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तेणं कालेणं तेणं समएणं

Updated: Apr 12, 2024




कार्तिक अमावस की रात्रि के दो प्रहर बीत चुके थे, तीसरा आरा समाप्ति की कगार पर था, सोलह प्रहर से भी अधिक समय तक समवसरण में लगातार देशना देकर प्रभु ने विराम लिया तो मानो गंगा का प्रवाह थम सा गया, मानो मन्दिर में घण्टनाद रुक गया हो।

प्रभु की अन्तिम देशना पूर्ण हुई। रत्न-सिंहासन से प्रभु उठे और समवसरण के तीन गढ़ उतर कर प्रभु राजा हस्तिपाल की शुल्कशाला में पधारे।

प्रभु अपने ज्ञान से जानते थे, कि आज रात्रि पूर्ण होने से पूर्व मेरा मोक्ष होगा। गौतम स्वामी का अपने प्रति असीम स्नेह है यह भी प्रभु जानते थे, और यह स्नेह ही गौतम स्वामी के केवलज्ञान में बाधा डाल रहा है, इसलिए ‘मुझे गौतम के इस स्नेह को तोड़ना चाहिए’ ऐसा केवलज्ञान चक्षु से देख कर प्रभु ने गौतम स्वामी को निकट के गाँव भेजने का, अन्त समय में स्वयं से दूर भेजने का निर्णय लिया। 

हस्तिपाल राजा की शुल्कशाला में प्रभु का आगमन : 

  1. शुल्कशाला में प्रभु के समक्ष हजारों श्रमण विराजमान थे। गौतम स्वामी अग्रिम पंक्ति में बिराज रहे थे। अनन्त करुणासागर प्रभु ने गौतम स्वामी की ओर दृष्टि स्थिर करते हुए कहा, “गौतम! (गोयमा !)”

  1. प्रभु के मुख से गौतम स्वामी को यह अन्तिम सम्बोधन था, यह सिर्फ शब्द नहीं, अपितु कोयल की मधुर कूज थी, यह सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि समुद्र की लहरों का संगीत था। प्रभु के श्रीमुख से अपने नाम का सम्बोधन सुनते ही गौतम स्वामी हर्षान्वित हो गए।

  1. विनयमूर्ति गौतम स्वामी का रोम-रोम नाचने लगा। दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाते हुए वे प्रभु के चरणों में उपस्थित हुए। अत्यन्त मृदुस्वर में बोले, “भंते ! कृपा कीजिए ! आज्ञा कीजिए !”

  1. प्रभु बोले, “समीप के गाँव में देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता है, वह तुम्हारे द्वारा बोधि प्राप्त करेगा, अतः उसके कल्याण के लिए तुम्हें वहाँ जाना है।”

देवशर्मा को प्रतिबोध देने हेतु गौतम स्वामी की विदाई : 

“जैसी आपकी आज्ञा प्रभु ! आपने मुझ पर अनन्त कृपा की, मैं धन्य हुआ।” कहते हुए गौतम स्वामी शीश झुकाकर शुल्कशाला से बाहर निकले। चार ज्ञान के स्वामी गुरु गौतम को यह ध्यान भी नहीं रहा कि ये दर्शन अन्तिम दर्शन हैं। अब प्रभु का ऐसा तेजस्वी औदारिक देह पुनः देखने को नहीं मिलेगा। किन्तु प्रभु की आज्ञापालन के अतिरिक्त गौतम स्वामी को और कुछ दिखाई नहीं देता। अस्सी वर्ष के गौतम स्वामी अट्ठाईस वर्ष के युवक जैसी फुर्ती दिखाते हुए देवशर्मा को प्रतिबोध देने हेतु और प्रभु-वचन को सार्थक करने हेतु अपापापुरी से बाहर निकल पड़े।

कार्तिक अमावस्या का तीसरा प्रहर पूर्ण हुआ। चतुर्थ प्रहर शुरू हुआ, उस समय स्वाति नक्षत्र में चन्द्र का योग था। प्रभु को चौविहार छठ का तप था, जो उनका अन्तिम तप था। प्रभु की साधना का प्रारम्भ भी छठ से हुआ, और पूर्णाहुति भी छठ से हुई। प्रभु ने सोलह प्रहर की देशना अभी-अभी पूर्ण की ही थी। तीर्थंकर नामकर्म के कारण प्रभु के मुख पर खेद या ग्लानि का तनिक मात्र भी अंश दिखाई नहीं दे रहा था। सूर्यमुखी के फूल की भाँति प्रभु का शरीर अत्यन्त स्वस्थ था, प्रभु के मुख पर सौम्यता एवं प्रसन्नता थी। आयुष्य पूर्ण होने में बस कुछ ही समय बाकी था। सुधर्मा स्वामी आदि हजारों श्रमण, चन्दना आदि अनेक श्रमणियाँ, काशी तथा कौशल देश के लिच्छवी जाति के नौ राजा, तथा मल्लिक जाति के नौ राजा, इस प्रकार अठारह गणराज्यों के राजा तथा अनेक श्रावक एवं श्राविकाएँ प्रभु के सम्मुख उपस्थित थे। ये अठारह राजा चेटक (चेड़ा) राजा के सामन्त थे। अमावस के दिन वे सभी उपवास के साथ पौषध में थे।

प्रभु की धर्म–देशना का पुनर्प्रारम्भ : 

समवसरण में विराम को प्राप्त प्रभु की वाणी का प्रवाह फिर से बहने लगा। प्रभु की इस धर्म-देशना का मुख्य विषय था – ‘विपाक’। विपाक का अर्थ है ‘फल’, विपाक अर्थात् शुभाशुभ कर्म परिणाम, विपाक अर्थात् पुण्य एवं पाप कर्मों का फल। जो आत्मा पाप करती है, उसे दुःख प्राप्त होते हैं, और जो आत्मा पुण्य करती है, उसे सुख प्राप्त होते हैं। या फिर, कर्म के फल के रूप में अनुकूलता प्राप्त हो, तो यह पुण्य का परिणाम है, और प्रतिकूल अनुभव पाप का परिणाम है।

पाप विपाक अध्ययन :

यह सदैव ध्यान देने योग्य है, कि जीव ने जो भी कर्म बाँधे हैं, उनका फल उसे इसी जन्म या अगले जन्मों में भुगतना ही पड़ता है। अनन्तज्ञानियों का वचन है, “कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थि।” अर्थात् किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना आत्मा की मुक्ति सम्भव नहीं है।

समान्तः  सुख सबको प्रिय होता है और दुःख कोई नहीं चाहता। जिसे दुःख नहीं चाहिए उसे पापाचरण नहीं करना अतः इसलिए अन्याय, अत्याचार, वेश्यागमन, प्रजा-पीड़न, रिश्वतखोरी, पंचेन्द्रिय की हिंसा, निरपराधी पशुओं को प्रताड़ना, मद्यपान, कषाय, स्वार्थवृत्ति, भोग-आसक्ति, यज्ञ, मांस-भक्षण, निर्दयता, चोरी, कामवासना आदि अधम कृत्यों का त्याग करना आवश्यक है। जो व्यक्ति ऐसे अधम कार्य करता है, वह घोर कर्म बाँधता है, फलस्वरूप नरक आदि दुर्गति में उत्पन्न होकर भारी दुःख सहन करता है। यहाँ मृगापुत्र का दृष्टान्त प्रसिद्ध है। ऐसा कहकर प्रभु ने पापविपाक के 55 अध्ययनों की प्ररूपणा प्रारम्भ की।

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