माता त्रिशला रानी ने जब चैत्र शुक्ल त्रयोदशी की रात्रि में प्रभु के पार्थिव पिंड को जन्म दिया, उससे पूर्व प्रभु ने जन्मातीत तत्त्व को प्राप्त कर लिया था।
पराई चीजों को आधार बनाकर खड़े होने वाले अहंकार से पार हो चुके प्रभु, अस्तित्व के सारभूत आश्रय में उपस्थित हुए थे।
अब उनके शरीर का जन्म होगा, पर उनमें ‘मैं’ का जन्म नहीं होगा। प्रभु ने उस ‘मैं’ को प्राप्त कर लिया है, जिसका ना तो कभी जन्म होता है ना ही मृत्यु।
जिस ‘मैं’ को न ‘मुझ’ और न ‘मेरे’ की जरूरत है,
जिस ‘मैं’ के सामने कभी ‘तू’ खड़ा नहीं होता,
जिस ‘मैं’ को ‘मैं’ कहना नहीं पड़ता,
जिस ‘मैं’ को महसूस करने में कोई श्रम नहीं उठाना पड़ता,
जिस ‘मैं’ में प्रविष्ट होने के बाद ‘मैं’ नहीं रहता।
प्रभु अपने अन्तर्मत बिन्दु में स्थित हो गये थे।
जब व्यक्तिगत अस्तित्व का आशय मिट जाता है,
तब समष्टिगत अस्तित्व के साथ लय बनता है,
विश्व की ऊर्जा उन महापुरुषों के स्वागत में स्वत: रोमांचित हो उठती है।
विश्व के इस रोमांच के लिए जिनको तिलमात्र रोमांच न हुआ, वो प्रभु महावीर
वीतरागता प्रगट होने के पूर्व ही वीतरागतत्व के अनुभव में थे,
पुण्य का प्रचंड उदय जिनको अपनी घटना नहीं लगी, क्योंकि अपने जैसा कुछ रहा ही नहीं था।
रहा था अनुभव में सिर्फ अस्तित्व, जिसे बाजार में बताया नहीं जा सकता, प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।
प्रस्तुति उसकी होती है,
जिसकी उत्पत्ति हो।
बादलों की प्रस्तूति की जा सकती है,
आकाश की प्रस्तुति कैसे हो ?
आकाश तो सदा काल प्रस्तुत ही होता है।
जो कभी अप्रस्तुत होता हो उसी को ही
प्रस्तुत किया जाता है,
जो सदा प्रस्तुत ही हो उसे कैसे प्रस्तुत करें?
अस्तित्व त्रिकाल प्रस्तुत है।
लोग प्रस्तुति के माध्यम से जो प्रस्तुति होती है उसे जन्म कहते हैं, जीवन कहते हैं। ज्ञानी जीवन उसे कहेंगे जो त्रिकाल प्रस्तुत है।
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