प्रभु का पुन:प्रागट्य
हुसैन खान के आक्रमण से भयभीत हुए श्रेष्ठी खेतसिंह की तरह अनेक श्रेष्ठी अपने–अपने आवासों को छोड़कर पाटण को अलविदा कर चुके थे।
शून्य घरों की तरह अनेक भवन भी खाली और सुनसान पड़े हुए थे।
राजभवन और महल भी अस्त-व्यस्त थे।
पाटण की दुर्दशा देखकर हुसैन खान फिर से पाटण की शोभा पूर्ववत् करने के अथक प्रयत्न करने लगा।
अनेक वणिक–व्यापारियों को निमंत्रण दिया और अनेक राजाओं को अपने वश में कर लिया।
उस समय की कठिनाई कहो या बदकिस्मती, पर वह मुस्लिम बादशाह हुसैन खान हिन्दुओं की बेटियों और राजकुमारियों को बेगम बनाता था।
और हिन्दुओं के साथ अपनी मुस्लिम लड़कियों की शादी करवाकर सभी को इस्लामिक बनाता था, और धर्म का विस्तार करता था।
इस तरफ,जहाँ खेतसिंह ने प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा को जमीन में गाड़कर छिपा दिया था, उसके आसपास की भूमि पर बादशाह ने अश्वशाला बनायी थी।
और जहाँ पर प्रभु की प्रतिमा गड़ी थी, ठीक उसी जगह पर बादशाह के जातिवंत अश्व को बाँधा जाता था।
वह अश्व रोज अपने पैरों की नाल से जमीन खोदता रहता था। अश्वपालक सोचता है कि, यह अश्व रोज-रोज ऐसा क्यों करता है ? इसलिए एक दिन वह अश्वपालक खुद ही जमीन खोदने लगा।
कुछ गहराई तक जमीन खोदने पर वहाँ से ताजे पुष्पों से पूजित खेतलवीर यक्ष से रक्षित पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा प्रकट हुई।
अश्वपालक ने वह प्रतिमा हुसैन बादशाह को सौंपी। प्रभुजी को निहारते हुए बादशाह आश्चर्यचकित होकर आनंद की अनुभूति करने लगा।
रानीवास की अनेक रानियों में से एक हिंदू रानी ने प्रभु के दर्शन करके कहा, “ये तो देवाधिदेव हैं, साक्षात् पयगंबर हैं, मनोवांछित पूरक हैं, सकल समीहित संपूरक जिनेश्वर देव हैं।“
प्रभु की महिमा सुनकर बादशाह प्रभुजी को उच्च आसन पर विराजमान करके नमन करने लगा और भावपूर्वक बंदगी करने लगा।
प्रभु का प्राकट्य् वर्ष: वि.सं.1465 ई.सं.1409
अर्थात् भूगर्भ के गुप्तवास के बीस साल बाद प्रभु ने फिर से दर्शन दिये।
मेधाशा का पाटण में पुनरागमन
“मेधाशा! यहाँ भूदेशर से अच्छा अब परदेश जाकर कमाना पड़ेगा, ऐसा लगता है। और आप तो पाटण की धरा से परिचित ही हो। इसलिए आप वहाँ पर जाओ, और यहाँ पर दुर्लभ हो ऐसी वस्तुएँ ले आओ।”
काजलशा की बात सुनकर मेधाशा प्रयाण की तैयारी में जुटे। काजलशा ने व्यापार में भागीदारी की और ऊँट, बैल आदि लेकर आए।
भूदेशर में अलभ्य वस्तुएँ लाकर लोगों की जरूरतों का लाभ उठाकर बेशुमार द्रव्य कमाने का नुस्खा काजलशा के हृदय में जगा था, और इसके लिए मेधाशा जैसा विश्वसनीय इंसान और कहाँ मिलता !
मेधाशा ने शुभ मुहूर्त में प्रयाण किया। अखंड सौभाग्यवती पत्नी मृगादेवी ने उनके भालप्रदेश पर कुमकुम तिलक और अक्षत लगाया। उसी ही समय पर दायीं ओर से पूर्ण कलश लेकर कुंवारी कन्याएँ गुजरीं।
प्रयाण करके कुछ कदम आगे बढ़े, उतने में कमल पुष्पों से भरी हुई टोकरी लेकर मालिन सामने आई है और मेधाशा का फूलों से स्वागत किया।
और आगे बढ़ने पर ग्वालिन दही लेकर आई। उसे कुछ द्रव्य देकर, खुश करके वे आगे बढ़े। तब कुछ ब्राह्मण पूजा के उपकरण लेकर सामने आए। मेधाशा ने उन्हें भी नमस्कार करते हुए शगुन दिया। और आगे चलने पर एक कदावर हाथी वहाँ से गुजरा और पक्षियों की मंगल आवाजें आईं।
इस प्रकार एक के बाद एक लगातार शुभ शगुन होते रहे और मेधाशा पाटण की ओर आगे बढ़ते रहे।
आखिर में अविरत यात्रा करते–करते वे पाटण नगर में पहुँचे। हवेली जैसा एक मकान किराये पर लेकर वे उसमें निवास करने लगे।
भाग्य खुले, प्रभु मिले
घना अँधकार छाया हुआ था। आकाश में चंद्र अपनी चांदनी बिखेर रहा था। वातावरण में नीरव शांति थी। मध्य रात्रि से ज्यादा समय व्यतीत हो चुका था।
इतने में अचानक मेधाशा के शयनखंड़ में चारों और प्रकाश ही प्रकाश फैला, और खेतलवीर यक्ष प्रकट हुए।
जिसके एक हाथ में खड़्ग, दूसरे हाथ में काला नाग, तीसरे हाथ में रुद्राक्ष की माला और चौथा हाथ वरद मुद्रा में था। यक्ष ने मेधाशा को ना तो डराया, ना ही उनके मन में भय पैदा किया।
यक्ष को अपने ज्ञान में प्रतीत हुआ कि, मेधाशा पाटण में पधारे हैं, इसलिए प्रभु पार्श्वनाथ का मिलाप करने के लिए वे प्रेम भरा आमंत्रण देने हेतु प्रकट हुए थे।
“मेधाशा! आपके पिता ने जो पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा भरायी थी वह हुसैन खान के रानीवास में है। कल सुबह में बादशाह को 125 टके (उस समय की मुद्रा) का नजराना देकर प्रभुजी को ग्रहण कर लेना।“
मात्र इतनी बात कहकर यक्ष अंतर्ध्यान हो गये।
मेधाशा तो ‘यह स्वप्न है या सत्य ?’ ऐसे आश्चर्य के अनुभव के साथ आनंद से रोमांचित हो गए।
इस तरफ,यक्ष खेतलवीर राजमहल में पहुँचा है और निद्रादेवी के आधीन सोये हुए बादशाह हुसैन खान को अपना रौद्र स्वरूप दिखाकर डराने लगा।
भय से काँपकर बादशाह तलवार लेकर तुरंत उठ खड़ा हुआ। पर,यक्ष के स्वरूप को देखकर उसकी बुद्धि सुन्न हो गई।
“हुसैन खान! तेरे राज्य में पारकर देश के भूदेशर नगर से मेधाशा श्रेष्ठी आये हैं। कल सुबह वे 125 टके लेकर तेरे पास आएँगे, तब तेरे पास जो श्री पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा है, उसे बहुमान पूर्वक उस श्रेष्ठी को सौंप देना। यदि तू नहीं देगा तो तेरे और तेरे राज्य के सौ-सौ टुकड़े कर डा़लूँगा।
यक्ष के डरावने और धमकी भरे शब्दों को सुनकर क्रोधित हुआ बादशाह शय्या से उठकर तलवार लेकर यक्ष के सामने प्रहार करने गया, पर यक्ष अदृश्य हो गया।
पहरेदार तलवार के साथ उठे हुए बादशाह को देखकर दौड़कर बादशाह के पास आए। बादशाह ने सिर्फ समय पूछा, तो सेवकों ने कहा कि,“बादशाह सलामत! रात्रि का अंतिम प्रहर (3 घंटे) बाकी है।“
बादशाह ने चौकीदारों को रवाना किया, और खुद खयालों में गुम हो गया। एक तरफ भय था, तो दूसरी तरफ अल्लाह की तरह जिनकी बंदगी की, उनके वियोग की पीड़ा थी।
सूर्योदय होते ही बादशाह प्रभातिक कार्यों को पूर्ण करके आज जल्दी राजदरबार पहुँचे। जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रहे हों, वैसे बार–बार मुख्य द्वार की ओर नजर करने लगे। बादशाह आज बहुत बेचैन लग रहे थे।
और, मेधाशा ने भी शुभस्वप्न के संकेत अनुसार हर्षित हृदय से स्नानादि प्राभातिक कार्यों को पूर्ण किया और वस्त्र अलंकारों से सुसज्ज होकर भालप्रदेश पर तिलक करके स्वगृह से प्रस्थान किया।
अन्य श्रेष्ठवर्यों के साथ उसने राज दरबार में प्रवेश किया। बादशाह ने मेधाशा से उसका परिचय पूछा। मेधाशा द्वारा दिए गये स्व–परिचय के वर्णन से बादशाह को यकीन हो गया कि ये वही है, जिसके लिए मुझे यक्ष ने सूचना की थी।
खयालों में गुम हुए बादशाह को मेधाशा ने कहा, “आपके रानीवास में जो श्री पार्श्वनाथ भगवान की दिव्य प्रतिमा है, उसे मुझे सौंप दीजिए और मेरे ये 125 टके आप स्वीकार कीजिए।“
मेधाशा के एक–एक शब्द ने बादशाह के हृदय को चीर डाला। प्रभु के बगैर रहना पड़ेगा, ऐसी पीड़ा का अनुभव करते हुए बादशाह ने अपने दु:खी हृदय से जनानखाने में से प्रभुजी मँगवाकर मेधाशा को सौंप दिया।
प्रतिमा भराने वाले परिवार के गृहाँगन में प्रभुजी पुनः पधारे।
और वह साल था वि.सं 1470, ई.स.1414, यानी कि 5 वर्ष तक प्रभुजी बादशाह के राजमहल में रहे।
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