top of page
Writer's picture Priyam

एक स्वप्न देखते है….

Updated: Apr 12




Relation

यह मेरा बेटा है, इस मुद्दे पर हम सब कुछ गौण करने को तैयार हैं। वो नवकार गिनता है, इस मुद्दे पर हम कुछ भी गौण करने को तैयार नहीं हैं। इसका अर्थ यह है कि बेटे के साथ हमारा पूरा रिलेशन है, पर नवकार के साथ हमारा बिलकुल रिलेशन नहीं है। तो हम जैन कैसे? बेटे के लाख दोष हम माफ करने को तैयार हैं, जैन के एक भी दोष मिल जाये तो हम टूट पड़ने को तैयार हो जाते हैं। तो इसका अर्थ यही है कि, हमें हकीकत में दोषों के साथ कोई लेना-देना है ही नहीं। हम में सांसारिक भावना पूरी है, धार्मिक भावना बिलकुल नहीं है – सच्चा हार्द यही है।

अयोध्यावासी जंगल में दौड़े चले गये, राम को वापस लाने के लिए मरणांत प्रयत्न किए। राम नहीं माने तो कैकेयी पर आक्रोश करने लगे। 

राम ने कहा, “आपको भरत कैसा लगता है?”

“श्रेष्ठ, अत्यंत सज्जन, सबसे निस्पृह, पूरी अयोध्या में वो ही तो सबसे ज्यादा रोया है।”

राम ने कहाँ, “जिसका फल इतना अच्छा हो, वह लता (वेल) कैसे खराब हो सकती है?”

आज हमें एक प्रश्न लेकर जाना है। जिनके पास नवकार है, वह खराब कैसे हो सकता है? जिसके घर संयमी भगवंतो के पगले होते हैं, वह बुरा कैसे हो सकता है? जिसके घर में भगवान विराजमान हैं, वह खराब कैसे हो सकता है? जो महावीरस्वामी के समक्ष सिर झुकाता हो वह खराब कैसे हो सकता है? यदि भरत के संबंध से कैकेयी महान हो सकती है तो देव-गुरु-धर्म के संबंध से जैन महान क्यों नहीं हो सकता?

बेटा बिलकुल नहीं मानता हो, हमारी परवाह ना करता हो, अपमान करता हो, नीचा दिखाता हो, बुढ़ापे में भी ख्याल ना रखता हो, तो भी हम किसी के आगे उसकी निंदा नहीं करते। उसके सामने होने का हमें विचार तक नहीं आता है। भगवान को नमन करने वाले, भगवान को मानने वाले, भगवान के उपदेश के मार्ग पर चलने वाले और भगवान के नाम पर खुद की बचत के पैसे से सुकृत करने वाले हमारे (?) कोई कसूरवार (?) लगे और हम उनकी भरपेट निंदा कर सकते है। तो इसका सीधा मतलब उतना ही है कि, हम भगवान में मानते ही नहीं है।

भगवान को हमारा सच्चा प्रणाम-वंदन तब कहलायेगा कि हर एक जैन को हम भाव से हाथ जोड़ सकेंगे। हमने सच्चा नवकार गिना है ऐसा तभी भी कहलायेगा, जब सपने में भी हमसे नवकार गिनने वालों की अवहेलना नहीं होगी।

पेट का पोस्टमोर्टम 

हमारी अदम्य इच्छा ‘किसी’ का मैल दूर करने की होती है। हमारी वास्तविक आवश्यकता तो हमारा पेट साफ करने की होती है। बातें हम दूसरों के दोषों-भूलो की करते हैं, पर वे ही दोष-भूल हमारे बेटे की हो तो कोई बात नहीं है। उसका अर्थ यही है कि हमारा पेट साफ नहीं है।

व्यक्ति द्वेष व्यक्ति के धर्म के गुणों के, साधना के, और सत्कार्यों के द्वेष में परिणाम प्राप्त करता है। तब अनंतकाल में भी फिर से यह धर्म-गुण-साधना और सत्कार्य मिलने दुर्लभ बन जाते है।

हम मानते हैं कि हमें धर्म आदि का द्वेष नहीं है, हमें व्यक्ति का भी द्वेष नहीं है, हमें केवल उसके दोषों के प्रति द्वेष है। पर यह हमारा भ्रम होता है। क्योंकि यह सबको अलग कर पाना संभव ही नहीं है। छाती पर हाथ रखकर हम अपने आपसे पूछेंगे कि हमें जिसका द्वेष है, उसका धर्म हमें अच्छा लगता है? चार लोगों के बीच हम उसके धर्म की अनुमोदना कर पाते है? सच्चे हृदय से उस पर प्रमोदभाव जगता है? ऐसा कुछ भी नहीं होता। हमें तो उनकी निंदा ही सूझती है। तो फिर हमें व्यक्तिद्वेष नहीं है, ऐसा कैसे कह सकते है? 

हमारा आग्रह यह है कि ‘जैन’ में दोष नहीं होने चाहिए। (मैं अपवाद, मुझमें होगा तो चलेगा) यानी की जैन – केवलज्ञानी होना चाहिए, नहीं तो में तो उनका दोष देखूँगा और उनको बदनाम करूँगा। जरूरत पड़ी तो लडूँगा भी। वो अपने घर पर प्रतिक्रमण करेगा तो मैं पुलिस बुलाऊँगा, वो पूजन करेगा तो मैं उसमें से भी मैं कुछ ढूंढ़ लूंगा। वो ट्रस्टी होगा तो मैं संघ के कार्यों में रोड़े डालूंगा। वो धर्मी होगा तो मैं उसके धर्मकार्यो की निंदा करूँगा, उसमें दोष होगा तो, यह तो कैसे चलेगा?

हम हमारे इस सत्याग्रह में दो बातें भूल जाते है।

1) हमारे में भी बेशुमार दोष है।

2) भगवान ने जब संघ की स्थापना की तब उस संघ में एक भी केवलज्ञानी नहीं था। संघ का एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था कि जिसमें एक भी दोष ना हो। फिर भी भगवान उस संघ को ‘नमो तित्थस्स’ कहकर नमस्कार करते है।

क्या हम भगवान से भी अधिक ऊँचे है? या फिर ज्यादा समझदार है? यहाँ से शुरूआत कीजिये। ‘जैन’ मात्र को हाथ जोड़ो, वंदन करो। ‘शुरूआत’ यहाँ से ही होती है।

संघपूजा

हम संघपूजन का लाभ लेते रहते है। पूजन के लिए आवश्यक क्या है? पैसा ही? हमारी व्याख्या यही है, ‘सब कुछ पैसे से ही होता है।’ ज्ञानी कहते है कि संघपूजन के लिए आवश्यक एक ही वस्तु है। संघ के प्रति पूज्यबुद्धि। पूज्यबुद्धि नैश्चयिक पूजन होता है। यह हो, फिर यथाशक्ति व्यवहार तो होने ही वाला है। जिसकी पहेरामणी (भेंट) के साथ संघभोजन (स्वामीवात्सल्य) की शक्ति होगी, वो व्यक्ति वही करेगा। जिसकी मात्र पतासे की प्रभावना की शक्ति है, वो वही करेगा। जिनकी संघ के सिर्फ पाँच सदस्यों को प्रभावना देने की शक्ति है वो वही करेगा। जिसकी इतनी भी शक्ति नहीं है, वो भी संघपूजन करे यह सम्भव है, क्योंकि वास्तविक पूजन तो पूज्यबुद्धि ही है।

हमारे द्वारा संघ स्वामीवात्सल्य हो जाये, पर पूज्यबुद्धि ना हो, तो संघपूजा बाकी रह जाती है।

संघ, महावीरस्वामी का परंपरा देह है। संघ को देखकर आँखों में आनंद के आँसू आ जाये यह महावीर प्रभु का अभिषेक है। संघ के एक-एक सदस्य को देखते ही सर झुक जाये, यह महावीर भगवान का चैत्यवंदन है। संघ का एक भी व्यक्ति तकलीफ में हो, यह हमारे लिए असह्य बन जाए, यह प्रभु महावीर के साथ अपनेपन की भावना है। संघ का एक भी सदस्य आर्थिक विपत्ति से ऊपर आ जाये, और हमें आनंद हो, यह महावीरस्वामी की स्तुति है। ‘संघ’ नाम सुनते ही रोमांच हो जाए, यह महावीर भगवान की पूजा है।

संघ की खातिर आधी रात को भी हम खड़े रहने हेतु तैयार होते हैं, यह महावीर प्रभु की आंगी है। संघ की खातिर जीवनसमर्पण करने की भावना साकार बन जाये, यह प्रभु महावीर की शाश्वती महापूजा है।

एक स्वप्न देखते हैं, देरासर के बाहर पार्क की हुई गाड़ियों को हम साफ कर रहे हैं। 

एक स्वप्न देखते हैं, प्रभु के दर्शनार्थी के जूते-चप्पल को हम पॉलिश कर रहे हैं। 

एक सपना देखते हैं, हम देरासर के दरवाजे के बाहर रोड पर खड़े है और छोटा-बड़ा जो कोई भी आये उनको हाथ जोड़कर सर झुकाकर प्रणाम कर रहे हैं। 

एक सपना देखते हैं, जैसे हम अपने लाड़ले बेटे को खाना खिलाते हैं, वैसे प्यार-दुलार से संघ के किसी प्रसंग में हम संघ के सदस्यों को परोस रहे हैं। 

आज इतना सपना भी यदि देख सकते हैं तो यह बड़ी सिद्धि है। आज इतना स्वप्न भी नहीं देख सकते तो आने वाला कल शून्य है।

Comentarios


Languages:
Latest Posts
Categories
bottom of page