क्या पर्युषण ( जैन पर्व ) आपसे प्रसन्न है ?
- Panyas Shri Nirmohsundar Vijayji Maharaj Saheb
- Sep 23, 2020
- 5 min read
Updated: Apr 12, 2024

कुछ दिन पूर्व सुप्रीम कोर्ट में एक किस्सा पहुंचा था । झारखंड के वैद्यनाथ मंदिर के दर्शन खोलने हेतु अधिवक्ता ने सुंदर दलील पेश की थी। निष्कर्ष यह था कि ऑनलाइन दर्शन को हम दर्शन नहीं मानते, अतः भगवान के द्वार खोले जाएँ।
पर्युषण के दौरान हमारे जैन धर्मावलंबियों की याचिका भी कुछ इसी प्रकार थी, तब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने सुंदर जवाब दिया था। जैसे आर्थिक गति-रोध दूर करने के लिए बाजार खोले जाने अनिवार्य है, वैसे ही आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए, गतिरोध दूर करना जरूरी है और अंतराय दूर करने के लिए मंदिर खोलना भी अनिवार्य है।
ऑनलाइन प्रतिक्रमण या आराधना का इस जमाने में विरोध करना मुझे अनुचित लगता है, फिर भी मैं ऐसा अवश्य मानता हूँ कि, ऑनलाइन आराधना में संतुष्टि हो पाना असंभव है। आपातकालीन व्यवस्था को सर्वकालीन मान लेना पागलपन है।
आपातकालीन व्यवस्था आपातकाल तक ही रहनी चाहिए।
अभी-अभी संवत्सरी की ही बात ले लो। एक भाई ने ऑनलाइन प्रतिक्रमण करना शुरू किया। आधे प्रतिक्रमण के बाद भाई को झपकी लग गई तो सो गए। कोई जगाने वाला भी वहां उपस्थित नहीं था।
सामुदायिक आराधना को इसीलिए हमारे जिनशासन में अनिवार्य बताया गया है। सामूहिक साधना से निर्बल बलवान बनता है, और बलवान परोपकारी। एक-दूसरे को देख कर एक-दूसरे को प्रेरणा मिलती है। आराधना में उत्साह की प्रचंड लहर उठती है, और स्व-आंदोलन सर्व-आंदोलन में परिवर्तित हो जाता है।
व्यक्तिगत आराधना करने में वे लोग ही समर्थ होते हैं, जिन्हें प्रेरणा की कोई आवश्यकता नहीं होती है, बाकी, बिना प्रेरणा धर्म आराधना करने वाले 10% मिलना भी मुश्किल है।
बच्चे को भोजन कराने के लिए एक माँ की जरूरत होती है, जो सिर्फ भोजन बनाती ही नहीं है, अपितु जब तक वह भोजन बेटे के पेट में ना जाए तब तक चैन से बैठती भी नहीं है।
हमारे अधिकांश धर्म आराधक उन बच्चों की तरह हैं, जिन्हें धर्म की प्रेरणा ना मिले या धर्म का माहौल ना मिले, धर्म करने का पर्युषण जैसा अवसर या समुदाय ना मिले तो वे लोग धर्म करना ही छोड़ देते हैं। उनके पीछे लगना पड़ता है, एक माँ की तरह।
आज आंखों में आंसू है। यह कहते हुए दिल में दर्द है कि इस बार पर्युषण पर्व बहुत ही फीके रहे। (यह बात समस्त भारत के जैन संघो का आंकलन करके बताई है, हमारी निश्रा में तो पर्युषण वैसे ही हुए हैं जैसे हर साल होते हैं । प्रवचन, पूजा, पौषध, प्रतिक्रमण सब कुछ वैसे का वैसा ही हुआ जैसे होता आया है।)
बात सिर्फ एक धर्म की नहीं है, सभी धर्मों की है। बात सिर्फ एक एरिया की नहीं है, सभी एरिया की है।
हमारे शास्त्रों में 6 महीनों का बहुत बड़ा महत्व है। जो कार्य लगातार 6 महीने तक होता रहता है, उनकी असर जीवन भर रहती है, और जो कार्य लगातार 6 महीने बंद रहते हैं, उनकी असर भी जीवन भर मिलती रहती है।
जैसे कि कोई सूत्र नया-नया पक्का किया हो और उसे 6 महीने तक बिल्कुल भी याद नहीं किया जाए तो वो विस्मृत हो जाता है, और वो ही सूत्र यदि लगातार प्रतिदिन 6 महीने तक बोला जाए तो वो सूत्र कभी भी संपूर्ण विस्मृत नहीं होता है।
दो महीने के कड़े लॉकडाउन ने और पीछे के 4 महीने के सरकारी नियंत्रणों ने आपकी कईं अच्छी आदतों को बदलने का कार्य किया। बुरी आदतें आपके अंदर डालने का भी साथ में ही कार्य किया ।
अफवाहों के जोर पर जो लोग पर्युषण जैसे पर्व में भी डरकर अपने घर पर बैठे रहे, उन लोगों ने क्या नुकसान किया, उसकी जानकारी तो कोई केवलज्ञानी ही देख सकते हैं। मगर, जिन लोगों ने कुछ हिम्मत जुटाकर अपनी आराधना जारी रखी, वे लोग जंग जीत गए।
जिम बंद होने के बावजूद शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति जागृत लोगों ने साईकलिंग जारी रखी, ठीक उसी प्रकार धर्म के स्थान बंद होने के बाद भी धार्मिक स्वास्थ्य के प्रति प्रेम रखने वालों ने कोई न कोई विकल्प अवश्य ढूंढा। मगर बात उन लोगों की करनी है, जो हकीकत में अब धर्म से एवं धर्मी से दूर हो चुके हैं।
एक भाई मंदिर में प्रतिदिन महात्मा की प्रेरणा पाकर पूजा कर रहे थे। उस भाई ने महात्मा के विहार के पश्चात् प्रवचन एवं प्रेरणा बंद होने पर पूजा बंद करके दर्शन चालू कर दिए। प्रभु के दूर से दर्शन-धूप-दीप-घंट इत्यादि जो चालू था वो भी कोरोना आते ही बंद हो गया। प्रतिदिन दर्शन करने वाले भाई ने अपने मन को समझा दिया कि, घर में भी तो प्रभु की तस्वीर रखी हुई है ना ! उनके दर्शन करो या मंदिर में जाकर प्रभु के करो, क्या फर्क पड़ता है ? आखिर तो सब एक ही है ना ? व्हाट्सएप-फेसबुक में चैटिंग के कारण रात को देरी हो जाने से सुबह देर से उठने वाले वो भाई, जैसे ही बाजार जाने के लिए जल्दी-जल्दी घर से निकल रहे थे, पत्नी ने याद दिलाया, ‘घर के प्रभुजी के दर्शन कर लो ।‘ जवाब मिला, ’वैसे भी तो अब मोबाइल में ही प्रभुजी के दर्शन हो जाते हैं, इनकी जरूरत क्या है ?’
थोड़े दिन पश्चात् एक नास्तिक विचार ने बची-खुची श्रद्धा का भी खून कर दिया, ‘दिल में ही भगवान बैठे हैं तो बाहर के भगवान की जरूरत क्या है ?’
पर्यटन स्थल को नक्शे में देखकर संतुष्टि नहीं पाने वाला इंसान भगवान को मोबाइल में देखकर ही अब संतुष्टि मान लेता है। धीरे-धीरे नीचे गिरने वाले इंसान को पता भी नहीं चलता कि, कब उसकी श्रद्धा का जीवन समाप्त हो गया है, इसलिए सामूहिक रूप से धर्म साधना करना अनिवार्य है। व्यवहार धर्म ही निश्चय धर्म को टिकाकर रखता है। बाह्य क्रियात्मक धर्म ही आंतरिक भावनात्मक धर्म को जीवित रखने में सहायक है।
अंतिम दृष्टांत देकर लेख को विराम देता हूँ।
अकबर ने बीरबल से पूछा: रमजान खुश होकर गया या नाखुश होकर ?
बीरबल ने तुरंत जवाब दिया: रमजान खुश होकर गया।
अकबर ने पूछा: ‘कैसे ?’
बीरबल बोला: ‘यदि खुश होकर नहीं गया तो अगले साल वापस कैसे आता ? क्योंकि रमजान हर साल आता है। इस साल की तरह अगले साल भी आएगा। जो मेहमान अप्रसन्न होकर घर से जाता है, वो वापस नहीं आता है।‘
मैं आपसे प्रश्न करता हूं, ‘पर्युषण पर्व प्रसन्न हो कर गया है या नाराज होकर ?
अगले साल पर्युषण वापस जरूर आएगा, इसलिए दावे के साथ कह सकते हैं कि पर्युषण तो प्रसन्नता से चला गया।
मगर एक प्रश्न भी पीछे छोड़कर गया है कि क्या इस पर्युषण से हम प्रसन्न हैं ? ना, बिल्कुल भी नहीं।
हम अपने पर्युषण की आवभगत में इस बार बड़ी चूक कर बैठे हैं। पर्युषण तो दिलदार उदार मित्र की तरह पुनः हमारे द्वार पर दस्तक देगा मगर अगली बार हम उदास हुए बिना, निराशा छोड़कर उत्साह-उल्लास से उन्हें सुस्वागतम् जरूर कहेंगे ना ?
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