मेघाशा का महाप्रयाण
सुव्रता के विवाह की शहनाई बज रही थीं, ढोल बज रहे थे। काजलशा ने अत्यन्त धूमधाम से विवाह करवाया। ऐसा आयोजन देखकर स्नेही-स्वजन प्रशंसा करते हुए थक नहीं रहे थे। पुत्री के लिए पिता का प्रेम लोगों को दिखाई दे रहा था।
इस प्रसंग में मेघाशा को भी निकटवर्ती स्नेही के रूप में विशेष अतिथी का सम्मान दिया जा रहा था।
प्रसंग पूर्ण होते ही सभी ने मिष्टान्नादि व्यंजनों का आनन्द लिया और अपने-अपने विश्रामस्थानों पर चले गए। जब मेघाशा ने भी गोडीपुर जाने की बात की, तब “अभी बहुत काम बाकी हैं”, ऐसा बहाना निकालकर काजलशा ने मेघाशा को रोक लिया।
सुबह होते ही काजलशा ने अपनी पत्नी मोती से कहा, “सुनो! जब मेघाशा भोजन के लिए बैठ जाए, तो तुझे विष मिश्रित दूध परोसना है।”
पति के मुख से यह वाक्य सुनकर मोती चौंक गई और आघात के साथ पूछा, “अरे! ऐसा क्यों करना चाहते हैं?”
“स्त्री की बुद्धि पैर के नीचे होती है, तुझे तो कुछ समझ में नहीं आएगा। मेरे मार्ग में आने वाला काँटा मुझे दूर करना है। और यह कार्य किये बिना मुझे चैन नहीं आएगा।”
“हे स्वामीनाथ! आप मृगादेवी के लिए भी कुछ विचार नहीं कर रहे? आपको पाप का, दुर्गति का कुछ भी भय नहीं है? मान के लिए भूखा बनकर ईर्ष्याभाव में ऐसा अधम कदम क्यों उठाने जा रहे हैं? मैं ऐसे कार्य में आपकी कभी भी सहायता नहीं करूँगी!”
“अच्छा! तो ऐसा है। तो तू मेरी बात नहीं मानेगी! है ना मोती? अब सुनो…! तुम्हारा पति होने के नाते मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, कि तुझे यह करना ही पड़ेगा!”
अनिच्छा से मोती ने पति की आज्ञा का पालन तो किया, लेकिन मन ही मन में उसने दूसरी योजना भी बना ली। मोती अपने पतिदेव की प्रकृति भली भाँति जानती थी। कोयले जैसे काले-कपटी मन वाले अपने पति को सद्बोध के साबुन से चाहे जितना धो लो, फिर भी उसकी मति उज्ज्वल नहीं होगी।
दोपहर में भोजन का समय होने पर काजलशा ने अपने बहनोई मेघाशा को भोजन के लिए आमंत्रित किया। बाजोट लगाकर काजलशा-मेघाशा पास-पास में खाने के लिए बैठे। पति के कथनानुसार काँपते हुए हाथों से मोती ने मेघाशा को विष-मिश्रित दूध परोसा।
इस महापुण्यवंत प्रभु भक्त की हत्या का पाप मेरे सिर पर न चढ़े, इसलिए उसने मेघाशा को सूचित किया कि, “इस पात्र में विषमिश्रित दूध है, कृपया आप इसका पान मत करें!”
काजलशा ने मोती की ओर आँखें फाड़कर देखा। और फिर मेघाशा के सामने देखकर झूठमूठ हँसते हुए कहा, “ऐसी मजाक सालहज की नहीं होगी, तो किसकी होगी? ऐसी मजाक-मस्ती तो होती ही रहेगी।”
“मैंने दूध की बाधा रखी है, नहीं तो ऐसे अमृतपान को भला कौन छोड़ेगा!”
“आप संकोच न करो! ग्रहण करो! वापरो…वापरो!”
मेघाशा का भी नियम था कि, थाली में परोसा हुआ भोजन जूठा नहीं रखना है। लेकिन दूसरी ओर यक्ष का संकेत भी स्मरण में आया।
मेघाशा ने विचार किया कि, “यक्ष के संकेतानुसार वैसे भी मेरा आयुष्य अल्प है, तो केवल अल्प आयुष्य की चिंता में मैं मेरे व्रत का भंग क्यों करूँ?”
प्राण जाय, पर वचन न जाय।
काजलशा निर्लज्जता के साथ स्मित करते हुए सब कुछ देख रहा था। मेघाशा सब नाटक देख रहे थे, समझ भी रहे थे, फिर भी दूध का पात्र उठाकर नवकार मन्त्र का स्मरण करते हुए विषमिश्रित दूध को पी लिया। काजलशा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वह भीतर ही भीतर नाचने लगा।
मेघाशा भोजन स्थान से उठकर विश्रामस्थल पर जाने के लिए निकले। चलते समय उनके पैर डगमगाने लगे, आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा। जैसे-तैसे विश्रामकक्ष तक पहुँचे, लेकिन चक्कर आने के कारण पलंग पर गिर गए। शरीर में विष का असर होते ही नसें खिंचने लगीं। सम्पूर्ण शरीर में विष फैलने के कारण काया श्यामवर्णी हो गई, इन्द्रियाँ शून्य हो गईं। अन्ततः मेघाशा के प्राण-पखेरू शरीर के साथ संबंध तोड़कर परमागाम की ओर प्रयाण कर गए।
मीठडिया वोरा गोत्रीय मेघाशा, अपनी पत्नी, बाल-बच्चे, परिवार को छोड़कर, जिनालय का कार्य अधूरा छोड़कर परलोक के मार्ग पर संचार कर गए।
केवल 65 वर्ष की अल्पायु में अर्हद् भक्ति करते हुए, अपने जीवन को सार्थक बनाकर, विशेष भक्ति करने के लिए परभव चले गए।
मृत्यु की गोद में सोये हुए मेघाशा को देखकर काजलशा चुपचाप घर से बाहर चला गया। मानो घर में कुछ हुआ ही नहीं है, जैसे कि उसे कुछ पता ही नहीं है, ऐसे भाव लाकर काजल जैसा श्याम मुख लेकर वह कहीं चला गया।
काजलशा का देशनिकाल
मेघाशा को निश्चेत पड़ा हुआ देखकर काँपती हुई मोती दौड़ते-दौड़ते ननद मृगादेवी के पास गई। आक्रोश, आक्रंदन और रुदन करती हुई, आँखो से निरन्तर बहती जलधारा के साथ उसने मृगादेवी से कहा, “आपके और मेरे भाग फूट गये। आपके भाई को मैंने मना किया, बहुत समझाया, फिर भी ईर्ष्या में अन्ध होकर, हठ पर उतरकर मेरी एक भी न सुनते हुए उसने तुम्हारे पतिदेव को विषमिश्रित दूध पिला दिया।” अब डर कर वह पापात्मा तो घर से भाग गया है, और आपके स्वामी मृतावस्था में पलंग पर पड़े हैं।”
अशुभ समाचार सुनते ही मृगादेवी के पैरों तले जमीन खिसक गई। वह जोर-जोर से चिल्लाकर आक्रन्द करने लगी। दोनों बच्चे भी आक्रन्द करते हुए जोर-जोर से रोने लगे। सभी दौड़ते-दौड़ते मेघाशा के कक्ष में पहुँचे। पतिदेव की प्राणरहित देह को देखकर मृगादेवी मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़ी। हृदय को प्रताडित करने वाला बच्चों का आक्रन्द सुनकर आस-पड़ोस की स्त्रियाँ दौड़ती हुई आईं। मृगादेवी के मुख पर जल छिड़ककर उसे सभान किया गया। अपने प्राणेश्वर का मृतदेह देखकर वह अतिशय कल्पान्त करने लगी।
लोग काजलशा को ढूँढने के लिए गाँव में निकल पड़े, और देखते ही देखते काजलशा को पकड़कर ले आए। पापी भाई को देखते ही बहन का गुस्सा छठे आसमान पर पहुँच गया।
“तू मेरा भाई कहलाने के लायक ही नहीं है। क्या तुम्हें हमारी प्रगति चुभ रही थी? क्या तुम्हारे पास जमीन-जायदाद, किसी चीज में हमने भाग माँगा था? तुम्हारी बहन विधवा हो जाएगी और तुम्हारे भांजे अनाथ हो जाएँगे, इसकी भी तुम्हें चिन्ता नहीं हुई? ऐसे विचार भी तुम्हारे मन में कैसे आए? तू इतना अन्धा कैसे हो गया? जिनालय का कार्य अधूरा है, और मेरे निरपराधी पतिदेव को तूने विष देकर मार ड़ाला! धिक्कार हो तुझे!”
मुँह नीचा करके काजलशा सब सुन रहा था। उसे मन ही मन बहुत अफसोस हो रहा था, गलती का पछतावा हो रहा था। लेकिन, तुरीण से निकला तीर वापिस नहीं आता। सभी लोग काजलशा को धिक्कारने लगे।
सभी लोगों ने साथ मिलकर मेघाशा की सम्मान-पूर्वक अन्तिम क्रिया की। काजलशा अपनी बहन के चरणों में गिर पड़ा और अश्रुप्रवाह के साथ पश्चात्ताप करते हुए हृदय से उससे क्षमा माँगने लगा और अपने घर में रहने के लिए उससे विनती करने लगा।
बहन मृगादेवी ने कहा, “भाई! मुझे तुम्हारे विषैले धन से कोई प्रयोजन नहीं है। प्रभु गोडीजी पार्श्वनाथ के प्रभाव से तथा यक्ष की सहायता से हमारे पास सब कुछ है। मुझे शीघ्रातिशीघ्र जिना-लय के शिखर का कार्य पूर्ण करना है। भाई! मैं तुम्हारा अपराध मन में नहीं रखूँगी। हमारे ही पूर्वभव के कर्मों के कारण तुम्हें ऐसे दुर्बुद्धि सूझी होगी।”
देवीस्वरूप मृगादेवी का ऐसा उदार स्वरूप देख-कर, उसकी ऐसी बातें सुनकर काजलशा लज्जा से उसके चरणों में नतमस्तक हो गया।
सुबह होते ही पारकर देश के नरेश परमार सोढा महाराज खेंगारजी की ओर से काजलशा के लिए बुलावा आया। राजा की आज्ञा होते ही काजलशा दरबार में उपस्थित हुआ। राजा पहले से ही आक्रोश में हैं, यह देखकर काजलशा ने मौन धारण किया।
“अरे अधम! तुमने केवल तुम्हारे कुल को ही नहीं, बल्कि मेरे राज्य को भी कलंकित कर दिया। एक धर्मात्मा की हत्या करके तुमने बहुत बड़ा अपराध किया है। तुम्हारे जैसे को तो तुरन्त के तुरन्त यमलोक पहुँचाना ही हमारा कर्तव्य है। परन्तु मृगादेवी और उनके बच्चों की चिन्ता से तुम्हें जीवित छोड़ता हूँ। और सुनो! मुझे तुम्हारे जैसे दरबारी की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। अब से तुम मेरे राज्य की सीमा में कभी भी दिखाई मत देना! यदि कहीं से भी तुम्हारी खबर मिली, तो मैं तुम्हें जीवित नहीं छोडूँगा!”
अपमानित हुआ काजलशा अपने घर वापस लौटा और बहन मृगादेवी से बोला, “मुझे मेरे अपकृत्यों का फल मिल चुका है। अब हम गोडीपुर चलते हैं। मैं भी मेरे परिवार सहित आ रहा हूँ। मैं वहाँ पर जिनालय के काम की देख-रेख करूँगा, कार्यपूर्ति के लिए प्रयत्न करूँगा।”
विशाल एवं उदार हृदयी मृगादेवी ने भाई की बात स्वीकार की, और भूदेशर के घर-संसार को समेट-कर सभी गोडीपुर पहुँचे।
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