आक्रमण और उत्थापन
सभी का श्वास थम सा गया था।
हृदय के धड़कनों की गति बढ़ती जा रही थी।
जैसे-जैसे समाचार सुनने में आ रहे हैं, वैसे-वैसे सभी भय से काँप रहे थे।
तुर्क देश का बादशाह हुसैन खान सिन्ध की ओर से अत्यन्त बलशाली सेना के साथ भारत वर्ष में “मारो ! काट डालो ! किसी को मत बख्शो !” के नारे के साथ एक से एक राजा-महाराजाओं को बेरहमी के साथ हराते हुए कच्छ, चोरवाड़, खेतार, जेन्तार आदि छोटे-बड़े राज्यों पर कब्जा करते हुए आगे बढ़ रहा था।
पाटण गुजरात की राजधानी थी, और पाटण की गद्दी पर बैठने के मनसूबे रचते हुए हुसैन खान पाटण की ओर अपनी बलशाली सेना के साथ आगे बढ़ रहा था।
पूरे पाटण में सन्नाटा फैला हुआ था।
पाटण में सुबा हस्तक दिल्ली सल्तनत का शासन था।
दिल्ली में बैठे हुए बादशाह फ़िरोजशाह तुगलक को गुजरात में चल रही सभी गतिविधियों से सुबा ने वाकिफ तो कर दिया।
लेकिन… हाल ही में वार्धक्य एवं निर्बलता के कारण बादशाह की मौत हो गई।
बादशाह की मृत्यु होते ही उसके वारिसों में सत्ता स्थापित करने के लिए आपसी लड़ाई चरमसीमा में पहुँच गई थी।
मोहम्मद खान तुगलक को दिल्ली के गद्दी पर बैठकर कुछ दिन ही हुए होंगे कि ग्यासुद्दीन तुगलक द्वितीय ने उसकी हत्या करके दिल्ली की गद्दी को हासिल कर लिया।
लेकिन उसका इतना वर्चस्व न होने के कारण कोई अमलदार उसके आदेश को नहीं मानते थे।
तुर्की का हुसैन खान इस बात से अच्छे से वाकिफ था, इसलिए वह इन हालातों का फायदा उठाना चाहता था। इसलिए वह पूरे जोश और ताकत के साथ पाटण पर चढ़ाई करने के लिए आ रहा था।
और यहाँ…
पाटण के सुबा ने युद्ध के लिए पूरी तैयारी कर ली थी। पूरी सेना और सेनापतियों को आगाह कर दिया था। जब हुसैन खान ने पाटण को चारों ओर से घेर लिया, तब सुबा ने रणदुंदुंभि बजाकर युद्ध को प्रारंभ करते हुए हुसैन खान की सेना पर हमला बोल दिया। दोनों सेनाओं में कईं दिनों तक घनघोर युद्ध चला। और एक दिन युद्ध में चरमसीमा आई, और सुबा अपनी पूरी सेना के साथ अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर पूरे जोश के साथ आक्रमकता से हुसैन खान की सेना पर टूट पड़ा।
सुबा ने सीधे हुसैन खान पर तलवार से प्रहार किया।
लेकिन….चालाक हुसैन खान ने अपने पर किये हुए प्रहार से खुद को बचाते हुए सुबा की तलवार को बीच में से ही उड़ा दिया, और शातिरी से अपनी कटार सुबा के पेट में भोंक दी। सुबा के सौ साल पूरे हो गए, सुबा धराशायी हो गया।
सुबा की मौत के बाद हुसैन खान पाटण का बादशाह बन गया।
दूसरी ओर….युद्ध की परिस्थिति को देखते हुए खेतसिंह प्रभु पार्श्वनाथ की सुरक्षा के लिए अत्यन्त चिन्तित था।
हुसैन खान के कारनामे सुनकर खेतसिंह को भय सता रहा था कि “यह कट्टरपंथी क्रूर हुसैन खान जिनमन्दिर और जिनप्रतिमा का नाश करेगा। धर्मान्ध, धर्मद्वेषी मूर्तिभंजक तुर्की बादशाह प्रभु प्रतिमा को खंडित करेगा।”
चिन्ता की चिता में आकुल-व्याकुल हो रहे खेतसिंह को एक मार्ग सूझा, और उसने पाटण के संघ को एकत्रित किया।
संघजन, महाजन के समक्ष खेतसिंह ने प्रस्ताव रखा कि, “प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा की सुरक्षा इस परिस्थिति में यक्ष प्रश्न बन गया है। और बिना एक पल गंवाए हमें जल्द से जल्द इसका हल निकालना ही पड़ेगा, एक पल की देरी भी हमें भारी मुश्किल में डाल सकती है।”
“आप सभी मिलकर प्रभु प्रतिमा की सुरक्षा का मार्ग बताएँ !” खेतसिंह का यह प्रस्ताव सुनकर सभी विचारों की गहराई में डूब गए।
अनेक अभिप्रायों के पश्चात् भी किसी ठोस निर्णय तक नहीं पहुँच सके।
अन्ततः पीड़ित और विदीर्ण हृदय के साथ खेतसिंह ने अपने विचार प्रस्तुत किए।
“मुझे ऐसा लगता है कि जिनमन्दिर में से प्रभु प्रतिमा का उत्थापन करके सुरक्षित भूगर्भ में स्थापन कर देते हैं। फिर जो किस्मत में लिखा होगा वह तो होने वाला ही है।”
सभी ने खेतसिंह के विचार पर सकारात्मक अभिप्राय देते हुए अपनी अनुमति दे दी। क्योंकि इसके सिवाय और कोई बेहतर तरकीब उन्हें भी नहीं सूझ रही थी।
अश्रुपूर्ण नयनों से आखिरी बार प्रभु पार्श्वनाथ की भक्ति करते हुए खेतसिंह ने प्रभु की उत्थापना की। और अपने भवन के तलघर में, भूगर्भ में निर्भयस्थान में प्रभुजी को प्रस्थापित कर दिया।
तत् पश्चात् किसी को पता न चले, इसके लिए उस भूगर्भ के ऊपर अनेक पत्थर आदि चीजें रख दी, और प्रभु की रक्षा के लिए क्षेत्रपाल से प्रार्थना की।
विक्रम संवत् 1432, ई. स. 1376 में प्रतिष्ठित हुए प्रभु पार्श्वनाथ, विक्रम संवत् 1445, ई. स. 1389 के वर्ष में भूगर्भ में प्रस्थापित हो गए।
मात्र 13 वर्षों में अकल्पनीय घटित हो गया।
क्या पता अभी और कौन-कौनसी घटनाएँ आकार लेने वाली थीं ?
भूगर्भ में से प्रभु पुनः कब जिनमन्दिर की शोभा बढ़ाएँगे ?
देवताओं के द्वारा भूगर्भ में पूजे जाने वाले प्रभु के दर्शन पुनः कब होंगे ?
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पाटण से परदेश गमन, परलोक गमन
पाटण की पावनभूमि को अलविदा कहने का मन तो नहीं हो रहा था, किन्तु मुस्लिम शासकों की भयानक अराजकता के कारण खेतसिंह ने पाटण की मिट्टी को ललाट पर तिलक के रूप में चढ़ाते हुए, अपनी मातृभूमि को साष्टांग नमन करते हुए सीमोल्लांघन करके थरपारकर देश की ओर प्रयाण किया ।
थरपारकर देश में सोढा जाति के राजपूतों का शासन था, अर्थात् वहाँ शान्ति और व्यवस्था का तन्त्र था, प्रजा सुखी थी।
थरपारकर देश में भूदेशर नगर की भव्यता अनोखी और अद्भुत थी।
श्रेष्ठीवर्यों के निवास से नगर की शोभा खिल उठी थी।
वहाँ सोढा जाति के खेंगारजी परमार राजा नीतिपूर्वक राज्य करते थे, और वडोरा गोत्र के काजल शाह वणिक प्रधान पद पर आरूढ़ थे।
काजल शाह के मृगादेवी नाम की धर्मनिष्ठ बहन थी।
खेतसिंह को भूदेशर नगर पसन्द आया, इसलिए उसने वहीं अपना निवास बनाया। कपास का व्यापार शुरू किया। उसके पुत्र मेघजी शाह ने पिता को व्यापार में सहायक की भूमिका निभाई। पिता-पुत्र के गुणों की सुवास नगर में चारों ओर फैलने लगी।
प्रधान काजल शाह की नजर में इस पिता-पुत्र की जोड़ी सूरमे की तरह बस गई थी। उसे अपनी बहन के लिए मेघजी योग्य पात्र लगने लगा। इसलिए एक बार स्वयं खेतसिंह के घर आकर उसने मृगादेवी का विवाह मेघजी से करने का प्रस्ताव रखा।
खेतसिंह ने भी विचार किया कि, “प्रधान के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध प्रस्थापित करने के लिए यह एक सुनहरा अवसर है। सचिव समधी कहीं तो उपयोग में आएंगे।”
खेतसिंह ने सहर्ष सहमति दी। बड़ी धूमधाम से मेघजी और मृगादेवी का विवाह संपन्न हुआ। समय को व्यतीत होने में देर नहीं लगती। खेतसिंह ने धर्माराधना करते-करते आयु पूर्ण होते ही परलोक की ओर प्रयाण किया।
(क्रमशः)
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