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दुष्प्रवृत्तियों में हमें बदबू का अहसास क्यों नहीं होता?

Updated: Apr 12




एक्स्ट्रा प्लॉट में कचरा एकत्र हो गया हो तो उसकी बुरी असर बंगले पर होती हुई स्पष्ट दिखाई देती है। रोज मिलने वाले दो-चार घण्टे के खाली समय का उचित प्लान न होने के कारण वह कचरा बन जाता है और उसका प्रभाव बाकी के 20-22 घण्टों में क्या पड़ता है? पिछले लेख में पूछे गए इस प्रश्न पर हम चर्चा-विचार कर रहे हैं।

पिछले अंक में हमने देखा कि देरासर में भी नजर पवित्र नहीं रहने के भी अनुभव हुए हैं। अब हम कुछ अन्य अनुभवों की बात देखेंगे।

(2) अच्छी-अच्छी आराधना करने वाली बहनें, मासक्षमण, वर्षीतप और उपधान तप जैसी तपस्या करने वाली बहने भी कैसी वेश-भूषा धारण करती है? शरीर अधिक से अधिक खुला दिखे, अंगोपांगों के आकार स्पष्ट दिखे ऐसे कपड़े? ‘पुरुष हमें देखे तो उसकी आँख में विकार उठना ही चाहिए। तुम हमें घूरते जाओ और पाप बाँधते जाओ, घूरते जाओ… पाप बाँधते जाओ…’, मानो पाप की पुड़िया की प्रभावना करने ही निकले हों। क्या यह कीचड़ की गन्दी बदबू नहीं ? 

प्रश्न : महाराज साहेब! इन सबमें हमें बदबू का अहसास क्यों नहीं होता ?

उत्तर : एक राजा एक सन्त का बड़ा भक्त था। वह बार-बार उन्हें अपने महल में स्थिरता करने के लिए आग्रह करता था, किन्तु सन्त मना कर देते थे। एक बार अत्यधिक आग्रह के कारण सन्त ने सात दिन महल में रुकने की सहमति दी। सन्त पधारे, राजा ने पूरा महल सजाया, एक दिन गुजरा और रात भी बीती। दूसरे दिन सुबह-सुबह वे सन्त किसी को बिना बताए महल से वापिस अपनी झोंपड़ी में लौट आए। जैसे ही राजा को पता चला तो वह भागकर तुरन्त सन्त के पास गया और बोला, “स्वामी जी! क्या मुझसे कोई भूल हुई? आप सात दिन की बजाय एक ही दिन में क्यों लौट गए ?”

“राजन ! आपकी कोई भूल नहीं थी किन्तु मुझे भयंकर बदबू आ रही थी, इसलिए मैंने राजमहल छोड़ दिया।” यह सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ, उसने सोचा कि राजमहल में तो चारों ओर तोरण, पुष्पमालाएँ और फूलों के गुलदस्ते लगे हुए थे, हर तरफ इत्र छिड़का हुआ था। इस झोंपड़ी में तो ऐसा कुछ नहीं है, बल्कि पास में बहती गटर की बदबू तो यहाँ आ रही है, फिर भी स्वामी जी को यहाँ बदबू नहीं आ रही, राजमहल में आ रही है? ऐसा क्यों? राजा ने स्वामी जी को पूछा, “स्वामी जी! हमें तो राजमहल में कोई बदबू नहीं आई ?’

बात का मर्म समझाने के लिए सन्त राजा को मछलीमारों की बस्ती में लेकर गए। अभी तो बस्ती में पैर भी नहीं रखा था, कि राजा चिल्लाया, “कितनी भयानक बदबू है, मेरा तो सर फटा जा रहा है। मैं तो यहाँ से जा रहा हूँ।”

सन्त बोले, “ये मछलीमार तो मस्ती से अपना-अपना कार्य कर रहे हैं, इन्हें बदबू क्यों नहीं आ रही ?” 

राजा : “ये तो जन्म से यहीं रह रहे हैं, इन्हें तो आदत हो गई, इसलिए इन्हें बदबू कैसे आएगी ?”

सन्त : “राजन्! आप भी जन्म से ही राजमहल में रह रहे हैं, इसलिए आपको भी बदबू नहीं आई। चारों ओर रंगबिरंगे खुशबूदार फूल, धूप, इत्र, गीत-संगीत, नृत्य, विविध भित्तिचित्र, सज-धज कर निकली राजकुमारियाँ, उनकी सखियाँ, दासियाँ..! राजन्! मैं तो इन सबसे त्रस्त हो गया। क्या इन्द्रियों की गुलामी में बदबू नहीं है ?”

यही स्थिति आप सबकी है। घर से बाहर, हर जगह, पूरा दिन आप लोग लड़कियों के कामो-त्तेजक कपड़े, पोस्टर्स, टीवी, मोबाइल में ऐसे दृश्य आदि देखते रहते हैं, इसलिए आपको इन सबमें दुर्गन्ध नहीं आती, किन्तु हम तो इसमें त्राहि पुकार उठते हैं। मात्र हम संयमियों को ही नहीं, बल्कि हर सद्गृहस्थ को भी इन सबमें भयानक बदबू का अहसास होता है।

रावण ने सीता का अपहरण किया, उस समय सीता की खोज चल रही थी। रस्ते में गिरे हुए कुछ आभूषण मिले। ये आभूषण सीता के ही थे या किसी अन्य स्त्री के, इसका निर्णय करना था। राम तो मूर्च्छित थे, इसलिए आभूषण लक्ष्मण को दिखाए गए। उस समय पता है लक्ष्मण ने क्या कहा? मैं माता सीता के कुण्डल, हार आदि कुछ भी नहीं पहचानता, क्योंकि मेरी नजर उन आभूषणों पर कभी नहीं गई। लेकिन हाँ! उनकी पायल जरूर पहचानता हूँ, क्योंकि उनके चरणों में नमन करते समय पायल अवश्य दिखाई देती है। वर्षों के वनवास में मात्र राम, सीता और लक्ष्मण ही थे, लक्ष्मण का नेत्र संयम कैसा अद्भुत रहा होगा? यही सज्जनता है, यही सद्गृहस्थ की निशानी है और यही सदाचार की पराकाष्ठा है। आज एक बहुत बड़ा वर्ग दृष्टि दोष का सेवन करता है, किन्तु मात्र इससे यह पाप खत्म नहीं होता, इसकी गंध सुगन्ध नहीं बन जाती।

आपकी पत्नी, बहन या बेटी को यदि कोई गन्दी नजर से देखे, तो क्या आपको बुरा नहीं लगता? यदि आप किसी Function में अपनी पत्नी के साथ गए, जहाँ 500-700 लोग हाजिर हैं और वहाँ कोई रूपवती स्त्री आपकी नजर को भा गई। आप एकटक उसे देख रहे हैं। यह बात आपकी पत्नी देख ले तो, “कुछ शर्म-वर्म है कि नहीं? क्या देख रहे हो?” वो आपको ऐसा बोलेगी न? तो समझ जाइए कि परस्त्री को विकारी दृष्टि से देखना बगीचे की सुगन्ध नहीं बल्कि कचरे की बदबू है।

अपने शरीर का पर-पुरुष “स्पर्श” द्वारा उपभोग करे, ऐसी स्त्री को दुराचारिणी कहा जाता है, तो फिर अपने शरीर और रूप का पर-पुरुष “चक्षु” द्वारा उपभोग करे, ऐसी व्यवस्था करके देने वाली स्त्री को दुराचारिणी क्यों नहीं कह सकते? और इसी दृष्टिकोण से उस पुरुष को भी दुराचारी क्यों नहीं कह सकते? दुराचार तो दुर्गन्ध ही होता है न? याद रहे, कि ये सब Extra Plot में Planning के अभाव में इकट्ठा हुए कचरे की ही बुरी असर है।

(3) अनावश्यक या कम जरूरी चीजों की अंधा-धुंध खरीदी, या जो चीज अच्छे से काम कर रही हो, खराब न हुई हो फिर भी उसे Replace करके Latest और अधिक आकर्षक चीज की खरीदी आदि बेकार के खर्च आजकल बहुत बढ़ गए हैं। इन सबके कारण सुकृत के अवसर पर हाथ तंग हो जाते हैं। पहले के समय में एक परिवार के महीने के खर्च में 80% खर्च खाने-पीने का और 20% अन्य खर्च होता था। अब तो पूरा बजट बिगड़ गया है, क्योंकि इन सब फालतू के खर्चों के कारण खाने-पीने पर बजट का 30-40% और बाकी का 60-70% हिस्सा अन्य खर्चों का हो गया है।

याद रखिए कि पिछले 1000 वर्षों में मनुष्य की LifeStyle इतनी नहीं बदली जितनी पिछले 100 वर्षों में बदल गई है। और पिछले 100 वर्षों में जितनी नहीं बदली उतनी पिछले 10 वर्षों में बदल गई है, आजकल तो 1-1 वर्ष में सब कुछ बदल रहा है। Updated रहने के लिए हर वर्ष मोबाइल बदलो, चश्मा बदलो, ड्रैस बदलो… और पता नहीं इस List में और कितनी चीजें हैं। 2-3 साल हो गए, टू-व्हीलर बदलो, कार बदलो, टीवी में विज्ञापनों का इतना ढेर होता है कि इच्छा जागृत हुए बिना नहीं रहती। 4-5 वर्ष हुए नहीं, कि घर का इंटीरियर बदलो…

ये सब कोई 5-10 हजार रूपयों का खेल नहीं बल्कि लाखों-करोड़ों की बाते हैं। फिर इतना कमाने के लिए उल्टे-सीधे धन्धे करो, गलत साहस करो, और कहीं फंस गए तो टेंशन, डिप्रेशन, सुसाइड। बहुत हाथ-पैर मारने के बाद भी कमाई नहीं कर पाए, तो इच्छाएँ पूरी न होने के कारण मन-ही-मन गुस्सा होना, पत्नी के ताने सुनना कि तुम्हें तो काम-धन्धा करना ही नहीं आता आदि। क्योंकि उसकी सहेलियों की सारी इच्छाएँ तो पूरी हो रही होती है। फिर रोज के लड़ाई-झगड़े और संक्लेश…!

इसके बदले Extra Plot में सद्-वांचन का उद्यान बनाया होता तो पूरी विचारधारा अलग ही होती, उपभोग-वाद के बदले सन्तोषवाद होता, दुःखद कम्पेरिजन के बदले सुखद कम्पेरिजन होता। अर्थात् खुद से अधिक सम्पत्ति वाले के साथ तुलना करके हीनता अनुभव करने की बजाय, जिसके पास अपने से भी कम है उनसे तुलना करके ‘मुझे तो बहुत कुछ मिला है’ इसका आनन्द अनुभव किया जाता। When we don’t have what we like, we must like what we have. इस वाक्य के अनुसार जो भी मिला है उसका आनन्द ही आनन्द होता।

साथ ही सत्श्रवण और सद्वांचन के द्वारा यदि कर्म विज्ञान समझ आ गया तो दुनिया में ऐसी कोई ताकत नहीं, जो जीव को दुःखी कर सके, या जीव को टेंशन, डिप्रेशन की ओर धकेल सके। पूर्व में किए गए पाप हमारे सामने मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं, प्रतिकूलताएँ खड़ी कर सकते हैं, कष्ट उपस्थित कर सकते हैं, किन्तु जीव के पास यदि कर्म विज्ञान का कवच हो जीव को दुःखी या दीन-हीन नहीं बना सकते। याद रखिए, कि दुःखों का पहाड़ टूट पड़े फिर भी दुःखी होना या न होना, यह जीव के हाथ में ही होता है, कर्मसत्ता के हाथ में नहीं।

किन्तु ढेरों दुःखों के बीच भी दुःखी न होने की, दुःखमुक्त रहने की कला टीवी, मोबाइल या सोसाइटी की बैठक नहीं सिखाती, सद्गुरु का सत्संग सिखाता है।

(4) कीचड़ की बदबू का निर्णय करने का सरल उपाय :

क्या कोई भी व्यक्ति अपना मोबाइल अपने माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन किसी के लिए भी Surprise Checking के लिए खुला रख सकता है? कोई निजी बात हो, उसे छोड़िए, लेकिन वह मोबाइल में क्या-क्या Download करता है? क्या देखता और सुनता है? किसके साथ सम्पर्क रखता है? किसके साथ Chating करता है? आदि… आदि। ये सब Delete नहीं करना है, और माता-पिता आदि कोई भी मेरा मोबाइल Check करना चाहे, उसे पूरी छूट है, कभी भी कर सकते हैं।

जो लोग ऐसी छूट नहीं दे सकते, संकोच होता है, शर्म आती है, कोई चीज Delete करके या कुछ App को Lock करके मोबाइल देते हैं, वे निर्णय कर सकते हैं कि यह सब दो घण्टे के Extra Time में अंधाधुंध खड़े किए गए कीचड़ की बदबू है।

(5) अभी कुछ ही दिन पहले घटित घटना : 

महाराष्ट्र के उस्मानाबाद में 20 वर्षीय युवक इंजिनीरिंग की पढ़ाई करता था। Extra Time में मोबाइल की शरण ली। एक बार किसी पाकि-स्तानी लड़की से सम्पर्क हुआ, बात आगे बढ़ी, वो लड़की बनी लैला और ये बना मजनूँ। ‘किसी भी तरीके से मेरी लैला से मिलूँ’ यह तड़प जगी। कोरोना में न कोई ट्रेन, न बस, कुछ नहीं। साइकिल चलाकर उस्मानाबाद से सोला-पुर पहुँचा, वहाँ से टू व्हीलर लेकर, जैसे-तैसे पुलिस से बचकर सरहद तक पहुँचा। रेगिस्तान में टू व्हीलर नहीं चलता, इसलिए पैदल ही निकला लेकिन आर्मी के हाथों पकड़ा गया।

कचरे की ऐसी दुर्गन्ध तो रोज-रोज अख़बारों में पढ़ने को मिलती ही है।

दो घण्टों से बाईस घण्टे सुगन्धित रह सकते हैं या फिर दुर्गन्ध से भर सकते हैं, यह बात ऊपर लिखी बातों से निःशंक रूप से स्पष्ट कर लेने की सब को प्रेरणा है। और अधिक अगले अंक में…

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