जिनशासन गौरव
- Aacharya Shri Jaysundar Suriji Maharaj Saheb
- Jul 12, 2020
- 2 min read
Updated: Apr 12, 2024

नौका चलाने वाला नाविक, बैलगाड़ी चलाने वाला किसान, स्कूटर, मोटर या ट्रेन चलाने वाला Driver, विमान चलाने वाला Pilot – ये सब यदि अनाड़ी हों, कार्यकुशल न हो ;
सेना का नायक, क्रिकेट टीम का कप्तान, किसी संस्था का संचालक या सेक्रेटरी, राजनैतिक पार्टी के प्रमुख, मित्र मण्डल आदि के संचालक, कम्पनी के Directors, समाज के वरिष्ठ, महाजन के मुखिया – आदि यदि अनुभवी और प्रशिक्षित न हों तो,
नाविक से लेकर पायलट, कैप्टन से लेकर महाजन मुखिया, नाव से लेकर विमान और सेना से लेकर महाजन तक कोई भी नष्ट होने से नहीं बचेगा। ये खुद अपना नुकसान तो करेंगे ही, साथ में दूसरों को भी नुकसानी की गर्त में धकेले बिना नहीं रहेंगे।
इसी प्रकार जिनशासन के संचालक, गच्छ के नायक या गच्छाधिपति आदि यदि गीतार्थ और शास्त्रज्ञ ना हो, किस प्रसंग पर अपवाद का सेवन करना – किस प्रसंग में नहीं करना? किसे छूट देनी – किसे नहीं देनी? शासनहित में कार्य कर रहे लोगों के साथ कैसा बर्ताव करना? शासन शत्रुओं के साथ कैसा व्यवहार करना? दीक्षा छोड़ चुके या पासत्था के साथ कैसा व्यवहार रखना और कैसा न रखना? साध्वीजी को क्या पढ़ाना – क्या नहीं पढ़ाना? नूतन मुनि, बाल मुनि एवं वृद्ध मुनियों को कैसे सम्भालना? अन्य महात्माओं को कैसे सम्भालना? साध्वीजी की सार-सम्भाल कैसे रखनी? किस क्षेत्र में किसका विहार करवाना – किसका नहीं करवाना? भक्ष्य-अभक्ष्य क्या है? साधु-साध्वीजी को क्या आवश्यकता होती है, क्या वहोर सकते हैं – क्या न हो? ( क्या नहीं वहोर सकते हैं ?) किसे कौनसे शास्त्र पढ़ाना – कौनसा नहीं पढ़ाना? अन्य धर्मावलंबियों के साथ कैसा व्यवहार रखना, कैसा नहीं रखना? राजा या मन्त्री आदि के साथ कैसा व्यवहार रखना – कैसा न रखना? परिणत श्रावक कौन, अपरिणत कौन और अति परिणत कौन? इन तीनों के साथ कैसा बर्ताव रखना? इत्यादि के सन्दर्भ में जिस महा-पुरुष ने गुरु चरणों में बैठकर शास्त्राभ्यास, सूत्र- अर्थ-तदुभय आत्मसात् किया हो, अनेक आरा-धक-विराधक साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं की प्रकृति का अनुभव किया हो, अलग-अलग क्षेत्रों में विचरण करके उन क्षेत्रों की प्रजा की मानसिकता का अभ्यास किया हो, ऐसे महापुरष यदि गच्छनायक या गच्छाधिपति बनते है तो अवश्य ही इस जिनशासन का, स्व-पर गच्छों का जय-जयकार, विशुद्ध आराधनाओं का प्रचार प्रसार एवं अध्यात्म का पवित्र उत्कर्ष हुए बिना नहीं रहेगा।
मुझे बात करनी है स्व. पूज्य गच्छाधिपति गुरुदेव आचार्य भगवन्त जयघोषसूरि म. सा. की। उपरोक्त वर्णित लक्षण अधिकांशतः गुरु-लघु भाव में इन महापुरुष में अवश्य ही दिखाई देते थे। जब वे गच्छाधिपति बने, तब समुदाय में 200 महात्मा थे, और कालधर्म के समय 625 महात्मा थे। अर्थात् लगभग तीन गुना; इतनी बड़ी संख्या मात्र पुण्य के प्रताप से हुई? पुण्य अवश्य ही प्रभावी था, लेकिन साथ ही कुशलता, दक्षता, चतुराई, किसे किस कार्य में जोड़ना-यह होशियारी, अद्वितीय गीता-र्थता, संविग्नता, परार्थकरण, अपकारी के प्रति उपकार-बुद्धि आदि अनेक सद्गुण के निवासस्थान यह महा-पुरुष थे।
अन्य ग्रुप या समुदाय में साधु-साध्वी की संख्या बढ़ रही है, मेरे ग्रुप में क्यों नहीं आदि छिछोरी सोच या ईर्ष्या तो उनमें ढूंढने पर भी दिखती नहीं थी। कभी किसी की निंदा नहीं, सेवा-वैयावच्च आदि कार्यों में कभी भी अपने – पराए का भेद नहीं देखा।
यथार्थ में ऐसा कहा जा सकता है, कि इन महापुरुष के द्वारा गच्छाधिपति पद की शोभा, गच्छाधिपति पद की गरिमा सैकड़ों गुना बढ़ी।
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