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जिनशासन में अर्थ और काम पुरुषार्थ का स्वरूप क्या है ?

Updated: Apr 12




इस लेखमाला के प्रथम भाग में मार्गानुसारी के 35 गुणों में से पहले गुण ‘त्रिवर्गअबाधा’ का उल्लेख किया था। उसका अर्थ यह था कि धर्म-पुरुषार्थ, अर्थ-पुरुषार्थ एवं काम-पुरुषार्थ इन तीनों के मध्य ऐसा संतुलन बनाये रखना चाहिए कि तीनों में से किसी को भी बाधा न हो। इस त्रिवर्गअबाधा को गुण कहा गया है। इस बात को लेकर किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया कि:

प्रश्न :  श्री उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि चार पुरुषार्थ में एक मोक्ष-पुरुषार्थ साध्य है, और धर्म-पुरुषार्थ इसका साधन है। बाकी के दो पुरुषार्थ मात्र कहने के लिए ही हैं, वास्तविक पुरुषार्थ नहीं है। फिर इस त्रिवर्ग-अबाधा का क्या तात्पर्य हुआ? इस त्रिवर्ग-अबाधा की बात कौन से शास्त्र में कही गई है?

प्रश्न :  क्या व्यापार करने में कोई पाप नहीं लगता? क्या शास्त्रों में इसकी मनाही नहीं है? फिर धर्म करने के लिए पहले पैसे कमाना, फिर उसका धर्म में उपयोग करना, यह बात समझ में नहीं आती। इस विषय में मार्गदर्शन दीजिए। क्या यहाँ अर्थ-पुरुषार्थ और काम-पुरुषार्थ को समर्थन नहीं मिल रहा?

इन प्रश्नों का क्रमशः समाधान देखते हैंः

समाधान : त्रिवर्गअबाधा की बात कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी महाराज विरचित योगशास्त्र (1-52) में इस प्रकार की गई है – ‘अन्योन्याप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयन्’, अर्थात् परस्पर प्रतिबन्ध न हो, बाधा न पहुँचे, इस तरीके से तीनों वर्ग को साधता हो…।

  1. योगशास्त्र में उपरोक्त कथनानुसार अर्थ-पुरुषार्थ और काम-पुरुषार्थ में बाधा न हो, इस हेतु सावधानी रखने की बात कही गई है।

  1. श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अतिरिक्त अन्यत्र भी ऐसी बात आती है कि पुरुषार्थ का अर्थ मोक्ष ही है, बाकी सब तो अनर्थ हैं।

  1. ब इन सबका उचित समन्वय करते हुए रह-स्यार्थ पर विचार करना चाहिए।

एक ओर अर्थ और काम को नाम मात्र के लिए पुरुषार्थ कहा गया या अनर्थ रूप बताया गया है। इससे यह इंगित होता है कि इनमें जितनी बाधा हो, जितनी रुकावट हो, आत्मा को उतना लाभ होगा। और त्रिवर्गअबाधा को, अर्थात् अर्थ और काम को बाधा न पहुँचे, इसे गुण बताया गया है। यानी कि इन्हें बाधा न पहुँचाने से आत्मा को लाभ होगा, ऐसा भी कहा है।

इन दोनों में आपसी विरोधाभास दिखाई दे सकता है, लेकिन एक बात दिल में बिठा लीजिए कि अरिहन्त परमात्मा की बातों में कभी भी विरोधाभास नहीं होता।

कैसे ? आइए, विश्लेषण करते हैं :

मोक्ष आत्मा का शुद्ध स्वरूप है, और संसार इसका अशुद्ध स्वरूप है। अशुद्ध स्वरूप में अनेक अशुद्धियाँ हैं, जिन्हें दूर करना मोक्षमार्ग है। इन अशुद्धियों में से एक अशुद्धि है – लोभ, असीम लोभ। अनीति, अप्रामाणिकता, माया, प्रपंच, षडयंत्र, विश्वासघात, निषिद्ध व्यापार आदि सब लोभ के ही कारण उत्पन्न होते हैं। ऐसे अति-लोभ का निग्रह करना मोक्षमार्ग है। आत्मा में ऐसा निश्चय करना कि लोभ नियन्त्रण में रहे, अमुक मात्र से अधिक संचय न हो, यह मोक्षमार्ग है।

ऐसा व्यापार जिसमें राष्ट्रद्रोह हो, प्रजाद्रोह हो, कर्मादान हो, बहुत अधिक आरम्भ-समारम्भ हो या निंद्यता हो, उसमें भले ही अच्छी कमाई होती हो, किन्तु मेरे प्रभु ने मना किया, इसलिए मैं ऐसे व्यापार नहीं करूँगा। यदि यह तय कर लिया तो लोभ पर वार होगा। यदि थोड़ा झूठ बोलने या थोड़ी अनीति करने से कुछ हजार रूपये अधिक मिलते हैं, लेकिन फिर भी ऐसी अनीति न करने वाला व्यक्ति अपनी आत्मा का सुन्दर सुसंस्करण करता ही है।

इसी प्रकार यदि नौकरी करने वाला व्यक्ति नियत समय तक काम करता है, समय की पाबन्दी रखता है, कामचोरी नहीं करता, पैसे की चोरी नहीं करता, बीच में कमीशन नहीं रखता, हिसाब में घोटाले नहीं करता, कम्पनी के काम से बाहर यात्रा पर जाते समय सेकेंड क्लास में यात्रा करके फर्स्ट क्लास के पैसे नहीं लेता, (बाकी सभी लेते होंगे, लेकिन मैं नहीं लूँगा), दूसरी जगह डेढ़ गुनी अधिक सेलरी का ऑफर है, लेकिन मेरी जिनपूजा आदि नित्यक्रम डिस्टर्ब हो जाएगा, इसलिए मुझे नहीं करनी, आदि ऐसी सावधानी रखने से आत्मा का सुसंस्करण क्यों नहीं होगा? अवश्य होगा। बड़े-बड़े प्रलोभनों में न फंसने से सत्व का विकास क्यों नहीं होगा। जो पूरे दिन सामायिक करे, और नौकरी-धन्धा करने की जगह भिक्षा ले, क्या उसे ऐसे संस्करण प्राप्त होंगे ?

1444 ग्रन्थों के रचयिता श्री हरिभद्रसूरि ने कहा है कि क्रिया ही भावना की जननी है, यह हमें नहीं भूलना चाहिए।

इस प्रकार की सावधानी रखने वाले नौकरी-धन्धा करते हुए भी आत्मा को भावित करते हैं, लोभ को नियन्त्रित करते हैं, आत्मा में अनादिकाल से पड़े अनीति और असत्य के संस्कारों का घात करते हैं, इसे अनर्थ रूप या मात्र नाम का पुरुषार्थ कैसे कह सकते हैं ?

लेकिन इसके विपरीत येन-केन-प्रकारेण धन कमाना, चाहे जैसे निंद्य, देशद्रोह, प्रजाद्रोह वाले व्यापार करना, निषिद्ध व्यापार करना, नौकरी करते हुए समय की चोरी, कामचोरी, कमीशन, फर्जी बिल बनाकर पैसे लेना आदि किया गया अर्थ-पुरुषार्थ अनर्थ रूप है।

इसी प्रकार यदि कुछ गलत न किया हो, नैतिकता और प्रमाणिकता बनाए रखी हो, लेकिन यदि वह धर्म-पुरुषार्थ या काम-पुरुषार्थ को बाधा पहुँचाता हो, तो यह अनर्थ है, क्योंकि यह त्रिवर्गअबाधा गुण का नाश है। यदि सन्तानों ने व्यापार अच्छे से सम्भाल लिया हो, जीवन निर्वाह की कोई समस्या न हो, अच्छी सम्पत्ति भी है, निवृत्ति की आयु भी आ गई, लेकिन फिर भी व्यापार की आदत नहीं जा रही, कोई प्रयोजन नहीं है, फिर भी रोज दुकान जा रहे हैं, बाजार जाए बिना चैन नहीं मिलता और अवसरोचित साधना या संघ के कार्य नहीं कर सकते, उसमें कोई रुचि ही नहीं है तो व्यापार में हुई ऐसी रुचि का जनक यह अर्थ-पुरुषार्थ भी अनर्थ रूप है।

यही बात काम पुरुषार्थ में भी समझ लेनी चाहिए। सत्व और भाव की अल्पता के कारण जिसे वासना की तीव्रता सताती हो, सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य की भूमिका नहीं है, ऐसा जीव वासनाओं के नियन्त्रण हेतु विवाह करे और स्वदारा सन्तोष की सीमा में रहे, अर्थात् पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्री को माता, बहन या पुत्री तुल्य माने, और यथासम्भव उनके सम्पर्क से दूर रहे, बात करनी पड़े तो जल्दी से खत्म करे, हंसी-मजाक और एकान्त में मिलने का तो बिलकुल निषेध करे, स्वपत्नी के साथ भी वाणी-मर्यादा रखे, पांच तिथि या बारह तिथि ब्रह्मचर्य का पालन करे तो धीरे-धीरे वह वासना पर नियंत्रण प्राप्त करके सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य की ओर जा सकता है। क्योंकि वह वासना विजय करते हुए आत्मा का संस्करण कर रहा है।

प्रश्न : कामवृत्ति से यह संस्करण नहीं हो सकता, किन्तु अन्य स्त्रियों के प्रति संयम, स्वस्त्री के साथ पांच या बारह तिथि ब्रह्मचर्य पालन, ‘स्त्री का शरीर अशुचि है’, ‘विषय खराब हैं’, ‘विषय क्षणभंगुर हैं’, ‘विषयों से तृप्ति नहीं बल्कि अतृप्ति बढ़ती है’, ‘भोग से वासना की अग्नि शान्त नहीं होती, उल्टे यह अग्नि में घी डालने जैसा है’ ऐसे विचार करने से आत्मा भावित होती है। अतः इस रोकथाम को पुरुषार्थ कहने में परेशानी नहीं, लेकिन कामवृत्ति को काम पुरुषार्थ कहने की क्या जरूरत है ?

समाधान : मात्र स्वस्त्री के साथ भोगवृत्ति से वासना पर विजय हो जाएगी, मैंने ऐसा नहीं कहा। क्योंकि ऐसा होता तो सभी विवाहित लोग वासना पर विजय प्राप्त कर चुके होते। अन्य स्त्रियों के प्रति संयम आदि का भाव होना ही चाहिए। इसकी अधिक आवश्यकता है, और इसी से वासना पर विजय मिलेगी। किन्तु जीव की भूमिका ऐसी होती है कि विवाह किए बिना, मर्यादित भोग प्रवृत्ति बिना यह करना सम्भव नहीं लगता। तूफान मचा रहे वासना के भूत को भोग की थोड़ी बलि देने से तूफान एक बार शान्त हो सकता है। इसके बाद उसे उपरोक्त वर्णित भावनाएँ विकसित करनी होती हैं। यदि यह किए बिना इस तूफान को शान्त करना सभी जीवों के लिए सम्भाव्य होता, तो प्रभु सब जीवों के लिए यही मार्ग बताते और समस्त आत्मार्थी जीवों के लिए ऐसी भावनाओं द्वारा वासना पर विजय प्राप्त करके सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य कर देते।

किन्तु प्रभु ने ऐसा नहीं बताया। प्रभु ने ऐसे जीवों के लिए त्रिवर्गअबाधा रूपी उचित विवाह को भी गुण के रूप में सूचित किया। स्वदारा सन्तोष और परस्त्री त्याग को श्रावक का अणुव्रत बताया। इसलिए हमें यह स्वीकार करना है कि ऐसे जीव स्वदारा सन्तोष के द्वारा ब्रह्मचर्य तक पहुँचते हैं तो इसमें उसके काम-पुरुषार्थ का भी हिस्सा है। इसलिए यह अनर्थ रूप नहीं होता।

किन्तु सदाचार को किनारे रखकर बेरोकटोक भोग-विलास करना अनर्थ है। इसी प्रकार धर्म और अर्थ पुरुषार्थ में बाधा बने, स्वस्त्री के साथ किया गया ऐसा भोग-विलास भी अनर्थ ही है। यदि आयु अधिक हो चुकी है, शरीर भी साथ नहीं देता, या इसके अतिरिक्त भी थोड़ी भावना और थोड़ा सत्व लगाने पर सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन किया जा सकता है, फिर भी भोग-विलास को तिलांजलि न देना भी अनर्थ है।

संक्षेप में, वासना को उत्तेजना देने वाले भोग-विलास अनर्थ हैं, और इस पर विजय दिलाने वाले भोग-विलास पुरुषार्थ रूप हैं।

हमें यह समझना है कि यहाँ ‘धर्म’ ‘धर्म-स्वरूप’ में भी ‘अर्थ’ रूप है और ‘गुणजनक’ के रूप में भी ‘अर्थ’ रूप है, लेकिन ‘अर्थ और काम’ इस स्वरूप में ‘अर्थ’ रूप नहीं हैं, किन्तु नीति या सन्तोष आदि गुणों के जनक के रूप में वे क्रमशः ब्रह्मचर्य गुण के जनक बनते हैं, इसलिए ‘अर्थ’ रूप हैं।

समाधान : अर्थ-प्रवृत्ति, कामप्रवृत्ति और हिंसा आदि के कारण पापों का बन्ध होता है। फिर भी ‘अप्पोसि होइ बंधो…’ के न्याय से अल्प-पाप का बन्ध होता है। फलस्वरूप मोक्ष के प्रणिधान रूपी निरुपायित गुणप्राप्ति के प्रणिधान के प्रभाव से पुण्य और शुभ अनुबन्ध होते हैं, अर्थात् यह पुण्यानुबन्धी पाप है, जो अनुक्रम से जीव को मोक्ष तक पहुँचा सकता है,  इसलिए यह ‘अर्थ’ रूप है।

शास्त्रों में न्याय-सम्पन्न वैभव को भी गुण बताया गया है। श्रावकों की दिनचर्या में व्यापार को भी उचित स्थान दिया गया है, और कर्मादान आदि का निषेध भी किया है। अतः उचित व्यापार करने की शास्त्रों में मनाही नहीं है। सामान्यतः धर्म करने के लिए व्यापार करना है, ऐसा नहीं है। ग्रन्थकारों ने भी ऐसी बात नहीं कही है। श्रावक अपने जीवन निर्वाह के लिए कमाए हुए पैसे में से धर्म पर खर्च अर्थात् सदुपयोग करे, ऐसा उपदेश अवश्य दिया गया है।

जैसे, ‘श्रावक को पानी छानकर पीना चाहिए’ ऐसा शास्त्रों में लिखा है, इसलिए श्रावक पानी पी रहा है, ऐसा नहीं है। यदि शास्त्रों में नहीं लिखा होता, फिर भी श्रावक पानी तो पी ही रहा होता, किन्तु शास्त्र वचन के कारण जो पानी वह ऐसे ही पी रहा था, वह अब छानकर पानी पिएगा। शास्त्र वचन पानी पीने के समर्थन में नहीं है, बल्कि छानने के समर्थन में है। इसी प्रकार किसी भी शास्त्र वचन के बिना सभी लोग व्यापार या भोग-विलास कर ही रहे थे, किन्तु अब न्याय सम्पन्न वैभव, उचित विवाह, त्रिवर्गअबाधा आदि शास्त्र वचनों के कारण श्रावक अपनी अर्थ और काम की प्रवृत्तियों में भी नीति, सदाचार, संयम आदि का उचित मिश्रण करता है।

अतः  यह बात अब स्पष्ट चुकी है कि शास्त्रों द्वारा इस नीति और सदाचार का समर्थन किया गया है, अर्थ और काम का नहीं।

इन सभी बातों पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए, ऐसी मैं सबको प्रेरणा करता हूँ।

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