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प्रश्न :
महाराज साहब! कंदमूल अभक्ष्य क्यों है?
उत्तर :
जमीनकंद के भक्षण से आत्मा को दुर्गतिगमन आदि नुकसान होता है। ऐसा भगवान ने अपने केवलज्ञान में देखा है, और इसलिए भगवान ने उसका निषेध किया है। इसलिए कंदमूल अभक्ष्य है।
हमारी किसी भी चीज के स्वीकार या त्याग में मुख्य हेतु प्रभु का वचन ही होता है। हमारे जो भी कर्तव्य हैं वे हमारे कर्तव्य इसलिए हैं क्योंकि प्रभु ने हमें ऐसा करने को कहा है। इसी प्रकार हमारे लिए जो त्याज्य हैं, वे त्याज्य इसलिए हैं क्योंकि प्रभु ने उसका त्याग करने को कहा है।
रोगी को फलाना दवाई फलाना तरीके से लेनी है, क्यों? क्योंकि डॉक्टर ने वह दवा उसी तरह से लेने को कहा है। रोगी को कुछ चीजें नहीं खानी होती, छोड़ देनी है, क्यों? क्योंकि डॉक्टर ने मना किया है। बस इसी तरह से उपरोक्त बात समझनी है।
लेकिन हाँ, रोगी की यदि कारण समझने की भूमिका हो, तो डॉक्टर उसे यह समझा सकता है कि यह दवाई इस प्रकार से क्यों लेनी है? यह चीज क्यों नहीं खानी है, इत्यादि। इसी प्रकार से हमारी योग्य भूमिका हो, तो ही प्रभु के किए गए विधान या निषेध में उसके कारण को जानने की इच्छा कर सकते हैं। अन्यथा हमें आज्ञाग्राह्य बन-कर ‘प्रभु की आज्ञा है, इसीलिए मेरे लिए वह ग्राह्य है’ ऐसा स्वीकार करना चाहिए, यही हमारे हित में है।
हाँ! यदि हमारे कारण को समझने की भूमिका हो, तो उस कारण को जानने की जिज्ञासा करनी ही चाहिए, और योग्य गीतार्थ गुरु भगवंत से उस जिज्ञासा का समाधान भी प्राप्त करना चाहिए। इस प्रकार कारण पूर्वक उन चीजों का ग्रहण निश्चित होने से वे चीजें हमारे लिए ‘हेतुग्राह्य’ बन जाती हैं। कारणपूर्वक स्वीकार करने से हमारी श्रद्धा अधिक बढ़ जाती है, इसलिए यदि ऐसी भूमिका हो तो उसका कारण अवश्य जानना चाहिए।
प्रश्न :
यह भूमिका क्या होती है?
उत्तर :
मूल में तो हम सभी की आत्मा में केवलज्ञान रूपी सूर्य विद्यमान है। पर ज्ञानावरणीय कर्म रूपी गाढ़ बादलों से इस सूर्य का प्रकाश (=बोध, ज्ञान) आवृत हो गया है। बादल कुछ कमजोर हो जाये, छंट जाए तो सूर्य प्रकाश थोड़ा-थोड़ा फैल जाता है। उसी प्रकार से ज्ञानावरण कर्म थोड़ा भी कम-जोर पड़ जाए तो, उतने प्रमाण में जीव को बोधि होने की भूमिका प्राप्त हो जाती है। ज्ञानावरण कर्म के ऐसे कमजोर होने को शास्त्र की भाषा में ज्ञाना-वरणीय कर्म का क्षयोपशम कहते हैं। कारण को समझने की भूमिका के लिए ऐसा क्षयोपशम होना जरूरी होता है। और साथ में प्रज्ञापनीयता भी चाहिए होती है।
मोहनीय कर्म कभी-कभी किसी चीज की ऐसी गाढ़ पकड़ बना लेता है जिससे ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने पर भी, और वास्तविक हकीकत को अनेक दृष्टांत, दलील, तर्क आदि से व्यवस्थित समझाए जाने पर भी उस पर विचार करने की तैयारी ही नहीं होती। और विचार ही नहीं करने के कारण सत्य तत्त्व को समझ और स्वी-कार नहीं कर पाते। अन्य श्रोता, जिसके ज्ञाना-वरणीय कर्म का खुद के जैसा ही क्षयोपशम है, वह निःशंकता रूप से सब कुछ समझ जाता है, किन्तु वह खुद मोहनीय की गाढ़ पकड़ के कारण उन बातों पर विचार ही नहीं कर सकता, इस कारण से सच्चे तत्त्व को समझ कर स्वीकार नहीं सकता। ऐसी गाढ़ पकड़ को अप्रज्ञापनीयता कहते हैं।
ऐसी अप्रज्ञापनीयता का अभाव होना, प्रज्ञापनी-यता है। इस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म का उपरोक्त वर्णित क्षयोपशम और इस प्रज्ञापनियता का होना, यही भूमिका है।
मूल में तो हम सभी की आत्मा में केवलज्ञान रूपी सूर्य विद्यमान है।
प्रभु ने कंदमूल को अभक्ष्य कहा है, उसके अनेक कारणों में से एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि, उसमें विपुल जीव हिंसा होती है। यद्यपि मानव को जीवन निर्वाह के लिए आहार-पानी चाहिए ही होता है। और इस आहार-पानी के रूप में वह जो ग्रहण करता है वह सब जीवों का कलेवर रूप होने के कारण जीव हिंसा होती ही है। फिर भी लोकी, खीरा इत्यादि सब्जियों में अपेक्षा से बहुत ही अल्प जीवों की हिंसा होती है। तुलनात्मक रूप से आलू-प्याज आदि कंदमूल में अनंतानंत जीवों की हिंसा होती है। ये सभी जीव ही हैं, और सबको जीना ही अच्छा लगता है, मरना तो किसी को भी पसंद नहीं होता है।
जिस तरह से पैसे खर्च किए बिना भोजन नहीं मिलता, पर फिर भी यदि अल्प खर्च से भी समुचित भोजन मिल जाता हो, तो कोई सुज्ञ व्यक्ति उसके लिए उससे अनेक गुना ज्यादा खर्च नहीं करता है। इसी तरह से हिंसा के लिए भी सुज्ञजनों को अवश्य सोचना ही चाहिए। यदि अल्प हिंसा से आवश्यक भोजन मिल जाता हो, तो सुज्ञजन अनंतानंत जीव हिंसा करेगा ही नहीं। इसलिए जिसके एक-एक कण में अनंत जीव हैं, उन अनंत जीवों की हिंसा से बचने के लिए कंद-मूल त्याग अवश्य करना चाहिए।
प्रश्न :
कंदमूल के एक-एक कण में अनंत जीव होते हैं, इस बात का क्या प्रमाण है?
उत्तर :
हमें जो दिखाई देता है वह जीवों का शरीर हैं, जीव को हम देख ही नहीं सकते हैं। चाहे कितने भी पावरफुल माइक्रोस्कोप से देखो पर फिर भी जीव दिखाई नहीं देते। जीव हमारी पांचों में से किसी एक भी इंद्रिय का विषय नहीं है कि जिसके सहारे हम उनकी संख्या को जान सकें। इसलिए हमारे लिए प्रभु वचन ही इसके होने का प्रमाण है।
प्रश्न :
प्रभु वचन पर हमें श्रद्धा है, इसलिए हम तो उसके आधार से मान भी लेंगे। लेकिन जिन्हें प्रभु वचनों पर श्रद्धा नहीं हो, उनको समझाने के लिए कोई तर्क मिल सकेगा? हम श्रद्धा से यह बात मानते हैं, और मात्र इसीलिए इस बात को आज्ञाग्राह्य करते हैं। पर यदि कोई तर्क मिल जाए, तो उसे हेतुग्राह्य बना सकते हैं, और साथ ही हमारी श्रद्धा और भी दृढ़ बन जाएगी।
उत्तर :
प्रभु की किसी भी बात तर्कशून्य नहीं होती। कुछ बातों को तर्क के द्वारा सिद्ध करने के लिए अन्य अनेक तर्कों का सहारा लेना पड़ता है। प्रस्तुत बात की सिद्धि करने के लिए भी स्टेप बाय स्टेप बहुत तर्क और उनसे सिद्ध हो चुकी बातों का सहारा लेना जरूरी है। जैसे कि,
विश्व अनादि काल से है, अनंत है।
जीव अनादि काल से है।
जीव का मोक्ष संभवित है, और इसलिए जीवों का मोक्षगमन चालू ही है।
जीवों की संख्या अनंतानंत है।
जीव और पुद्गलों के रहने का स्थान परिमित है।
इन सभी बातों को संक्षिप्त रूप से देखते हैं।
दुनिया में लाखों मैन्युफैक्चरिंग कंपनियां हैं। हर एक कंपनी अपनी-अपनी प्रोडक्ट बनाती है, करोड़ों प्रकार की प्रोडक्ट तैयार होती रहती है। जो बिना रॉ-मटेरियल के बन जाती हो, क्या ऐसी एक भी प्रोडक्ट हो सकती है? और बनने के बाद और उपयोग में आने के बाद वह प्रोडक्ट कालांतर में नष्ट हो जाती है। क्या ऐसी कोई भी प्रोडक्ट होती है, जो अपने पीछे किसी भी प्रकार का भंगार (स्क्रैप) छोड़े बिना ही नष्ट हो जाती है?
उपरांत, यह भंगार ही किसी अन्य प्रोडक्ट का रॉ-मटेरियल बन जाता है। उसमें से जरूरी प्रक्रिया करके उसके द्वारा अन्य प्रोडक्ट तैयार किया जाता है, जो कालांतर में नष्ट होकर फिर से अन्य स्क्रैप तैयार करता है। और यह स्क्रैप कोई तीसरी ही प्रोडक्ट का रॉ-मटेरियल बन जाता है। फिर से नई प्रोडक्ट, नया भंगार… यह साइकिल चलती ही रहती है। यानी कि रॉ-मटेरियल से प्रोडक्ट, फिर भंगार, फिर से रॉ-मटेरियल, फिर प्रोडक्ट, फिर भंगार… यह चक्र चलता ही रहता है। यह चक्र कहीं टूट गया हो, या भविष्य में कभी भी टूट जाएगा, ऐसा संभव ही नहीं है। इसलिए विश्व का जो भी आदिकाल या प्रारंभ काल कहना हो, उस समय विश्व का जो भी स्वरूप था, वह बिल्कुल शून्य में से (पूर्व में किसी भी प्रकार का कोई भी रॉ-मटेरियल नहीं था, बिल्कुल शून्य था) उसका सर्जन हुआ था, ऐसा नहीं कह सकते। वरना तो उस समय की तरह आज भी ढेरों चीजें बिना रॉ-मटेरियल के पैदा होनी चाहिए। इसलिए प्रारंभ काल के रूप में जो भी समय था, उस काल के विश्व में जो भी वस्तुएँ पैदा हुई, उन हर एक वस्तुओं का पूर्व में रॉ-मटेरियल था ही। इसका अर्थ यह है कि रॉ-मटेरियल स्वरूप में विश्व, पूर्व में भी ऐसा ही था। यही बात हर काल पर लागू होने के कारण विश्व का कोई भी आदिकाल नहीं कह सकते हैं, इसलिए विश्व अनादिकाल से है।
कोई भी वस्तु रॉ-मटेरियल में से पैदा होती है। यह वास्तविकता तर्कसिद्ध भी है और प्रत्यक्ष सिद्ध भी है। पर फिर भी विश्व का आदिकाल मानने के लिए उस आदिकाल में (कभी-कभी) बिना रॉ-मटेरियल के भी कोई चीज पैदा हो सकती है, यदि ऐसा मानना जरूरी बन जाए, तो इसे तर्क से तो नहीं मान सकते हैं। इसलिए श्रद्धा से ही मानना पड़ता है। और यदि यह बात श्रद्धा से मानने की तैयारी है, तो कंदमूल के एक-एक कण में अनंत जीव हैं, यह बात भी श्रद्धा से मान लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये।
विज्ञान हमसे तर्क विरुद्ध बात करेगा, तो भी हम मान लेंगे, और प्रभु की बताई गई तर्कबद्ध बात को भी विज्ञान अगर मना करता हो, तो हम नहीं मानेंगे। यह तो विज्ञान के प्रति अंधश्रद्धा हुई।
इसीलिए ही Big Bang थियरी आदि श्रद्धेय नहीं है। जिसमें से विस्फोट होकर विश्व का सर्जन हुआ था, वह मूलभूत पदार्थ अनादिकालीन था? या कभी उत्पन्न हुआ था? अनादिकाल से था – यदि ऐसा कहेंगे, तो उसी तरह विश्व को भी अनादि-कालीन मानने में क्या परेशानी है? वर्तमान काल में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, या ऐसी कोई घटना नहीं है, जो विश्व को अनादिकालीन मानने से हमें रोक सके। और वह मूलभूत पदार्थ भी विश्व का ही एक स्वरूप है, क्योंकि बिल्कुल नया पैदा हुआ हो, ऐसा कुछ भी इस विश्व में देखने को नहीं मिलता है। मात्र एक स्वरूप में से दूसरे स्वरूप में रूपांतरण ही होता हुआ दिखाई देता है। आज के विज्ञान युग में, जब एडवांस टेक्नोलॉजी और सुपर कंप्यूटराइज्ड हैरत भरी मशीनों की बोलबाला है, ऐसे युग में भी यदि बिना रॉ-मटेरियल के, शून्य में से कुछ भी सृजन नहीं हो सकता, तो फिर विज्ञान की दृष्टि से जो बिल्कुल पत्थर युग था, उस समय में बिना किसी रॉ-मैटेरियल के सब कुछ पैदा होना – ऐसा मान लेना मात्र अंधश्रद्धा है, और कुछ भी नहीं।
इसलिए नया कुछ भी पैदा नहीं होता है सिर्फ रूपां-तरण होता रहता है। इस रूपांतरण का कोई अंत नहीं है, इसलिए विश्व का कोई प्रारंभ नहीं है और कोई अंत नहीं है। इसलिए विश्व अनादि-अनंत है।
Big Bang थिअरी के मुताबिक यदि मूलभूत पदार्थ को उत्पन्न हुआ मानेंगे, तो कुछ प्रश्न खड़े हो जाएँगे – वह पदार्थ किसमें से उत्पन्न हुआ था? कहाँ उत्पन्न हुआ था? किसने उत्पन्न किया था? कब उत्पन्न किया था? किसलिए उत्पन्न किया था? उसके पूर्व अनंत काल बीत चुका था, उस दौरान कभी भी उत्पन्न नहीं किया तो उस समय क्या जरूरत पड़ गई थी कि उसे उत्पन्न करना पड़ा?
और वह पदार्थ उत्पन्न होने के बाद फिर उसमें विस्फोट कब हुआ था? किसने किया था? क्यों किया था? किससे किया था? उसके पहले या बाद में नहीं लेकिन उस समय पर ही क्यों किया?
इन सभी प्रश्नों के तर्कसंगत उत्तर नहीं मिल रहे हो, तो इस थिअरी को माननीय कैसे कर सकते हैं?
अधिक बातें आगामी लेख में…
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