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गोडीजी का इतिहास – 8

Updated: Apr 7, 2024




दिव्यध्वनि से ध्वजारोहण

वि.सं. 1515 (ई.स. 1459) का वर्ष था। शिखर का कार्य पूर्ण होने को था। अब काजलशा परिवार में कर्ता पुरुष होने के कारण कामकाज पर पूरा ध्यान दे रहा था।

मृगादेवी की सहमति लेकर काजलशा ने दंड-ध्वजा के लिए उत्तम मुहूर्त देखा। शुभ मुहूर्त की घड़ी आते ही भव्य महोत्सव का आयोजन कर काजलशा शिखर पर दंडकलश की प्रतिष्ठा और ध्वजारोहण करने के लिए चढ़ा। लेकिन यश की लालसा मन में धारण करने वाले कपटी काजल-शा की मैली मुराद सफल नहीं हुई। जैसे ही दंड प्रतिष्ठित कर ध्वजा चढ़ाई, वैसे ही दंड, ध्वजा सहित नीचे गिर गया। पुनः दंड प्रतिष्ठित कर ध्वजा चढ़ाई, तो फिर से वह नीचे गिर गया। ऐसा एक नही, दो नहीं, तीसरी बार हुआ।

तीन-तीन बार दंड सहित ध्वजा नीचे गिरने से सकल संघ चिंतित हो गया। महाराणा उदयपाल और महाजन ने श्री गोडी पार्श्वनाथ प्रभु के समक्ष मंगल कार्य करके क्षमा प्रार्थना की। तभी आकाश में खेतल-वीर यक्ष ने दिव्यध्वनि द्वारा उद्घोषणा की, “जिन हाथों से श्री गोडी पार्श्वनाथ भगवान के परमभक्त मेघाशा की हत्या हुई है, उन हाथों से इस शिखर पर ध्वजा नहीं चढ़ेगी। ये अपवित्र है, बिना प्रयत्न किये यश प्राप्त करना चाहता है। इस दंड की प्रतिष्ठा और ध्वजारोहण मेघाशा के रत्नों जैसे पुत्र महिया और मेरा के हाथों से होगी, तो ही दंड और ध्वजा स्थिर रहेगी!

हे राजा उदयपाल! तीन-तीन बार ध्वजा-दंड नीचे गिरने के कारण प्रभु चिरकाल तक यहाँ विराजित नहीं रहेंगे। जब तुम्हें स्वप्न में संकेत प्राप्त होगा, तब तुम्हारे गृह में उचित स्थान पर प्रभु की प्रतिष्ठा कर अत्यन्त भक्तिभाव से पूजा करना!”

देववाणी सुनकर राजा उदय-पाल तथा संकलसंघ ने महिया और मेरा दोनों भाईयों को दंडप्रतिष्ठा-ध्वजारोहण के लिए विनती की, “आपके पिताश्री के स्वप्न को आप ही सम्पूर्ण करो!”

दोनों भाइयों ने दंडप्रतिष्ठा तथा ध्वजारोहण की विधि उल्लास-पूर्वक सम्पन्न की। जैसे ही जिनालय के शिखर पर ध्वजा लहराई, वैसे ही आकाश में दिव्यध्वनि हुई। वाजिंत्रों की आवाज से सबके रोम-रोम प्रफुल्लित हो गए। लोग ढोल-नगाड़े बजाने लगे। मृगादेवी के हृदय में भी हर्ष का पार नहीं रहा। ऐसा आभास हुआ कि मानो आज मेघाशा भी दिव्यलोक से आकर उपस्थित हुए हैं। ऐसा दिव्य आल्हादक वाता-वरण निर्मित हुआ।

दिन बीतते गए। एक दिन श्रेष्ठिजनों ने दोनों भाइयों से विनती की, “अपने गाँव में चौबीस गोत्र के श्रावक रहते हैं। उनकी ऐसी इच्छा है कि जिनालय की चारों ओर चौबीस देवकुलिकाओं का निर्माण कराना है। यदि आप आज्ञा दें, तो ही यह कार्य पूर्ण हो सकता है।”

दोनों भाई प्रेमपूर्वक बोले, “आप भावडों की (सिंध प्रदेश के निवासी जैन श्रावक भावड कहे जाते थे) इच्छा है, तो खुशी से देवकुलिकाओं का निर्माण करें!”

थोड़े ही दिनों में वहाँ देवकुलिकाओं का निर्माण कर प्रभुजी की प्रतिष्ठाएँ हुईं। 

मुख्य शिखर को आवर्तित चौबीस छोटी-छोटी देवकुलिकाओं पर लहराने वाली ध्वजाओं से जिनालय अत्यन्त अद्भुत लग रहा था।

प्रभु का पैर, पुण्य का ढेर

वि. सं. १४९४, ई. स. १४३८ की माघ सुदी ५, गुरुवार के दिन गोड़ीपुर की गद्दी पर विराजित हुए प्रभुजी का प्रभाव दिन-प्रतिदिन देश-विदेश में व्याप्त हो रहा था। प्रभु के दर्शन और पूजा करने हेतु दूर-दूर से भक्त आते थे, और अपने तन, मन और नयनों को पावन करते थे। किन्तु… 

समय के प्रवाह में बहते-बहते वि. सं. १७१६, ई. स. १६६० तक प्रभु गोड़ीपुर के भव्य जिनालय में भव्य जीवों को तारते हुए विराजमान रहे। अर्थात् २७८ वर्षों तक प्रभु मन्दिर के पबासन पर विराजित रहे। तत्पश्चात वहाँ के शासक सोढा सूतोजी प्रभु को गोडी गाँव से वीरावाव ले गए।

वीरावाव आने के बाद दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ने लगी। लोग प्रभु के चरणों में सोना, चांदी और नकद राशि का ढेर लगाने लगे। इस आवक का आधा भाग पुजारी को और आधा भाग सोढाओं को मिलता था। किन्तु सोढा इस आवक में गड़बड़ी कर रहे हैं, ऐसा लगने के कारण सूतोजी भगवान को बखासर ले गए।

बखासर में पहले वर्ष प्रभुजी के दर्शन के लिए मेला भी आयोजित हुआ। मूर्ति को नीम के पेड़ के नीचे सुरक्षित रखा गया, और मेला शुरू होने पर उसे बाहर निकाला गया। 

उस समय सूरत के नवलखा परिवार की श्राविका दर्शन के लिए आई। सूतोजी ने दर्शन करवाने के लिए बहुत पैसे मांगे, अन्ततः ९०००/- लेकर उन्हें दर्शन कराया गया। 

फिर सूतोजी मूर्ति को वीरावाव लेकर आए और वहाँ भी मेला लगाया गया। मेले में दर्शन के अच्छे पैसे मिलते थे। अच्छी ऑफर होने के कारण सोढा मूर्ति को लेकर रेगिस्तान को पार करके मोरवाड़ा आदि स्थानों पर भी  लेकर जाते, और उस समय १०० चौकीदार भी उनके साथ रहते थे। 

मेले इस प्रकार लगे – सुई गाँव ई. स. १७६४ में, मोरावाडा ई. स. १७८८-९६, १८१०-२२, वीरावाव ई. स. १८२४ में। 

१९३२ में तत्कालीन सोढा शासक पुंजोजी अपने दुश्मन, सिंध के मीरो के हाथ पकड़े गए और मारे गए। उसके बाद किसी ने मूर्ति नहीं देखी। पुंजोजी स्वयं मूर्ति को निकालते और रखते थे। अपने वारिस को मूर्ति कहाँ छुपाई वह स्थान बताना रह गया,और अचानक उनकी मृत्यु होने के कारण उस मूर्ति का क्या हुआ वह किसी को नहीं पता। 

कहते हैं कि पुंजोजी एक स्थान पर मूर्ति छुपाते थे, और फिर उन्हें स्वप्न आता कि इस स्थान पर खुदाई करना। अब मूर्ति कहीं और छुपाई थी, और खुदाई का स्वप्न स्थान कहीं और होता, किन्तु फिर भी स्वप्न के हिसाब से वह मूर्ति मिल जाती थी। 

मूर्ति की ललाट पर बहुमूल्य हीरा (तिलक) लगा हुआ था और वक्ष में स्तन प्रदेश पर दो हीरे लगे हुए थे। इस प्रकार उस समय के स्तोत्र ऐसा कहते हैं कि यह मूर्ति विलुप्त हो गई। किन्तु सोढा दरबारों के राजबारोट केशवजी मानाजी अणदाजी (मूल भद्रेश्वर, पारकर के) के पास एक पुस्तक प्राप्त होती है। उसमें उपरोक्त विवरण तो है ही, किन्तु उसके बाद की ऐसी जानकारी भी मिलती है जो अन्य कहीं प्राप्त नहीं होती। उस पुस्तक की भाषा पुरानी गुजराती है और शिरोरेखा वाली गुजराती में लेखनी लिखी हुई है।

पुंजोजी की मृत्यु के थोड़े समय तक मूर्ति जमीन में छुपी हुई रही, उसके बाद ढकवाणी के ढोर पर स्थित मूर्ति को नारणजी सोढा ने बाहर निकाला। 

पारकर में उस समय मीरो का अधिकारी मिरोज-खान बलोच रहता था। वह सोढाओं को बहुत परेशान करता था, इसलिए नारणजी सोढा मूर्ति लेकर गुजरात आ गए और कुण्डलिया गाँव में अपने सम्बन्धी के यहाँ रहे। 

उस समय अनेक तीर्थों की यात्रा करते हुए एक बड़ा संघ राधनपुर आया और वहाँ १५-२० दिन रुका। संघ के लोगों को गोडीजी के दर्शन की बहुत भावना थी। राधनपुर के अग्रणी नरपतलाल ज़ोटा को पता चला, तो उन्होंने कुण्डलिया में नारायणजी सोढा को पत्र लिखा। सोढा मूर्ति लेकर राधनपुर गए। 

प्रशस्ति न. १ में लिखा है कि, जैसलमेर निवासी खरतरगच्छीय, बाफणा गोत्र के शा. गुमानचन्द पुत्र शा. बादरमल जी आदि पांच भाइयों ने जैसलमेर, उदयपुर और कोटा से एक बहुत बड़ा संघ निकाला था। वह संघ पाली से सं. १८९१ की माघ सुदी तेरस को निकल कर शत्रुंजय, गिरनार आदि अनेक तीर्थों की यात्रा करके श्री शंखेश्वर होकर आषाढ़ महीने में राधनपुर पहुँचा। जब यह संघ सिद्धाचल जी पहुँचा था, तब वहाँ ढाई लाख यात्री इकट्ठा हुए थे। यह संघ बहुत बड़ा था, इसमें हजारों लोग, हजारों गाड़ियाँ, हजारों सवारी, हजारों ऊँट, हजारों चौकीदार, अनेक हाथी, अनेक पालखियाँ, अनेक रथ आदि बहुत सामग्रियाँ थीं। 

जब यह संघ राधनपुर पहुँचा, उस समय एक अंग्रेज भी प्रभु श्री गोडीजी के दर्शन करने के लिए राधनपुर आया था। उस समय राधनपुर में पानी की बहुत कमी रहती थी, किन्तु श्री गोडीजी के प्रभाव से गेवाउ नामक एक नदी निकली। उस नदी से बहता हुआ पानी समुचित मात्रा में मिलने के कारण पूरे गाँव और संघ में शान्ति हुई। संघवी ने श्री गोडीजी प्रभु की प्रतिमा को हाथी की सवारी में विराजित करके अत्यन्त धूमधाम से बहुत बड़ी शोभायात्रा निकाली। यह शोभायात्रा लगातार सात दिन तक राधनपुर गाँव में घुमाई और सभी लोगों को प्रभु गोडीजी के दर्शन करवाए गए। उस समय वरघोड़े में प्रभुजी के वर्धापन के साढ़े तीन लाख रूपये आए। अनेक भोजन समारोह भी हुए और संघ ने वहाँ पर सवा महीने तक स्थिरता की। संघवी ने पक्का निर्माण करवाकर उसके ऊपर छत्र बनाकर उसमें श्री गोडीजी की पादुका विराजित की।

राधनपुर में सात दिन तक उत्सव चला। यह बात सं. १८४२ की है। वहाँ से नारणजी सोढा थराद के पास स्थित खानपुर आए। खानपुर के सोढा आज भी गोडीजी के पाट की पूजा करते हैं, और शराब और मांस का सेवन नहीं करते। 

कुछ समय बीता और नारणजी सोढा ने पारकर जाने का विचार किया। किन्तु प्रतिमा जी का क्या करें? पारकर मैं मोरो का अधिपत्य था, इसलिए वह वहाँ टिक पाएंगे या नहीं, यह प्रश्न था। इस असमंजस में उन्हें वाव के सिंहासन पर बैठे भवान-सिंह मानसिंह की याद आई। उनके पास आकर वह बोले कि, आपके अधिकारी जैन हैं, उन्हें मैं गोडीजी की प्रतिमा देना चाहता हूँ, ताकि सेवा पूजा चालू रहे। पारकर में यदि सब कुछ सही हुआ, तो मैं वापस आकर मूर्ति ले लूँगा। इस प्रकार सं. १८४३ में यह मूर्ति वाव के जैनों के पास आई। सोढा ने उन्हें बताया गया कि, कुछ समय इस मूर्ति को छुपा कर रखना क्योंकि यदि सोढा के दुश्मन मीरो ने मूर्ति देख ली, तो वह उन पर हमला करेंगे और सोडा को भी परेशान करेंगे। 

वाव गाँव से पश्चिम दिशा में गोरजी के उपाश्रय में मूर्ति रखी गई, और बाद में नया जिनालय बनाकर विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई गई। 

वर्तमान में गोडीजी भगवान की प्रतिमा गोरजी के उपाश्रय के निकट वाले मन्दिर से उठाकर गाँव के बीच नए बने हुए जिनमन्दिर में मूलनायक के रूप में प्रतिष्ठित है। गोडीजी भगवान के यक्ष के नाम से पहचाने जाने वाली पार्श्वयक्ष की प्रतिमा भी गोडीजी भगवान के जिनालय में ही विराजित है।

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