देहनिर्माण में दृष्टा भाव
- Panyas Shri Labdhivallabh Vijayji Maharaj Saheb
- Sep 25, 2020
- 2 min read
Updated: Apr 12, 2024

त्रिशला रानी के गर्भ में जो भी घटित हो रहा था,
उसे अघटित होकर देख रहे थे प्रभु।
विश्व के सर्वश्रेष्ठ परमाणुओं के गठन से शरीर का
संपादन होने जा रहा था।
यही वो शरीर होगा जिसे मेरूपर्वत पर
कोटि कलशों से अभिषिक्त किया जाएगा।
यही वो देह होगी जिसे लेकर साधना का आयाम
रचा जाएगा।
यही वो काया होगी जो गणधरों के मस्तक पर
वासक्षेप कर के तीर्थ की स्थापना करेगी और
असंख्य जीवों पर
उपदेशामृत की पावन धारा की बौछार करेगी।
भविष्य के सभी पर्यायों को देखते हुए भी
निर्माणाधीन शरीर की रचना के प्रति प्रभु निर्म-मत्त्व हैं।
कुक्षि में बच्चा आते ही माँ पेट पर हाथ रखकर
ममता बताती है,
पिता भी जन्म लेने से पहले बच्चे को
लेकर ‘मेरापन’ महसूस करता है।
और साधारणतया कुक्षि में विकसित होने वाला आम जीव भी
शरीर योग्य पुद्गलों को जुटाने के संघर्ष में शरीरमय ही हो जाता है।
पर, यह कोई सामान्य जीवात्मा नहीं है,
यह तो महात्मा से भी ऊपर परमात्मा है।
अवधिज्ञान से दिख रहा है प्रभु को,
कि अंतिम बार अपने आत्मप्रदेशों के संयोग से
कर्म के माध्यम से मानवपिंड का सुरम्य-सृजन हो रहा है।
आखिरी बार इस देह का ढांचा बनाया जा रहा है।
पर प्रभु की चेतना सिर्फ उसे दृश्यरूप से ही निहारती रही,
कभी भी उस सृजन प्रक्रिया में ‘मेरापन’ नहीं उठा प्रभु को!
उसे खुशियों से सहलाया नहीं प्रभु ने!
क्योंकि वो प्रभु अब दूजे के नहीं बन सकते हैं,
खुद को पा लिया है।
दूसरा अब खुद नहीं बनेगा, दूसरा बनेगा तो सिर्फ दृश्य ही बनेगा।
दृश्य मतलब दूसरा
‘दूसरा है’ यह जानते हुए भी
जब कर्माधीन होकर
संयोग के रूप में शरीर को अपनाना पड़ता है,
तब ज्ञानी को अधिकार भाव नहीं आता,
पर औचित्यभाव प्रकट होता है।
जन्म लेना प्रभु के लिए अधिकार नहीं,
औचित्य था।
जो अधिकार से जन्म लेते हैं वे मरते हैं,
जो मरते ही नहीं, वे औचित्य से अवतरते है।
प्रभु का जन्म ‘अवतरण’ होता है,
अधिकरण नहीं।

जब हम अपने घर में होते हैं तब अधिकार से,
और
पराये घर में जाते है तो औचित्य से रहते हैं,
संकोच से बरतते है।
ठीक उसी तरह
प्रभु का अपना घर तो आत्मस्वभाव ही है।
शुद्ध-अपनापन ही प्रभु का निवास है।
अब यह शरीर भी पराया घर है।
माता त्रिशला रानी की कोख भी पराया घर है।
वहां अधिकार नहीं, औचित्य प्रकट करते है प्रभु।
सिकुड जाते हैं। (अलीणपलीणगुत्ते)
ताकि त्रिशला रानी को तकलीफ न हो।
अपने आप में लीन होकर सिकुडना तो प्रभु गर्भ से ही जानते थे,
सिकुडना संयम की अभिव्यक्ति है।
जो औरों से सिकुडता है वो अपने में विकसित होता है।
प्रभु का जागृतिपूर्वक स्थिर होना, वह भी गर्भ में!
यह उत्कृष्ट औचित्य ओर
योगकौशल्य का परिचायक है।
हम मरते दम तक स्थिर नहीं हो पाते,
सिकुड़ना परेशानी लगती है, अधिकार जमाने की बदमाशी जाती नहीं है।
कहाँ प्रभु, कहाँ हम ?
प्रभु की जीवन-यात्रा औचित्य और संयम के मंगलाचरण से शुरू हुई।
Comments