
प्रश्न:
हमारे यहाँ चढ़ावा आदि पैसों में क्यों बोले जाते हैं? इत्यादि बातें आपने सुंदर तरह से तर्कसहित समझाईं और वे समझ में भी आ गईं। हमारे श्रीमंत श्रावक प्रभुभक्ति के, प्रतिष्ठा आदि के चढ़ावों में बिना प्रेरणा किये भी करोड़ों की बोली बोलते हैं। पर वे ही श्रीमंत साधर्मिक, जीवदया, अनुकंपा आदि में इतनी उदारता नहीं दिखाते। इसलिए अनेक संघो में देवद्रव्य की विशाल राशि जमा पड़ी हुई होती है। तो इस द्रव्य का गरीब और दुःखी लोगों के उद्धार में उपयोग नहीं करना चाहिए? कमजोर साधर्मिक के उत्थान में नहीं करना चाहिए ?
उत्तर:
दाताओं ने जिस उद्देश्य से दान दिया हो उस उद्देश्य से विपरीत तरीके से उन पैसों का उपयोग करना यह बाकायदा गुनाह है। उसे betrayal of the donor कहते हैं। गांधीजी ने भी जब ऐसा प्रस्ताव उनके सामने आया था, तब दान की रकम का अलग उद्देश्य में उपयोग करने का निषेध किया था। सुनने के अनुसार आजादी की जंग के लिए बहुत बड़ा फंड इकट्ठा हुआ था। उस दरमियान देश के कुछ हिस्सों में दुष्काल का हजारों लोगों पर असर पड़ा था। इसलिए कुछ लोगों ने गांधीजी को मशवरा दिया कि, आजादी के फंड को इन असरग्रस्त लोगों के लिए इस्तेमाल करना चाहिये। तब गांधीजी ने स्पष्ट इनकार कर दिया था कि, लोगों ने जो फंड आजादी के लिए दिया है, उसे मैं इस दूसरे उद्देश्य में नहीं दे सकता।
सुप्रीम कोर्ट में ई. स. 1962 में जो 634 नंबर का केस हुआ था, उसका विवरण भी जानने जैसा है। यह केस श्री छोटालाल लल्लूभाई आदि ने मुंबई के चैरिटी कमिश्नर आदि के सामने किया था। हुआ ऐसा था कि, भरूच वेजलपुर के श्री झवेरचंद डाह्याभाई नाम के श्रावक ने अपनी मृत्यु के बाद अपनी संपत्ति के प्रबंध के लिए एक वसीयतनामा बनवाया था। उसमें हर वर्ष पर्युषण के बाद हो रहे स्वामीवात्सल्य के भी कुछ रकम अलग से रखी गई थी। पर ई. स. 1952-53 के दौरान रेशनिंग के प्रतिबंध के कारण स्वामीवात्सल्य नहीं हो सका था। तो मुंबई के चैरिटी कमिश्नर ने भरूच डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में उस स्वामीवात्सल्य की रकम को अन्य शैक्षणिक कार्य के लिए उपयोग में लेने की दरखास्त की। डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने मंजूरी दे दी; इसलिए केस मुंबई हाई कोर्ट में गया। वहाँ भी मंजूरी मिलने पर आखिर में केस सुप्रीम कोर्ट में गया। वहाँ चीफ जस्टिस सहित अन्य चार जज, कुल पाँच जजों की बेंच के समक्ष यह केस चला। ई. स. 1965 के 22 जनवरी के दिन पर इस केस का निर्णय आया। इस फैसले में डिस्ट्रिक्ट कोर्ट की और मुंबई हाई कोर्ट की बहुत सी भूलों को बताया गया था। और चैरिटी कमिश्नर की अर्जी अन्यायपूर्ण है ऐसा घोषित करके उनकी याचिका को ठुकरा दिया गया था।
दाता दान देते समय स्वतंत्र होता है। उसकी इच्छा कमजोर साधर्मिकों के उत्थान की या गरीबों की अनुकंपा की हो तो कोई उन्हें रोकता नहीं है। और ऐसी भावना वाले श्रावक इस क्षेत्र में भी लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करते ही हैं। कुछ श्रावक दोनों क्षेत्रों में लाभ लेकर उदार दिल से दान देते ही रहते हैं।
प्रश्न:
पर देवद्रव्य की इतनी जरूरत ना होने पर भी बेशुमार देना, और गरीबों को आवश्यकता होने पर भी कम देना, इसमें कौनसा विवेक है?
उत्तर:
जरूरत तो दोनों को 10 रुपये की ही है। पर भिखारी को 10 रुपये देने वाला सुपुत्र पिताजी को 100 रुपये दे तो उसमें उसकी पितृभक्ति की अभिव्यक्ति है, उसमें कोई अविवेक नहीं है। ऐसा ही प्रस्तुत प्रश्न के लिए समझना चाहिये।
बाकी प्रभु को तो कुछ भी जरूरत नहीं है। प्रभु का मंदिर बने या ना बने, प्रभु की भक्ति हो या ना हो, इससे प्रभु के अनंत सुख में या केवलज्ञान में अंश मात्र भी फर्क नहीं पड़ता। पर प्रभु की, प्रभु के मंदिर की और प्रभु की भक्ति की हमें जरूरत है। क्योंकि इसके द्वारा हमारी आत्मा पापी से पुण्यशाली बनती है। क्रोधादि दोषों की चंगुल से छूटकर क्षमादि गुणों का मालिक बनती है। संसारभ्रमण को रोककर मोक्ष मंजिल की पथिक बनती है।
और सामान्यतः हमारी मानसिकता ऐसी होती है कि, देरासर सामान्य हो, छोटा हो तो विशेष भक्ति नहीं उछलती। पर वह यदि विशाल हो, भव्य हो तो भक्ति में हम एकतान हो जाते हैं। भव्य जिनालयों के निर्माण में दान भी करोड़ों में चाहिये ना !
प्रश्न:
चलो, भव्य जिनालय का निर्माण हो गया, दान के प्रवाह की दिशा अब तो बदलनी चाहिये ना?
उत्तर:
निर्मित हुए जिनालय के रख-रखाव के लिए क्या पैसे नहीं चाहिये होते हैं ? आज की महंगाई में वार्षिक खर्च भी 6 या 7 आंकड़ों तक पहुँच जाता है, तो कही पर 8 तक भी।
देरासर के जीर्णोद्धार आदि के कारण अचानक बड़ी रकम की जरूरत पड़ जाये तब फंड अगर जमा हो तो कार्य आसानी से हो जाता है। कच्छ के भूकंप के समय जो मंदिर धराशायी हो गये थे उन्हें सहजता से फिर से खड़ा इसी देवद्रव्य की सुलभता के प्रभाव से किया गया था।
प्रभु शासन की तो ऐसी व्यवस्था है कि कोई एक छोटे से गाँव में जिनालय के जीर्णोद्धार या नवनिर्माण के लिए रकम की जरूरत पड़ जाये; तो भारतभर के किसी भी संघ के पास जो देवद्रव्य जमा होता है उसका उपयोग किया जाता है। अरे! भारत के बाहर प्रदेश से भी उसके लिए देवद्रव्य उपयोगी बनता है। अलग-अलग संघ इसके लिए करोड़ो रुपयों का फंड इकट्ठा भी करते हैं।
महाराष्ट्र के सांगली में स्टेशन के सामने जवाहर सोसायटी नाम की एक सोसायटी है। जिसमें तकरीबन आधे परिवार जैनों के और आधे परिवार हिंदूओं के थे। सोसायटी ने दोनों को अपने-अपने मंदिर बनाने के लिए 1-1 प्लॉट दिया। हमारा श्री धर्मनाथ भगवान का शिखरबंधी भव्य जिनालय तैयार हो गया। उसकी भव्य अंजनशलाका प्रतिष्ठा भी स्व. पूज्यपाद गुरुदेव श्री विजय जयशेखरसूरीश्वरजी म. सा. की पावन निश्रा में हुई। उसके कुछ वर्षों के बाद जब वहाँ जाना हुआ तब देखा कि दूसरा मंदिर फंड के अभाव से प्लीन्थ तक आकर अटक गया था।
देवद्रव्य में अच्छी-खासी रकम जमा हो गई है, तो अनुकंपा आदि में खर्च कर डालो। यदि संघ ऐसा करने लगे तो हमारे देरासरो की हालत क्या हो जाएगी? यह बात सबको शांति से सोचनी चाहिए।
भारत सरकार ने ट्रस्ट एक्ट बनाने के बाद धार्मिक ट्रस्टों के सरप्लस धन का स्वयं उपयोग कर सके, उसके लिए प्रजा की सहमति मिले, धार्मिक संस्थाओं के अग्रणियों की राय मिले, उसके लिए तेंडुलकर पंच की नियुक्ति की। उनके समक्ष जैनों की और से सेठ श्री कस्तुरभाई लालभाई उपस्थित हुए थे। तब पंच ने बार-बार प्रश्न उठाया था कि आपके खर्चे निकलने के बाद जो सरप्लस रकम होती है, उसका उपयोग सरकार करे तो आपको क्या परेशानी है ? तब श्री कस्तूरभाई ने बार-बार स्पष्टता की थी कि हमारे वहाँ ऐसे सरप्लस रकम होती ही नहीं है। जो है, वह भी हमारे कार्यों के लिए कम पड़ती है। क्योंकि भूकंप, बिजली गिरने पर, अतिवृष्टि हो तब हमारे जो नुकसान पाये हुए आबू देलवाड़ा आदि अमूल्य तीर्थों के जीणोद्धार के लिए लाखों करोड़ों रुपयों की हमें कभी भी जरूरत पड़ सकती है। उस समय हम किसके पास भीख माँगने जायें? भूतकाल में तो विधर्मियों ने हमारे 3000 मंदिर तोड़ डाले हैं। एक भी वापस नहीं मिला। तो अब हम एक-एक मंदिर पैसों के अभाव से गँवाते जायेंगे तो कुछ ही सालों में जैन मंदिरों का तो नाम भी नहीं रहेगा।
दूसरी समझने जैसी बात यह है कि फंड जिसके पीछे खर्च करना होता है उसके प्रचुर या अल्प पुण्य की भी फंड पर असर पड़ती है। ऐसा तकरीबन सभी का अनुभव है। और आपने भी प्रश्न में बताया ही है, कि प्रवचनकार महात्मा आवश्यकता के समय पर साधर्मिकों के लिए या गरीबों के लिए जोरदार प्रस्तावना के साथ सभा को प्रेरणा करते हैं, फिर भी मर्यादा में ही थोड़ा फंड जमा होता है। जब कि प्रभु के नाम पर फंड या बोली लगती है तब वे ही श्रावक लाखों रुपयों का बहुत ही सहजता से आनंद और उल्लास से लाभ लेते हैं। हमें समझना ही पड़ेगा कि प्रभु का पुण्य प्रचंड है, और साधर्मिक आदि का पुण्य कमजोर है। इसीलिए भिखारी भी यही बोलता रहता है कि, भगवान के नाम पर कुछ दे दो…!!
भगवान के अलौकिक पुण्य को हम भूल जायें ऐसा कैसे चलेगा ? उस पुण्य के प्रभाव से जमा हुए फंड को दूसरे उद्देश्य में खर्च करना, यह शास्त्रविरुद्ध तो है ही पर लोक व्यवहार के विरुद्ध भी है। इसलिए ऐसे विचार कभी भी न्यायपूर्ण नहीं हो सकते।
एक बात है; प्रभु की प्रतिष्ठा, अंजनशलाका के समय पर करोड़ों रुपये के अचिन्त्य चढ़ावे भी हो जाते हैं। उस समय एन्कर या संगीतकार यदि यह सोचे कि यह भव्य चढ़ावे तो मेरी प्रतिभा से हुए हैं, तो यह नितांत अयोग्य है। क्योंकि इस चढ़ावे में मुख्य परिबल (कारण) प्रभु का प्रभाव ही होता है। वही निश्रादाता गुरुदेव, वही एन्कर, वही संगीतकार और वही सभा हो तो भी, साधर्मिक आदि का फंड इतना भव्य नहीं करवा सकते। अरे उससे आठ या दसवें भाग का भी इकट्ठा करने में दम निकल जाता है।
इससे समझ लेना चाहिये कि, भगवान के प्रभाव से जो होता है, उसमें भगवान के प्रभाव का स्वीकार करना चाहिये। उसका प्रतिकार नहीं करना चाहिये। भगवान के ऐसे प्रचंड पुण्य प्रभाव को जानकर भगवान के प्रति की श्रद्धा-भक्ति बढ़ानी चाहिये, पर उस द्रव्य के उपयोग में खोट नहीं निकालनी चाहिये।
बाकी, यह बात निरंतर याद रखने जैसी है कि, श्री जैन शासन की हर एक बात आत्मकल्याण को केन्द्र में रखकर की गई है। क्योंकि प्रभु ने शासन की स्थापना इसीलिए ही तो की है। आत्मा अतिन्द्रिय है, अदृश्य है, पांचों में से एक भी इंद्रिय का विषय नहीं है। इसलिए उसका तत्काल और दीर्घकालीन कल्याण या अकल्याण किसमें है, यह हमारी बुद्धि का विषय नहीं है। पर यह बात आत्मा को, उसकी तीनों काल की अवस्थाओं को साक्षात् प्रत्यक्ष देखने वाले केवली भगवंतो का विषय है। इसलिए हमारे लिए सर्वज्ञ भगवंतो के वचन, उनके प्रति समर्पण, ग्रंथकारों द्वारा रचे हुए शास्त्र, आदि आत्मा के कल्याण-अकल्याण का निश्चय करने का आधार है। और शास्त्र तो देवद्रव्य का उपयोग उपाश्रय आदि में करने को भी मना करते हैं, तो अन्यत्र उपयोग करने से कल्याण हो ही नहीं सकता, अकल्याण ही होता है।
इसके बारे में विशेष बातें आगामी लेख में…….
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