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“जिन” को “निज” में समाना है।

Updated: Apr 7, 2024




Hello Friends,

तीर्थंकर प्रभु बनने की यात्रा में हम अग्रसर हैं।

एक के बाद एक कदम बढ़ाते-बढ़ाते आज हम सोलहवें पद पर आकर खड़े हैं, जिसका नाम है जिन पद।

जिस शब्द की हम जैनों को बड़ी महिमा है, वह शब्द है ‘जिन’। जो ‘जिन’ के अनुयायी व उपासक हों उन्हें ‘जैन’ कहा जाता है। ‘जैन’ होना हमारी पहचान का एक हिस्सा है, हमारे अस्तित्व का एक पर्याय है। हमारे गर्व और गौरव की बात है कि हम ‘जैन’ हैं।

परन्तु क्या हम यह जानते हैं कि जैन शब्द का मूल जो ‘जिन’ शब्द में निहित है, उस जिन शब्द का अर्थ क्या है?

जिन शब्द का अर्थ है ‘जीतना‘।

किसे जीतना ?

अपने ही दुर्गुणों को, विकृतियों को, आन्तरिक मल को, अपने स्वभाव की दुर्बलताओं को जीतना।

लोक में भी कहावत है कि, ‘जो जीता वही सिकंदर’। परन्तु हमारे धर्म में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है कि, “राग द्वेष पर जिन्होंने विजय प्राप्त की वही जिन है।”

आपको पता है इस दुनिया की प्रत्येक चीज अपने खुद के एक निश्चित स्वभाव में स्थिर है। आग हमेशा गर्म होती है, पानी को यदि गर्म किया जाए तब भी वह बहुत जल्दी शीतल हो जाता है, सूर्य कभी शीतल नहीं होता, चंद्र कभी गर्म हो नहीं सकता। लोहा कड़क हो जाता है, पानी द्रव स्वरूप में रहता है। हवा स्थिर नहीं रह पाती और पत्थर उड़ नहीं पाता।

इन सभी का अपना-अपना स्वभाव है, और इस स्वभाव के अनुसार ही सबकी अपनी-अपनी पहचान होती है। उस पहचान के आधार पर ही तो हम उनके पास जाते हैं। ठंडी चाहिए तो पानी के पास जाते हैं, और गर्मी चाहिए तो आग के करीब जाते हैं।

परन्तु क्या हम हमारा स्वभाव जानते हैं?

हमारा मूल स्वभाव राग द्वेष से मुक्त, निरंजन, निराकार, निर्मल और निर्दोष ही है।

हम में कोई क्रोध नहीं, कोई द्वेष नहीं, कोई माया नहीं, कोई शोक नहीं। रोग, दु:ख, पीड़ा आदि तो शरीर के गुण या अवगुण हैं। हमारी आत्मा तो दु:ख और दर्द से सर्वथा मुक्त ही है। निरंतर आनंद में ही मग्न है।

परन्तु हमारे इस स्वभाव का न तो हमें ज्ञान है, न तो कोई अनुभव। पहले तो हम हमें जाने, बाद में हम जैसे भी हैं वैसा अनुभव में लायें।

और इसी कारण ‘जिन’ पद की उपासना करें। क्योंकि उनकी उपासना से हमारे लक्ष्य में निरंतर यह भाव बना रहता है कि हमें भी ऐसा ही बनना है।

भगवान की प्रतिमा जिन रूप में ही विराजित होती है। भगवान की मुद्रा को देखने मात्र से ही हमें हमारे असली शुद्ध स्वरूप का अनायास बोध हो जाता है, और भगवान की पूजा करने के बहाने हम जिनरूप की, जो कि निजरूप ही है, उसी की उपासना करते हैं।

जिन को निज में समाना है, जिन को निज में ढूंढना है और पाना है। प्रभु के जैसा बनना है। न कोई आशा, न कोई पीड़ा, न कोई मोह, न कोई विकार…

शुद्ध स्वयं का असली स्वभाव!

वह स्वभाव जो प्रभु की प्रतिमा में दिखता है, जो साधु भगवंत की जीवनी में झलकता है, जो आस्थावान भक्त की आँखों में उभरता है, जो हमारा खुद ही का है, फिर भी हमीं से खो चुका है। खुद में खोये हुए खुद की खोज, यानी जिन पद की आराधना। चलिए इस पद की भक्ति करें:

॥जिन पद॥

(तुझ से जुदा होकर…)

मल से अलग होकर, मुझे शुद्ध होना है;

इस कारण ‘जिन पद’ का, मुझे ध्यान करना है…

जिनवरा! दोषों से मुझे छुड़वा,

कर्मों से मुक्त करा…

मुझसे ना होना रुसवा…

मैं ज्ञानी मूरख हूँ, दुनिया को जान लिया;

पर मैं खुद कौन हूँ, मैं ये ना जान सका;

जिन पद को जब जाना, मैंने मुझे पहचाना,

अब ना कुछ है पाना, मुझ में ही समा जाना;

एक प्यास जागी है, विश्वास साथी है

जिसको जिन ने पाया, वह मुक्ति पानी है…॥१॥

धोखा किया मैंने, संसार में मुझसे;

ना कोई मेरा दुश्मन, मैं खुद का शत्रु था;

जो दिखता था ना था, उसके पीछे दौड़ा,

जो ना दिखता मेरा था, उसको छोड़ दिया;

जग से जुदा होकर, उस राह जाना है,

जिसके लिए मानव जीवन ये पाया है… जिनवरा…॥२॥

संसार और मुक्ति, मेरे भीतर ही दिखती,

अपने दु:खों का मैं एकमात्र कारण हूँ;

जिन राग द्वेष को, जिन आपने जीता,

मैने भी संजोया है, उस सत्व का सपना;

पर कुसंस्कारों की बड़ी भारी माया है,

मेरी कसौटी का अब वक्त आया है… जिनवरा…॥३॥

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