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Hello friends,
मानो या ना मानो, आप सभी बालकों को चाहिए कि आप मुझे दिल से धन्यवाद दें। क्योंकि आप जब छोटे थे, तब आपको किसी ने साइकिल चलाना सिखाया था, जब आपको चलाना आ गया तो आपने उनको बोला था – शुक्रिया।
जब आप पढ़ते थे, और आप से कोई हार्ड सम सॉल्व नहीं हो रहा था, तब आप के किसी मित्र ने आपको वह थियरी समझाई और आपने उसे कहा था – धन्यवाद।
आप बड़े हुए, किसी ने आपको धंधे की टिप्स समझाई, आपने उससे भी कहा – थैंक यू सो मच। परंतु हमने तो यहाँ आपको वह सिखाया जो आपको साक्षात् भगवान ही बना दे। हमारे बताए हुए रास्ते पर यदि आप चलो तो आप स्वयं भगवान बन जाओगे। अभी बताइए आपको हमें शुक्रिया बोलना चाहिए या नहीं?
अभी हमने आपको यह सब बताया, आपने सुना और आपका ज्ञान बढ़ा। आपने कुछ ऐसा ज्ञान पाया जिसे अमल में लाने से आप अपना भला कर सकते हैं। खुद की भलाई की बात हमने आपको बताई। पर सिर्फ हमारे या किसी के बताने मात्र से किसी का कल्याण नहीं हो पाता। पहले नंबर की बात यह है कि उसको सुनना पड़ता है, फिर मानना पड़ता है और फिर अपनाना पड़ता है।
सुनना यानी सम्यग्ज्ञान, मानना यानी सम्यग्दर्शन और अपनाना यानी सम्यग्चारित्र। सम्यग् ज्ञान-दर्शन-चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है।
भगवान महावीर स्वामी जी के शिष्य गणधर सुधर्मा स्वामी जी अपने शिष्य जंबू स्वामी जी को बताते हैं, ‘सुअं मे आउसं! तेणं भगवया एव-मक्खायं’ अर्थात, हे आयुष्यमान जंबू! मैंने सुना है, उस भगवान महावीर स्वामी ने ऐसा कहा है…
आज हम जो कुछ भी आपको बताते हैं, वह सभी भगवान महावीर के पास गणधरों ने सुना, उनसे उनके शिष्यों ने सुना, उनसे हमारे पूर्वजों ने सुना, और उनसे हमने सुना। और आज हमसे आपने सुना, इस प्रकार ‘सुनने’ की परंपरा चली।
सुनना, इसे संस्कृत में ‘श्रुत’ कहते हैं। सबसे महानतम व्यवसाय है, सुनना। सुनते-सुनते ही इंसान भगवान बन सकता है। परंतु मुझे कहने दीजिए कि, आज के जमाने में कोई भी, किसी का भी, कुछ भी, सुनने को ही राजी नहीं है।
सभी को एक दूसरे को कुछ ना कुछ सुनाना है, जताना है, बता देना है, सिखा देना है, दिखा देना है; पर किसी को किसी का कुछ भी सुनना नहीं है।
भगवान कितनों का सुनते हैं, सभी का तो सुनते हैं। जो सभी जीवों का सुनता है वह भगवान से कम नहीं।
चाहे किसी और का न सुने, गैरों का, औरों का न सुने, परंतु जो हमारे बड़े हैं, हमारे हितैषी हैं, हमारी उन्नति में जिनको आनंद है, हमारे मित्र हैं, माँ-बाप हैं, गुरु हैं, शिक्षक हैं, अगर इनका भी नहीं सुनोगे तो क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इसका ज्ञान कैसे मिलेगा?
एक छोटा सा प्रसंग याद आ रहा है, एक महाराज साहब जी को एक गुरु महाराज ने बहुत खरा-खोटा सुना दिया। उन महाराज जी का वास्तव में दोष नहीं था, यहाँ तक कि उनको तो पता भी नहीं था कि मामला क्या है, फिर भी उन्होंने नतमस्तक होकर सुन लिया।
शाम ढली, और साथी मुनिवर ने आकर कहा, “महाराज श्री! आपने बिना गलती के सब सुन क्यों लिया? ऐसा अन्याय नहीं चलता, दोष किसी का और सुनना आपको पड़ा!”
मुनिश्री ने मुस्कराकर कहा, बहुत बार हमने गलती की थी लेकिन किसी ने नहीं सुनाया था। आज गलती नहीं की, फिर भी सुनना पड़ा, तो हिसाब बराबर हो गया। सुनने से डरना नहीं चाहिए, जितना सुनोगे उतना सीखोगे, उतना ही लिखोगे और जिंदगी में आगे बढ़ोगे। तो आगे बढ़ना है तो ‘श्रुत’ की, ‘सुनने’ की आराधना करो।“
और वाकई में वे महाराजश्री आगे बढ़े, 600 साधुओं के गुरु बने। वे थे स्वनामधन्य गच्छाधिपति श्री जयघोषसूरीश्वरजी महाराजा। सुनने से इस भव में महान बनिए, और अगले भव में भगवान।
॥ श्रुत पद ॥
(ना कजरे की…)
मन बेसहारा है, श्रुत से ही सहारा है;
जीवन की थमी है डोर, श्रुत से ही उजियारा है.
केवलज्ञानी खुद भी तो, श्रुत का आदर करते हैं;
जिसके जरिये भी हम को, वे ज्ञानदान करते हैं;
श्रुत है तो जिंदगी है, श्रुत बिन जीना दुश्वार ॥१॥
जब केवलज्ञान का सूरज, ना हो तब श्रुत दिया है;
जीवन की हर मुश्किल को, श्रुत ने आसान किया है;
मेरा मकसद श्रुत की पूजा, श्रुत दो जन्मों का सार… ॥२॥
चुटकी भर में नामुमकिन को, ये मुमकिन करता है;
जो उसकी राह पर चलता, वो न किसी से डरता है;
बहती हवा भीगी जमीं, श्रुत ज्ञान का करें बयान… ॥३॥
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