वह मृगापुत्र की तरह सातवीं नरक में जायेगा। वहां से निकल कर वह मत्स्य आदि जलचर योनि में लाखों बार जन्म लेगा। फिर उरसरिसर्प, भुजपरिसर्प, खेचर आदि में तथा विकलेंद्रिय में भी लाखों बार जन्म लेगा। वहां से निकल कर प्रियसेन का जीव एकेन्द्रिय के पांचो प्रकार में कई लाख बार जन्म-मरण को प्राप्त होगा।
अनेकानेक नरक एवं तिर्यंचगति में बार-बार भव-भ्रमण करने के उपरांत प्रियसेन का जीव जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की चम्पानगरी में पाडे के रूप में जन्म लेगा। उस नगर के मित्रों का एक मण्डल उस पाडे की हत्या कर देगा। इससे मृत्यु को प्राप्त कर वह उसी नगर में श्रेष्ठिपुत्र के रूप में उत्पन्न होगा। बाल्यावस्था को पार कर युवावस्था में आते हुए विशिष्ट संयमी स्थविर के पास सम्यक्त्व प्राप्त कर चारित्र जीवन अंगीकार करेगा। वहां से काल कर प्रथम देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होगा। देवायुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में धनाढ्य कुल में जन्म लेकर चारित्र धर्म का पालन करेगा और केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में जायेगा।
अमावस्या की घनी काली रात में प्रभु महावीर द्वारा वर्णित उज्झितक का पाप-विपाक श्रवण करते हुए समस्त सभा पाप-विपाक से भयभीत हुई।
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