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प्रत्येक जीव में अपनी आत्मा का दर्शन करने वाला व्यक्ति दूसरों के दुःख में किस हद तक विचलित हो सकता है, इसका 150 वर्ष पूर्व का एक प्रसंग जानने को मिला –
कच्छ-वागड़ में भरूड़ीया गाँव में रहने वाले एक श्रावक के घर के पास एक किसान रहता था। किसान स्वभाव से, सबसे अलग रहने वाला था, और पड़ोसियों से भी कम मिलता-झुलता था।
ग्रीष्म ऋतु में एक बार प्रातः काल में प्रसंगवश किसान सपरिवार किसी अन्य गाँव गया। शाम होने से पहले आ जाने का सोचा था, इसलिए अपने अलमस्त बैल को घर के आँगन में बाँधकर, थोड़ा घास देकर, घर को ताला लगाकर निकल गया। लेकिन किसी काम में फँस जाने के कारण वह किसान रात तक घर नहीं आ सका।
जैसे-जैसे समय बीता, वैसे-वैसे बैल की भूख-प्यास बढ़ती गई, और वह जोर-जोर से आवाज करने लगा। उसकी आवाज सुनकर श्रावक और उसका जवान बेटे ने आकर देखा तो, बैल अंदर था, और बाहर से घर को ताला लगा था। दोनों बहुत दुःखी हुए। आस-पास कहीं भी चाबी नहीं मिली। किसान कब वापस आयेगा, किसी को पता नहीं था।
जन्म से मिले हुए जीवदया के सुसंस्कारवश बैल को जिंदा रखने के – खिलाने के लिए वह युवक यहाँ से वहाँ दौड़-भाग कर प्रयत्न करने लगा। लेकिन किसान के घर में घुसने का कोई मार्ग नहीं दिखा। आखिर में बैल के दुःख से दुःखी होकर उस युवक ने भी खाना-पीना बंद कर दिया।
दो दिन का उपवास हो गया। तीसरे दिन किसान घर आया। ताला खुलने की आवाज सुनकर युवक दौड़ता-दौड़ता आया और एक ही साँस में बोला –
“आपका बैल दो दिन से भूख-प्यास के कारण निरंतर चिल्ला रहा था। लेकिन कल से, दोपहर के बाद उसकी आवाज सुनने को नहीं मिली, शायद कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई है ना?”
ताला खुलते ही जीवदया प्रेमी युवक दौड़कर अंदर गया। और देखा तो खूँटा टूट गया था और बैल मरण के शरण जा चुका था। वह युवक दुःखी होकर बिलख-बिलख कर रोने लगा। बहुत समय तक रोता रहा। फिर उसके माता-पिता उसे समझाकर घर लेकर गये। चौथे दिन पारणा कराया।
उसकी आँखों के सामने से बैल का दृश्य हट ही नहीं रहा था। जीवदया के इस अपूर्व राग से उसके हृदय में जोरदार वैराग्य प्रकट हुआ।
17 वर्ष की खिलती युवा उम्र में उसने स्थानकवासी संप्रदाय में दीक्षा स्वीकार की। बाद में सत्यज्ञान पाकर ‘संवेगी’ दीक्षा स्वीकार की और वे ‘पू. पद्मविजयजी म.सा.’ के नाम से जगप्रसिद्ध हुए।
कच्छ-वागड़ के उपकारी गुरुवर्य पू. जितविजयजी दादा के गुरुदेव ही पू.पद्मविजय म.सा. हैं!!!
जीवदया में निरंतर खेलने से सर्वोत्कृष्ट धर्म, अर्थात् संयम तो मिलता ही है, साथ-साथ दूसरे भी अनेक फायदे हैं –
दीर्घ आयु,
निरोगी काया,
लोकप्रियता,
हर जगह सफलता
जीवन में शांति मिलती है।
दुनिया का एक नियम है – ‘जैसा दोगे वैसा पाओगे’। जो दूसरे जीवों को शांति, प्रेम और प्रसन्नता देते हैं, उसे भी भरपूर शांति, प्रेम और प्रसन्नता मिलती ही है।
चलो, हम भी संकल्प करते हैं कि – ‘मेरी वाणी, व्यवहार और वर्तन से दूसरे के हृदय को घाव लगे, मैं ऐसी एक भी प्रवृत्ति नहीं करूँगा।‘
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