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गोडीजी का इतिहास – 5

Updated: Apr 7




पारस प्रभु मेरे…

मेघाशा हर्षित हृदय से भूदेशर की सीमा पर पहुँचा। अपनी कर्मभूमि के सामीप्य से उसका मन प्रसन्न हो गया।

उसने अपने साले काजलशा को खुद के आने का समाचार भेजा और कामदार काजलशा भी अपने स्नेही-स्वजनों को लेकर विशाल समुदाय के साथ मेघाशा के स्वागत के लिए सामने गया और आडंबर से सामैया किया। 

मेघाशा ने घर आकर प्रभुजी की प्रतिमा को उचित स्थान पर विराजित किया। पूरे गाँव में प्रभु के पधारने की खबर महक की तरह फैल गई। प्रभुजी के दर्शन-पूजा करने के लिए लोगों के झुंड के झुंड श्रद्धा के साथ उमड़ने लगे।

प्रभु के दर्शन से आनंदित होकर लोग प्रभु के अचिंत्य प्रभाव की बातें करने लगे, और यह बात कर्णोपकर्ण सीधे राजा तक पहुँच गई। राजा खेंगार भी प्रभु के दर्शन के लिए आतुर हुआ और प्रभुदर्शन करने हेतु आया।

जब प्रभु के साक्षात् दर्शन हुए, तब राजा के मुँह से शब्द निकल पड़े, 

“धन्य हुई धरा मेरी, कि आज इन प्रभु के कदम मेरे राज्य में पड़े, मेरा अहोभाग्य है कि, अब मुझे बार-बार प्रभु की भक्ति का अवसर प्राप्त होगा।” इस प्रकार प्रभु के गुण गाकर राजा अपने महल में पहुँचा। 

इस तरफ कुछ दिन व्यतीत हो जाने पर काजलशा का मन अब व्यापार की जानकारी लेने के लिए अधीर हुआ। उसने मेघाशा से पूछा, “क्या है हिसाब -किताब? क्या कमाया? क्या खर्च किया?”

नेकदिल और प्रामाणिकता की साक्षात् मूर्ति समान मेघाशा ने सारा हिसाब पूरी नीति के साथ बता दिया। उसमें 500 टके* (“टके” उस समय का उस देश की मुद्रा) प्रतिमा के बताये। तब काजलशा ने कहा, “अरे! क्या आप भी? यह क्या किया? एक पत्थर के टुकड़े के लिए इतने दे दिये? मुझे इससे क्या फायदा? इससे अच्छा तो कोई वस्तु ले आते तो कुछ तो उपज होती?”

यह सुनते ही मेघाशा ने उग्रता से कहा, “अब एक शब्द भी मत बोलना। एक श्रावक होने पर भी आप प्रतिमा को पत्थर का टुकड़ा कहते हैं? रहने दीजिए। ये 500 टके मेरे हिस्से में लिख देता हूँ। अब से आपका इसमें हिस्सा नहीं है। आज से यह पार्श्वनाथ प्रभु मेरे हैं।”

काजलशा काजल जैसा श्याम मुख लेकर विदा हुए, और मेघाशा ने घनराज नामक अपने एक संबंधी को प्रभुजी की सेवा-भक्ति आदि के कार्य सौंप दिए। संपूर्ण परिवार प्रभुभक्ति के अद्भुत आनंद का आस्वाद लेने लगा।

नदियों के प्रवाह की तरह समय बीता, और कालक्रम से मेघाशा को उसकी पत्नी मृगादेवी से (1) महियो (2) मेरो नामक दो पुत्ररत्नों की प्राप्ति हुई। 

छोटे-छोटे बालकों को लेकर परिवार के साथ श्री पार्श्वनाथ प्रभु की भक्ति करते करते 12 वर्ष बीत गए। 

एक दिन ऐसी घटना घटी कि मेघाशा गाँव छोड़-कर चले गए।

ऐसा क्या हुआ? जानने के लिए आगे पढ़िये…

‘गोडी’ नाम का रहस्य

वि.सं.1482, ई.स.1426 का वर्ष था। दिन भर के कार्यों को निपटाकर मेघाशा अब निद्रादेवी की गोद में विश्राम कर रहे थे। प्रातःकाल के समय में स्वप्न में दिव्य मुकुट, कुंडल और हार से शोभाय-मान तेज से जगमगाते हुए यक्ष खेतलवीर के दर्शन हुए। उस समय ऐसे लगा जैसे कि दसों दिशाओं तेज पुंज से प्रकाशित हो गई हो। 

मेघाशा ने वीर को स्वप्न में नमस्कार किया। खेतलवीर यक्ष ने मेघाशा को कहा, “सुनो! इस पारकर देश का नजदीक के समय में भंग होने वाला है। इसलिए कल प्रातःकाल में प्राभातिक कार्य पूर्ण करके भावड़ नामक चारण से वेल (ऊपर के छत्र सहित गाड़ी) लेना, और देवाणंद (जो मेघाशा का साढू था) से दो छोटे बैल लेना। फिर इस बैलगाड़ी में प्रभु को विराजित करके तू स्वयं इस गाड़े को चलाना। गाड़े को थलवाड़ी* गाँव की ओर ले जाना, और पीछे मुड़कर मत देखना।“

इतना आदेश देकर यक्ष अंतर्ध्यान हो गया। मेघाशा ने भी प्राभातिक कार्यों को पूर्ण करके वीर के वचनानुसार गाड़े और बैलों को जोड़ दिया और प्रभुजी को पधराया। गाँव के लोगों ने भारी हृदय से प्रभु को विदा किया। 

मेघाशा ने स्वयं वृषभरथ चलाया, और एक के बाद एक गाँव को पार करते हुए, आगे बढ़ते हुए मार्ग में एक भयानक जंगल आया। मेघाशा ने सोचा, “यह भयानक जंगल किस तरह पार कर पाऊँगा? यहाँ पर तो जंगली और शिकारी पशुओं का बहुत उपद्रव है।”

उसे इस तरह चिंतातुर देखकर खेतलवीर यक्ष ने पार्श्वप्रभु की महिमा गाकर उसे निश्चिंत किया। मेघाशा ने दृढ़ता से जंगल पार किया और एक वीरान गाँव तक पहुँचा।

हिम्मत और साहस के साथ भयानक जंगल पार करने वाले मेघाशा के मन में इस गाँव के आते ही एक कमजोर विचार आया कि, ‘यह गाड़ा एकदम हल्का-फुल्का क्यों लग रहा है? मेरे वृषभरथ में प्रभुजी विराजित तो हैं ना?’

चिंतित होकर मेघाशा ने जैसे पीछे मुड़कर देखा, तो उसी समय बैलगाड़ी वहीं के वहीं थम गई। मेघाशा को अपनी गलती समझ आई और उसे बहुत पछतावा हुआ। उसने गाड़ी को आगे बढ़ाने का अथाग प्रयत्न किया, पर वह निष्फल रहा।

मेघाशा के मन में निरंतर इस बात की चिंता होने लगी कि

  1. यहाँ पर जिनालय के निर्माण के लिये पत्थर कहाँ से लाऊँगा?

  2. तीर्थ सदृश जिनालय के लिए इतनी संपत्ति कहाँ से लाऊँगा?

  3. यहाँ पर तो खारा जल है, तो यात्रियों के लिये मीठा जल कहाँ से लाऊँगा?

मेघाशा श्रमित था, रात्रि भी होने को थी, अतः वह निद्राधीन हो गया। स्वप्न में यक्ष ने दर्शन दिए और आश्वासन देकर मार्ग बताया, “हे श्राद्धवर्य! यह गोड़ीपुर गाँव है। यहाँ से दक्षिण दिशा में थोड़ी दूरी पर ताजा गोबर पड़ा होगा, वहाँ पर कुआँ खुदवाना। तुझे पानी और पाषाण की प्राप्ति की होगी। और उसके नजदीक में श्वेतार्क (सफेद आंकड़े का पेड़) है। उसके नीचे बहुत सारा धन है। उससे जिनालय का निर्माण करना, और जहाँ पर चावल का साथिया किया गया है, उस भूमि पर जिनालय निर्माण करना।“

देववाणी सुनकर खुश-खुशहाल होकर मेघाशा उठ गया। उस वीरान गाँव को आबाद करने के लिए उसने सगे-स्वजनों को वहाँ बुलाया और वहीं उनका स्थाई निवास कराया। 

गोड़ी गाँव के अधिपति परमार जाति के सोढ़ा राजपूत उदयपाल थे। उसका खेतलसिंह लुणोत नामक कर्मचारी था जो स्वभाव से भद्रिक था। उसे समाचार मिला कि भूदेशर से मेघाशा प्रभुजी को लेकर पधारे हैं, तो वह राजा उदयपाल को साथ लेकर वहाँ दर्शनार्थ आया। प्रभु को नमन-वंदन करके रोमांचित होकर राजा ने मेघाशा के साथ बात की। मेघाशा अथ से इति तक की सारी चमत्कारी घटनाएँ बताईं और खेतलवीर ने स्वप्न में जो बताया वे बातें भी बताईं।

प्रसन्न हृदय से राजा ने भी पानी-पाषाण लेने की अनुमति प्रदान की, और 40 बीघा जमीन का लेख बनाकर भेट दिया। 

प्रभु का चमत्कार पर चमत्कार अनुभव कर रहे मेघाशा ने दैवी संकेत के अनुसार भूमि संपादन करके कुआँ खुदवाना प्रारंभ किया। जगह-जगह पर खारे पानी के कुएँ होने पर भी प्रभु के प्रभाव से इस कुएँ में से मीठा पानी निकला। 

उधर खान में से पत्थर निकालने का काम भी जोर-शोर से चल रहा था।

किन्तु…

सभी कारीगर शिल्पी नहीं थे। जिनालय निर्माण के लिए शिल्पशास्त्र के विशेषज्ञ चाहिये होते है। इतने दूर-सुदूर प्रदेश में शिल्पी कहाँ से लाएँ?

मेघाशा चिंतित था। किन्तु उसकी चिंता दूर करने के लिए रात्रि में स्वप्न में आकर यक्ष खेतलवीर ने कहा, “क्यों चिंता कर रहा है मेघाशा! तू सिरोही (राजस्थान) जा। वहाँ एक चतुर और विद्वान शिल्पी है। उसे असाध्य कुष्ठ रोग हुआ है। तू श्री पार्श्वनाथ प्रभु का न्हवणजल लेकर जाना। उसके मस्तक पर उसका छिड़काव करना। उसका कुष्ठ रोग मिट जाएगा।

रोग की पीड़ा से मुक्त होते ही वह तुझसे सेवा और ऋणमुक्ति की प्रार्थना करेगा, तब तू जिनालय निर्माण की बात करना।”

प्रभात होते ही मेघाशा ने अपनी धर्मपत्नी को सारी बात बताई और रजत कुंभ में न्हवण जल लेकर सिरोही पहुँचा। वहाँ शिल्पी को यक्ष के वचन सुनाकर उसके मस्तक पर न्हवणजल का छिड़-काव किया।

प्रभु पार्श्वनाथ के प्रभाव से शिल्पी संपूर्णतया रोगमुक्त हो गया। मेघाशा ने इस ऋणमुक्ति के लिए उसे जिनालय निर्माण की बात बतायी। शिल्पी अत्यंत आनंद के साथ गौरव का अनुभव करते हुए बोला, “मैं धन्य हूँ! पुण्यशाली हूँ कि ऐसे प्रभु का जिनालय बनाने का अवसर मुझे मिलेगा।”

मेघाशा शिल्पी सलाटों को लेकर गोड़ी गाँव में लौटा। जिनालय के निर्माण के कार्य का प्रारंभ हुआ। 

पत्थर पर गूंज रहे टंकार की आवाज ऐसी लग रही थी जैसे कि सुंदर संगीत फैल रहा हो। राजा उदयपाल ने भी रक्षा के लिए अपने सैनिक लगा दिए। जिनालय के हो रहे निर्माण को देखकर मेघाशा का मनमयूर नाच रहा था।

“शीघ्र शिखर का निर्माण हो जाए, और मैं स्वर्ण कलश चढ़ाऊँ।“ ऐसे शुभ मनोरथ का मन ही मन चिंतन करते हुए वह कल्पना में गुम हो गया। 

पर कहते हैं ना कि, “अच्छे काम में सौ विघ्न!”

क्या पता कि जिनालय का काम कब और कैसे संपन्न होगा।

मेघाशा तो ऊँचे-ऊँचे स्वप्न देख रहा था, पर भवितव्यता कुछ अलग ही थी।

जिनालय का कार्य अभी आधा ही हुआ था और तब …

आगे क्या होता है, वह आने वाले अंक में…

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