कुटीर के भीतर की दुनिया को उज्ज्वलित करने की हिम्मत जब चाँद सितारों ने ना दिखाई, सूरज का तेज भी जब गुफाओं और खंडहरों में ना पहुँच सका, तब मिट्टी के छोटे से दिये के कलेजे में समर्पण का भाव जाग उठा।
उसने कहा, मुझे थोड़ी सी रूई दे दो और थोड़ा सा तेल दे दो। अंधेरे को हटा देने का पुरुषार्थ मुझे करने दो। और उसके बाद कुटीर का अंधेरा हटाकर दुनिया का दिल हर्ष से हँस पड़ा। उसकी समर्पण भावना दूसरी कुटीरों और गुफाओं में पहुँच गई। और वहाँ भी दिये के पुरुषार्थ ने प्रकाश का काव्य रचा और समर्पण भावना का दीपक राग गाया।
2576 वर्ष के बाद भी प्रभु का यह शासन, साधु और साध्वीजी भगवंत, श्रावक और श्राविका के शासन के प्रति, आराधनाओं के प्रति समर्पण भाव से जगमगा रहा है।
वंदना उन श्रमणी भगवंतों को, कि जो आज भी ज्ञान, ध्यान, तप, त्याग, साधना, आराधना और उपासना में अग्रसर बनकर भगवान के शासन को प्रकाशित कर रही हैं।
वंदना उन श्रमणी भगवतीजीओं को, कि जो आज के काल में श्राविका वर्ग में प्रभु के वचनों को पहुँचाकर उनके जीवन को सन्मार्ग की और ले जाने की दिशा में निरंतर और सख्त पुरुषार्थ कर रही हैं।
वंदना भगवान के शासन की आराधना अहोभावपूर्वक करने के द्वारा जो आज भी प्रभु के शासन के सिद्धांतों को हृदयस्थ करने के द्वारा जयनाद कर रही हैं। उन श्रमणी भगवंतो और उनके वृंद, उनकी आराधना, उनकी उपासना को देखकर नतमस्तक होकर झुक जाने का मन होता है, प्रभुशासन के उन पराक्रमी पावन चरणों में।
मेहसाणा के नजदीक लींच गाँव में पूज्य बापजी महाराज के समुदाय के श्रमणी भगवंत ने चौमासा किया। पूरे गाँव में जैन का घर नहीं था। लेकिन उन्होंने हर एक घर में कंदमूल बंद कराया। अनेक घरों में उबला हुआ पानी पीना शुरू हो गया। कई लोग उभय समय प्रतिक्रमण करने लगे। जिनवाणी श्रवण के लिए संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। वीरान गाँव और ऐसे गाँव में धर्मबोध का सिंचन करने वाले ऐसे श्रमणी भगवंतो को वंदन करने का दिल करता है।
पूज्य वल्लभसूरि महाराजा के समुदायवर्ती पू. साध्वी श्री कंचनश्रीजी महाराजा, जो कुछ समय पहले ही कालधर्म हो गये। 97 वर्ष की उम्र में 53वीं गिरिराज की 99 यात्रा की आराधना कर, वे अपनी आत्मा को निर्मल करते गये।
पूज्य लब्धिसूरिजी समुदाय के साध्वीजी केवलरसाश्रीजी महाराजा ने 13 नव्वाणुं की थी। एक बार चौविहार अट्ठम करके गिरिराज की 28 यात्रा की थी। पारणे के दिन भी 3 यात्रा करके पारणा किया था।
‘अहो सत्वम् ‘
एक श्रमणी भगवंत ने चौविहार छट्ठ करके 7 यात्रा अखंड 69 बार की और ऊपर से छट्ठ के पारणे पर आयंबिल किया।
कमाल !! कमाल !!
साध्वीजी श्री नयपूर्णाश्रीजी ने तप के दरमियान 99 यात्रा की। तमाम उपवास के पच्चक्खाण दादा के समक्ष लिए।
बहुत-बहुत अनुमोदना !!
एक श्रमणी भगवंत के पैर में काँटा लगा। लेकिन अपनी वेदना को किनारे पर रखकर वनस्पतिकाय के जीव की संवेदना करने लगे, और आजीवन उस श्रमणी भगवंत ने लीलोतरी के त्याग का पच्चक्खाण कर लिया। ऐसे श्रमणी भगवंतो से आज भी प्रभु का शासन उज्ज्वल है, जाज्वल्यमान है, और प्रकाशित है।
यह श्रमणी परंपरा चिरंतन रहो, चिरंतन रहो, चिरंतन रहो।
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