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जीव बिना सुख के नहीं रह सकता है।

Updated: Apr 8




हमने पिछले लेख में देखा था कि कोई भी व्यक्ति, वस्तु या प्रवृत्ति जीव को सुख नहीं दे सकती, ना ही दे रही है, बल्कि जीव का खुद का रस ही खुद को सुख देता है।

मंदोदरी ने रावण को स्वर्ग जैसा सुख ही दिया था, पर रावण को सीताजी में रस पैदा हो गया। वह मिले तो स्वर्ग, ना मिले तो मंदोदरी के साथ सभी रानियाँ फीकी-फीकी। इसका सूचितार्थ स्पष्ट ही है कि, ना ही मंदोदरी सुख देने वाली है, और ना ही सीता सुख देने वाली है। रावण का रस ही उसे सुख दे सकता है। 

हमारे शास्त्रों में एक कुमारनंदी सोनी की बात आती है।

वह अरबपति श्रीमंत था, ऊपर से वासना का कीड़ा था। जो भी रूपसुंदरी दिखती उसके साथ ब्याह कर लेता था, और उसके माँ-बाप को 500 सुवर्णमुद्राएँ भी दे देता था। इस तरह उसकी एक से बढ़कर एक रूपवान 500 पत्नियाँ थीं। वह उनके साथ भोगविलास में मशगूल रहता था और उसी में अपने जीवन की सफलता और धन्यता मानते हुए वह खुद को बहुत सुखी मानता था। 

इस तरफ पंचशैल द्वीप का अधिष्ठायक विद्युन्माली देव का देवायु पूर्ण होने पर च्यवन हो गया। उसकी दो देवियाँ थी, हासा और प्रहासा। वे दोनों भी बहुत कामांध थी। इसलिए उन्होंने सोचा कि उस देव के स्थान पर खुद के स्वामी के रूप में जो देव आए, वह भी कोई कामांध जीव ही होना चाहिये। अपने अवधिज्ञान से उन्होंने कामांध जीव के रूप में कुमारनंदी सोनी को देखा। इन दो देवियों ने अपना रूप कुमारनंदी को दिखाया। इनका रूप, कान्ति, तेज आदि देखकर कुमारनंदी पानी-पानी हो गया और देवियों के पास विषयसुख की याचना की। ‘पंचशैल द्वीप पर आ जाना’ सिर्फ इतना कहकर देवियाँ अंतर्ध्यान हो गई।

कुमारनंदी का रस अब हासा-प्रहासा में उत्पन्न हो गया। अब उसे 500 पत्नियाँ बिलकुल असार और तुच्छ लगने लगी। 500 पत्नियों का सुख उड़ गया। हासा-प्रहासा के बगैर वह बेचैन और उदास रहने लगा। 500 पत्नियाँ वैसी ही जवान हैं, रूपवान हैं, भोगवासना को संतुष्ट करने में सक्षम है। लेकिन कुमारनंदी को उन 500 में अब सुख क्यों नहीं लगता ? यह हर एक विचारक को शांत-मन से सोचना चाहिये। 

कथा लंबी है, उसमें से सिर्फ महत्व की बात देखेंगे।

उसने वृद्ध नाविक को Advance में 1 करोड़ सुवर्ण मुद्राएं दी, वह पंचशैल द्वीप पर पहुँचायेगा कि नहीं यह अनिश्चित होने पर भी… 

जरा सी गलती हो जाये तो प्राण भी गँवाना पड़ सकता था। फिर भी ऐसा जोखिम मोल लिया, और पंचशैल द्वीप पर पहुँच गया। हासा-प्रहासा के कहने पर जीते-जी अग्नि में जल मरा। नियाणा (संकल्प) करके पंचशैल द्वीप पर नये ‘विद्युन्माली देव’ के रुप में उत्पन्न हुआ। हासा-प्रहासा मिल गई, खुद को धन्य-धन्य समझने लगा। उन दो देवियों के साथ भोगसुख में डूब गया। 

पर एक अवसर पर उसने अन्य देवियों तथा इन्द्र की इन्द्राणियों को देखा। उन देवियों आदि के रूप-तेज के आगे हासा-प्रहासा एकदम फीकी लगने लगी। हासा-प्रहासा को पाकर खुद को सौभाग्यशाली मानने वाला कुमारनंदी का जीव अब खुद को ‘फंस गया’ ऐसा मानने लगा। 

हासा-प्रहासा बिलकुल वैसी की वैसी होने पर भी, अब सुख देने वाली क्यों नहीं लग रही? क्योंकि अब उसका उनमें रस नहीं रहा था।

इसलिए इस बात को अपने दिमाग और दिल में दृढ़ कर लीजिए कि, कोई भी व्यक्ति, वस्तु या प्रवृत्ति सुख देने वाली नहीं होती हैं। पर उसमें जो खुद का रस होता है, रुचि होती है वो ही सुख देने वाली होती है। उसमें भी, रस जितना ज्यादा तीव्र हो, उतना सुखानुभव ज्यादा होता है। भोजन के रूप में रोटी और मिठाई दोनों में रस है, फिर भी रोटी से मिठाई में ज्यादा रस हो, तो मिठाई ज्यादा सुखद लगती है। जब मुँह भर जाये तब मिठाई में रस ना रहने पर मिठाई नहीं, रोटी ही सुख देने वाली लगती है। 

यदि यही वास्तविकता है तो ज्ञानी कहते हैं कि, जीव को सुख तो चाहिये ही, क्योंकि जीव बिना सुख के नहीं रह सकता है। और सुख के लिए रस भी चाहिये ही। तो रस ऐसी चीजों में ही रखना चाहिये, कि जो, जीव को सुख देने के साथ-साथ आत्मा का भी कल्याण करे।

विषय-कषाय तो ऐसी चीजें है, जो आत्मा की कब्र खोद देते हैं। पर उसका रस तो जीव को अनादि-काल से है, इसलिए उसे तोड़ना है। और विषय-कषाय से पराङ्गमुखता का रस पैदा करना है, जो जीव को उपशम भाव का सुख देने वाला है।

इसके लिए फुरसत की पलो में विषय-कषाय के तूफानों को रोककर प्रभुभक्ति, स्वाध्याय, सामायिक, जाप आदि करने चाहिये। मन को मारकर भी करना चाहिये। मन की एक विशेषता यह है कि पहली बार उसे जितना मारना पड़ता है, उतना दूसरी बार नहीं मारना पड़ता है। तीसरी बार तो उससे भी कम मारना पड़ता है। जब-जब फुरसत मिले, तब-तब हर समय पर इस तरह मन को मारकर भी प्रभुभक्ति आदि यदि किया जाये तो 8-10-12 बार के बाद ऐसी परिस्थिति आ जाती है कि अब जीव जैसे ही प्रभुभक्ति आदि की इच्छा करता है, तो तुरंत ही किसी भी प्रकार के विरोध के बिना ही मन उसके लिए तैयार हो जाता है। ऐसा 8-10-12 होने के बाद ऐसी भूमिका बनती है कि मन अब स्वयं जीव को प्रेरणा करता है कि, Free-time मिला है, चलो प्रभुभक्ति आदि करते हैं। 

अब जब प्रभुभक्ति आदि का रस पैदा हो जाए, तो उसमें आनंद का अनुभव भी होता रहता है, और इसीलिए जीव बार-बार प्रभुभक्ति करता रहता है। सुख का सुख, और आत्मा को अपरंपार लाभ।

इसलिए हमारा जो मूल प्रश्न था कि –

ऐसे पुण्यशाली जीव, जिनको जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक धन से बहुत ज्यादा धन मिलने के बाद भी रोज के दो-चार घंटे का जो Extra-time मिलता है, उन्हें इस बचे हुए समय में धर्म बढ़ाने का उपदेश गुरु भगवंत क्यों देते है? उसका जवाब सभी की समझ में आ गया होगा।

और यह विशेष धर्म ऐसी चीज है, कि इसमें नुकसान किसी को नहीं है। बल्कि लाभ दूसरे धर्मात्माओं को और समाज के लिए भी संभव बनता है। उसके बदले विषय-कषाय में (T.V., मोबाइल आदि में) खाली समय का उपयोग करने वाला व्यक्ति किसी दूषण या दुराचार का भोग बन जाने के कारण समाज आदि के लिए नुकसान करने वाला भी बन सकता है। इस प्रकार खाली समय में धर्म करने वाला स्व-पर सभी के लिए लाभकर्ता हो जाने के कारण गुरु भगवंत उसका उपदेश देते हैं। 

हाँ, जो ऐसे पुण्यशाली नहीं है, और इसलिए जीवन निर्वाह भी जैसे-तैसे करते हैं, उनको तो खाली समय बिलकुल ना मिलने पर उसका उपयोग किसमें करना है? ऐसा प्रश्न ही नहीं उठता है। फिर भी उनको यदि थोड़ा बहुत भी खाली समय मिलता हो तो उसका उपयोग उनको भी स्वप्रायोग्य धर्म में ही करना चाहिये। उससे ही, कम कमाई में भी संतोष से रहने का सीखने को मिलता है। धन की मात्रा अधिक ना होने से, कईं सांसारिक साधन नहीं ले पाने पर भी दीनता के बिना मस्ती से ही जीने का ज्ञान मिलता है। सत्संग आदि के प्रभाव से, यह सब सीखने के साथ ईर्ष्या आदि से और अनीति आदि से बचा जा सकता है। खाली समय में किया गया सद्वांचन अनेक प्रकार के आर्तध्यान, संकल्प-विकल्पों से हमें बचाकर मन को शांति प्रदान करता है। इन सभी के प्रभाव से उसका परलोक भी सुधर जाता है।

बाकी, यदि जीव खाली समय मिलने पर T.V. पर सिरीयल आदि देखेंगे तो उन सिरीयलों के पात्रों की Hi-Fi Lifestyle बार-बार देखते रहने से खुद भी ऐसी जीवन पद्धति की तीव्र इच्छा करने वाले बन जाते है। पर पुण्य का साथ ना मिलने पर मिलता कुछ मिलेगा नहीं, इसलिए दिल में भयंकर जलन-अगन पैदा होगी। और यदि अविवेक जागृत हो गया तो कईं गुनाहित प्रवृत्तियों के भोग बन सकते हैं, जो उसके आलोक-परलोक दोनों को बिगाड़ते हैं। 

जिसकी सजा फाँसी या आजीवन कारावास हो ऐसे भयंकर गुनाह करने वाले नाबालिग लड़कों की तहकीकात के दरमियान बाहर आया है कि, कोई सिनेमा या कोई सिरीयल देखकर उनको ऐसा गुनाह करने की प्रेरणा मिली थी। ये सारी बातें जगजाहिर हैं। किसी को समझाने की जरूरत नहीं है।

पर फुरसत के समय में प्रभुभक्ति आदि का बगीचा नहीं बनाने वालों के पास T.V., मोबाईल आदि कचरों का ढ़ेर ही बचा रहता है, और इसीलिए ऐसे गुनाह आदि की संभावना कईं गुना बढ़ जाती है। 

प्रश्न : पर जिसके खर्चे भी पूरे नहीं होते है, ऐसा जीव विशेष धर्म तो कहाँ करने वाला है?

उत्तर : देरासर में जाकर प्रभुभक्ति कर सकता है, व्याख्यान श्रवण कर सकता है, सामायिक कर सकता है, सद्वांचन कर सकता है, नवकार जप सकता है, संघ में स्वप्रायोग्य सेवा दे सकता है इत्यादि। इन सभी से पुण्य जागृत हो जाये तो खर्चे में जो कमी पड़ती हो वह भी दूर हो सकती है। 

प्रश्न : पर जो कमजोर पुण्य वाले हैं उनको खाली समय ही ना मिलता हो तो? 

उत्तर : उसको भी थोड़ा आगे-पीछे Adjustment करके भी प्रभुपूजा रोज करनी चाहिये। अपने नौकरी-धंधे के स्थान पर और अन्यत्र भी आते-जाते समय पर इधर-उधर भटकने के बजाय संभव हो तो सद्वांचन करना चाहिये। और जीभ भी ना हिले उस तरह मन में नवकार का जाप करते रहना चाहिये। कभी बस-ट्रेन के लिए, या कोई अफसर-डॉक्टर आदि के लिए राह देखनी हो, उस समय भी ऐसे सद्वांचन आदि करना चाहिये। पर मन को बेकार नहीं रखना है, शैतान का कारखाना नहीं बनने देना है। और ऐसे अवसर पर T.V. मोबाइल के हवाले करने के द्वारा उन पापों के रस को ज्यादा से ज्यादा तीव्र नहीं बनाना चाहिये। 

अपने स्वजन, अड़ोस-पड़ौस, मित्र-वर्तुल, सहकार्यकर आदि के साथ के व्यवहार में दंभ, कपट, ठगाई आदि को Avoid करना चाहिये। सर्वत्र यथायोग्य औचित्यपूर्वक व्यवहार रखना चाहिये।

अपने काम-धंधे आदि में नीति-प्रामाणिकता बरकरार रखनी चाहिये। किसी के साथ फरेब आदि नहीं करना चाहिये। 

प्रश्न : पर जो नौकरी करने वाले हैं उनके लिए नीति-प्रामाणिकता  क्या होनी चाहिए ? 

उत्तर : उसे भी अनेक प्रकार की चोरी आदि को टालना चाहिये वही उसकी नीतिमत्ता है। उसकी बात हम आने वाले लेख में देखेंगे।

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