99.50% = Fail
शायद हमारी बहुत गाथाएँ कंठस्थ ना हो सके, अट्ठाई हो ही ना सके, बहुत दान ना दे सकें, फिर भी हमारा मोक्ष हो सकता है। लेकिन संघ के प्रति के अहोभाव के बारे में हमारे यदि 99.50 मार्क्स भी आ जाएँ, फिर भी हमारा मोक्ष नहीं होगा।
संकल्प कीजिए कि संघ के एक भी सदस्य की यदि मुझसे निंदा हो जाये, या उनके प्रति खराब वाणी या बर्ताव हो जाये तो दूसरे दिन आयम्बिल करेंगे। ऐसे एक आयम्बिल से शायद लंबी ओली करने से भी ज्यादा लाभ मिलेगा। अगर यह सम्भव न हो तो दूसरे दिन दूध, घी, सब्जी आदि किसी भी वस्तु का त्याग कर सकते हैं।
हमारी सारी जद्दोजहद उन्नत बनने की होती है। लेकिन हमारी असली जरूरत तो नम्र बनने की है। उन्नत बनने का सही रास्ता भी नम्र बनना ही होता है।
त्रिपदी बाद में आती है, द्वादशांगी उसके भी पीछे आती है। सर्वप्रथम आता है “नमो तित्थस्स।“ भगवान कहते हैं, ‘संघ के प्रति नम्रभाव रखना ही शुरुआत है।‘ यह नहीं हुआ तो अभी शुरुआत भी नहीं हुई है। इसके बिना सारी साधना भ्रान्ति बन जाती है। अहम् वृद्धि करने में बड़ा जोखिम है।
वस्तुपाल उपाश्रय से निकल रहे थे। आर्थिक दृष्टि से साधारण स्थिति वाला एक श्रावक प्रभावना कर रहा थे। प्रभावना में पतासा दिया जा रहा था। लोग जा रहे थे। वस्तुपाल को लोग सम्मान से रास्ता दे रहे थे। वस्तुपाल को देखकर वह श्रावक लज्जित हो गया, क्या वे मेरे सामने हाथ फैलायेंगे ? क्या मैं उनको पतासा दूंगा। कहाँ वे ? कहाँ मैं ? आधी क्षण में ही श्रावक ने निर्णय लिया और दरवाजे के पीछे छिप गया।
वस्तुपाल दरवाजे से सिर्फ चार कदम दूर थे, तीन… दो… एक… श्रावक को लगा कि उन्हें पता नहीं चला, और वे आगे निकल जायेंगे। पर वस्तुपाल को सब पता था। वे दरवाजे के करीब गये, दरवाजे के पीछे छिपे हुए श्रावक के पास गये, हाथ फैलाया और कहा, “मेरी प्रभावना ?”
पूरे संघ की आंखों से आँसू छलक उठे। वह श्रावण गद्गद् हो गया, उसकी आँखों से जैसे सावन-भादों बरसने लगे।
? यह वस्तुपाल का फैला हुआ हाथ नहीं था, बल्कि यह साधार्मिक वात्सल्य था।
? यह वस्तुपाल का फैला हुआ हाथ नहीं था, यह संघ बहुमान था।
? यह वस्तुपाल का फैला हुआ हाथ नहीं था, यह ‘संघ का छोटे से छोटा आदमी भी मुझसे महान है’ ऐसी संवेदना थी।
? यह वस्तुपाल का फैला हुआ हाथ नहीं था, यह उनके रोम-रोम में बसी शासन परिणति थी।
? यह वस्तुपाल का फैला हुआ हाथ नहीं था, यह स्वामित्वाभिमान की शमशान यात्रा थी।
? यह वस्तुपाल का फैला हुआ हाथ नहीं था, यह एक उपबृंहणा का उत्सव था।
? यह वस्तुपाल का फैला हुआ हाथ नहीं था, यह एक कायिक अनुमोदना थी।
? यह वस्तुपाल का फैला हुआ हाथ नहीं था, यह वात्सल्य की बारिश थी।
? यह वस्तुपाल का फैला हुआ हाथ नहीं था, यह संघ का सत्कार था।
? यह वस्तुपाल का फैला हुआ हाथ नहीं था, यह जीवंत जैनत्व था।
महामंत्री वस्तुपाल एक पतासे के लिए हाथ आगे करे, और सामने से याचना करे यह बात दुन्यवी गणित से समझ में आने वाली नहीं है। और देखा जाए तो लोकोत्तर गणित के भी समझ से बाहर है। लोकोत्तर गणित में भी पतासे की याचना का तो कोई स्थान ही नहीं है। बात संघ के सदस्य की थी।
हकीकत में वस्तुपाल की याचना पतासे की नहीं थी, साधर्मिक के विनय की थी।
हकीकत में वस्तुपाल की याचना पतासे की नहीं थी, पूर्ण नम्रता की थी।
हकीकत में वस्तुपाल की याचना पतासे की नहीं थी, परमपद की थी, जो इसके बिना मिलना संभव ही नहीं था।
वस्तुपाल ने अपने जीवन में सवा लाख प्रतिमाएँ भरवाई थीं। शायद उन प्रतिमाओं के निर्माण और प्रतिष्ठा की घड़ी में जो पुण्य उपार्जित नहीं किया होगा, वह इस पतासे की याचना में उपार्जित किया होगा, क्योंकि यह चीज अधिक कठिन थी।
वस्तुपाल ने अपने जीवन में करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया था। पर शायद उससे जो पुण्य नहीं मिला होगा, वह इस पतासे से मिला होगा। क्योंकि यह कार्य उससे दुष्कर कार्य था।
दूसरे सुकृत फिर भी अहम् के साथ करना संभव है, किन्तु यह सुकृत बिना अहम् छोड़े करना संभव ही नहीं है।
? पतासे की याचना का अर्थ है, दातृत्व की अनुमोदना।
? पतासे की याचना का अर्थ है, साधर्मिक के प्रति सौहार्द।
? पतासे की याचना का अर्थ है, ‘आपकी संघ भक्ति को धन्य है।’
? पतासे की याचना का अर्थ है, मुझे भी आपको देखे बिना नहीं चले गए, आपकी ऐसी भक्ति है।
? पतासे की याचना का अर्थ है, संघ का प्रसाद देवों को भी दुर्लभ है।
? पतासे की याचना का अर्थ है, यह कोई दो-चार आने की तुच्छ चीज नहीं, बल्कि यह तो विश्व की तमाम संपत्ति से भी नापा न जा सके ऐसी अमूल्य वस्तु है। क्योंकि इसमें संघ भक्ति के भाव मिले हुए हैं।
? पतासे की अवगणना, ‘जैन’ की अवगणना है।
? पतासे की अवगणना, जैनत्व की अवगणना है।
? पतासे की अवगणना, संघ की अवगणना है।
? पतासे की अवगणना, तीर्थंकर की अवगणना है।
यदि एक पतासा लिये बिना बड़प्पन के मद से निकल जाने से इतना पाप लगता है, तो संघ के सदस्य के साथ रफ बिहेव करने से कितना पाप लगता होगा ? उनके सामने विरोध करने से कितना पाप लगता होगा? उनके साथ ऐसी वैसी भाषा में बात करने से कितना पाप लगता होगा ?
उपाश्रय के अंदर और बाहर लोग चित्रवत् खड़े थे। सभी स्तब्ध होकर यह दृश्य देख रहे थे। दुन्यवी दृष्टि से एक बड़ा आदमी एक छोटे आदमी के पास हाथ फैला रहा था। लोकोत्तर दृष्टि से परस्पर संघ पूजा चल रही थी।
!! वाह उस्ताद वाह !!
मेरा यह सपना है। परस्पर संघपूजा – एक व्यक्ति भक्ति भावना में तबला बजाए, और दूसरा व्यक्ति उसकी तारीफ करे, ‘वाह उस्ताद वाह!’ सभी घटनाओं में ऐसा क्यों नहीं होता? हमने जब से दूसरों को बिरदाने के बदले कोसने का कार्य शुरू किया है, तब से हमारे पतन की शुरुआत हुई है।
बिरदाओ ! अहम् छोड़कर बिरदाओ। दूसरों के छोटे से सत्कार्य की भी प्रशंसा करो। हम सत्कार्य कर सकते हैं, तप से शरीर कस सकते हैं, दान में जेब को घिस सकते हैं, पर जब तक हम अपना अहम् नहीं घिस सकते, तक तक हम दूसरों को ह्रदय से नहीं सराह सकते। किसी का सत्कार्य हमें हमारे अहम् पर प्रहार जैसा लगता है। अनादि का हमारा मत्सर रस हमारे ही नजदीक के जीवों पर अभिव्यक्त होता है।
परिणाम से मांसाहारियों के साथ हमें जितनी तकलीफ नहीं है उससे ज्यादा तकलीफ आयम्बिल करने वालों के साथ है। होटल और लारी वालों से हमें जितनी तकलीफ नहीं होती, उससे ज्यादा तकलीफ हमें वर्षीतप करने वालों के साथ है। मस्जिद वालों के साथ हमें जितनी तकलीफ नहीं है, उससे ज्यादा तकलीफ हमें देरासर जाने वालों के साथ है। डान्स-बार के साथ हमें जितनी तकलीफ नहीं है, उससे ज्यादा तकलीफ उपधान वालों के साथ है।
इस झगड़े-फसाद में हम उस व्यक्ति के साथ-साथ न जाने कितनी आराधनाओं की आशातना कर बैठते हैं, क्या उसका हमें कभी आभास होता है? इसमें हम साधर्मिक की, धर्म की, संघ की शत्रुता अपने नाम लिख देते हैं, और परिणाम स्वरूप हमारी आत्मा कितने गहरे गड्ढे में गिर जाती है, क्या हमने कभी भी इसकी चिन्ता की है ?
इतनी आदत डालनी है। ‘वाह उस्ताद वाह!’ एक छोटा-सा भी धर्म दिखे तो ह्रदय से उसकी अनुमोदना किये बिना नहीं रहना चाहिये।
याद आती है अमृतवेल की सज्जाय:
थोड़लो पण गुण पर तणो, सांभळी हर्ष मन आण रे,
दोष लव पण निज देखता, निर्गुणी निज-आत्मा जाण रे।
बस इन दो पंक्तियों की परिणति मिल जाए तो पूरा माहौल बदल जायेगा। और हमारी आत्मा का भविष्य भी बदल जायेगा।
मोक्ष चाहिए ?
वस्तुपाल का हाथ आगे बढ़ा हुआ था। एक ओर उस श्रावक की आंखों से अश्रुधारा बह रही थी, तो दूसरी ओर पूरा संघ सजल नेत्रों से देख रहा था। तीसरी ओर मानो दिशाओं का कंठ भी भर गया था।
हम बुद्धि से, तर्क से, दलील से जैसे-तैसे करके तो बहुत जी लिये, लेकिन हमें इन सबसे क्या हासिल हुआ ? सिवाय इसके कि हमने हमारा दिमाग खराब किया। स्व-पर के कषायों में, राग-द्वेष में, कर्म बंध में निमित्त बने। शासन की कम-ज्यादा अपभ्राजना करके हमने घघ-संसार बढ़ाया। अनेकों को धर्ममार्ग में आने से हमने रोका, और जो धर्ममार्ग में पहला कदम रखने का प्रयास कर रहे थे, उनको पीछे धकेल दिया। अहम् के इस एक ही दोष ने हमें अनंत बार पीछे धकेला, और हमें बार-बार अनंत संसार में भटकाया।
इस तरह मार खा-खा कर दुःखी होने से तो अच्छा होगा कि भगवान की दृष्टि ही क्यों ना अपनायें ? अहम् क्यूँ ना निकाल दें ? हम भी भावनामय हो जायें और दूसरे भी इस भावना में भावित हो जायें। निर्मल ह्रदय, प्रसन्न मन, कर्मों का चूर-चूर होना, उत्तरोत्तर ज्यादा सुख की प्राप्ति और फिर मोक्ष। why not ? हमें सुख के साथ क्या तकलीफ है ?
हमारी स्टाइल वस्तुपाल से उल्टी है। ‘जाओ जाओ तुम कौन होते हो मुझे पतासा देने वाले? मैं तुम्हारे आगे हाथ फैलाऊँ ? तुम मुझे पतासा दोगे ? मैं भिखारी हूँ क्या ? नहीं भाई, नहीं ! तुम्हारा पतासा तुम्हें मुबारक। और चाहिये तो कहना, मैं थैला भर के भिजवा दूँगा। तुम्हारे पतासे के साथ तुमको भी खरीद लूं, उतना पैसा मेरे पास है। मुझे तुम्हारे पतासे की कोई जरूरत नहीं है।
पतासा is just an example.
हमें अपने आप से पूछना चाहिये,
क्या हम कभी वस्तुपाल बने? हमें कभी संघ संवेदना जगी ?
उस श्रावक ने स्पंदन से अभिभूत होकर वस्तुपाल के हाथ में पतासा रखा। वस्तुपाल ने पतासे को सिर पर चढ़ाया, श्रावक को प्रणाम किया और कृतज्ञता से भरी चाल से विदा हुआ। संघ सजल नेत्रों से देख रहा था, और उस संवेदना की ऊर्जा का स्पर्श ले रहा था।
सच में, बहुत मजे है, स्वामित्वभिमान को झाड़ लो, फायदे में रहोगे।
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