प्रश्न : प्रवचनों में सदैव धन-त्याग, धन-मूर्च्छा त्याग आदि तथा व्यापार-धन्धे की बजाय धर्म-कार्य में अधिक समय देने की बातें की जाती है। और दूसरी ओर उपदेश देने वाले ही दान देने की प्रेरणा भी देते हैं। ट्रस्टीगण फण्ड, बोली, चढ़ावे आदि के द्वारा पैसे इकट्ठा करते हैं।
यदि वास्तव में व्यापार-धन्धा और पैसा छोड़ दें, तो फण्ड में राशि कौन लिखाएगा? और धर्म भी बिना पैसे के नहीं होता। तो फिर धन-त्याग की बात क्यों की जाती है? जिनालयों में पहली पूजा आदि के लिए भी बोली होती है। निर्धन व्यक्ति ये सब लाभ कैसे ले पाएगा? क्या ये बातें विरोधाभासी नहीं है? दोगली बातें करना दम्भ नहीं है ?
उत्तर : पहली बात इस प्रश्न का अधिकांश हिस्सा गलतफहमी का शिकार है। गृहस्थ को धन्धा करना छोड़ ही देना चाहिए, पैसे भी पूरे छोड़ देने चाहिए, निर्धन बन जाना चाहिए – ऐसा कोई भी उपदेश जिनशासन द्वारा स्वीकार नहीं है। गृहस्थ के लिए तो न्यायसंगत वैभव को मार्गानुसारी का गुण बताया गया है। इसी प्रकार धर्म-पुरुषार्थ, अर्थ-पुरुषार्थ और काम-पुरुषार्थ इन तीनों के मध्य एक ऐसा सन्तुलन करना होता है, कि तीनों में से किसी में भी बाधा न पहुँचे। इस प्रकार ‘त्रिवर्ग अबाधा’ को भी गुण कहा गया है।
इसीलिए शास्त्रों में प्रभु की अष्टप्रकारी पूजा का मुख्य समय मध्याह्न काल का बताया गया है। और साथ ही यह भी कहा गया है, कि यदि धन्धे का समय भी वही हो, तो धंधा डिस्टर्ब ना हो वैसा पूजा का समय थोड़ा आगे-पीछे किया जा सकता है। अरे! धन्धे में मुश्किलें न आए और सरलता
से धनप्राप्ति हो इसके लिए व्यापार हेतु घर से निकलते समय प्रणिधान पूर्वक तीन नवकार गिनने के लिए भी कहा गया है।
यदि कोई श्रावक ऐसा कहे कि मैं दिन भर प्रभु-पूजा, सामायिक, जाप, तप, स्वाध्याय आदि आराधना करता रहूँगा और जीवन निर्वाह के लिए साधु भगवन्तों की भाँति घर-घर जाकर भिक्षा लूँगा, तो शास्त्रों में इसकी मनाही है। और यह बताया गया है कि श्रावक को उचित समय पर उचित व्यवसाय करना ही चाहिए। यदि पूरा दिन सामायिक करने का ध्येय हो, तो फिर दीक्षा ही ले लेनी चाहिए। गृहस्थाश्रम में रहकर भिक्षा से जीवन निर्वाह करने से धर्म लज्जित होता है।
प्रश्न : महाराज ! न्यायसम्पन्न वैभव हमारा गुण है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि निर्धनता दुर्गुण है। अर्थ-पुरुषार्थ, अर्थात् धन्धे में व्यवधान नहीं हो, धन्धे में disturb होता हो तो प्रभु पूजा का समय आगे-पीछे किया जा सकता है। धन्धे में सफलता के लिए घर से निकलते समय तीन नवकार भी गिनने चाहिए, हमारी दिनचर्या में धंधा का भी स्थान है। दिनभर धर्माराधना और भिक्षा से जीवन यापन हमें शोभा नहीं देता।
महाराज ! ये सब बातें आज पूरी तरह समझ आ गई। हमारे शास्त्रों में व्यापार की भी समझ दी गई है, यह सोचकर हमारी धर्म के प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गई है। यथार्थ में हमारा धर्म बहुत practical है।
उपरान्त संसार त्यागी, अत्यन्त वैरागी, पूर्ण निःस्पृह, पूरे दिन अपनी साधना में मग्न रहने वाले और धन को सैकड़ों दोषों का मूल बताने वाले हमारे पूर्वाचार्यों ने हमारे व्यापार के बारे में इस प्रकार चिन्तन किया, यह जानकर ऐसी प्रतीति हुई कि हमारे धर्म में कहीं भी एकान्तवाद नहीं, बल्कि सर्वत्र अनेकान्तवाद है। बहुत हर्ष की बात है !!
लेकिन महाराज साहेब ! जब शास्त्रकारों ने हमें व्यापार करने की भी रीति बताई है, तो क्या हम पूरी ताकत से व्यापार कर सकते हैं ?
उत्तर : देखिए भाग्यशाली ! आधी बात मत पकड़िए, और उल्टी बात भी मत पकड़िए। शास्त्रकारों ने व्यापार के मामले में अनेक बातें कही हैं, जैसे –
ऐसा व्यवसाय जिसमें आरम्भ-समारम्भ हो, ऐसे कर्मादान के व्यापार नहीं करने चाहिए।
कुल की परम्परा से चले आ रहे उचित व्यापार के सिवाय और कोई व्यापार न करें।
अनीति, अप्रामाणिकता और विश्वासघात न करें।
त्रिवर्ग अबाधा, अर्थात् धर्माराधना disturb हो, या पारिवारिक life disturb हो इस प्रकार धन्धा न करें।
जिसमें उपरोक्त नियमों का पालन न होता हो ऐसे व्यवसायों का शास्त्रकारों द्वारा किया गया निषेध समझने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त और भी बातें हैं, जो फिर कभी बताई जाएगी।
किन्तु समय और शक्ति का अधिकतम प्रयोग धन्धे में करना? ये कहाँ बताया है? इस प्रश्न का उत्तर त्रिवर्ग अबाधा गुण से प्राप्त होता है। सब कुछ इस प्रकार सन्तुलित करना है, कि कोई भी अंग disturb न हो। बाकी, जो पुण्यशाली है, वह कम मेहनत से भी बहुत कमा लेता है, थोड़े समय में भी चाहिए उससे अनेक गुना अधिक कमा लेता है। ऐसे पुण्यशालियों को अपने बाकी के अधिक समय में क्या करना चाहिए ?
(1) नए-नए व्यवसाय चालू करके धन और लोभ को बढ़ाना चाहिए ? या
(2) भोगविलास और पाप-प्रवृत्तियाँ बढ़ानी चाहिए ? या फिर
(3) धर्म बढ़ाना चाहिए ?
इन प्रश्नों के जवाब में हमारे व्याख्यानों में कहा जाता है, कि व्यापार की बजाय धर्म में समय और शक्ति का उपयोग अधिक करना चाहिए।
हम इन तीनों विकल्पों पर विचार करेंगे, किन्तु उससे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा, कि ये बातें उसके लिए है जिसे आत्मा का थोड़ा भी विचार हो, नास्तिक के लिए नहीं।
(1) नए-नए व्यवसाय शुरू करना, यानी हर स्तर पर रिश्वत देना, झूठ बोलना, कहीं-कहीं सुरा-सुन्दरी की महफिल भी करवानी पड़ती है, और यदि एकाध धन्धे में कुछ भी ऊपर-नीचे हुआ तो फिर चिन्ता का कोई पार नहीं रहता, तो हमेशा बेचैनी रहती है। ऊपर से हमारा प्रतिस्पर्द्धी हमसे आगे न निकल जाए, इसलिए रोज कोई दांवपेच या गन्दे खेल करने पड़ते हैं।
पुण्य के सहकार के कारण लाभ तो हो जाता है, लेकिन साथ में लोभ का जोर भी बढ़ जाता है। एक बात हमेशा याद रखिए कि पैसे बढ़ने की Speed से लोभ के बढ़ने की Speed कईं गुना ज्यादा होती है।
उदाहरणार्थ :
मिला हुआ धन बढ़ा हुआ लोभ1 करोड़5 करोड़5 करोड़25 करोड़25 करोड़100 करोड़100 करोड़ 500 करोड़
पहले अपने ग्रुप, अपने समाज में, अपने व्यापार मंडल में नम्बर वन बनने की इच्छा होती है, फिर इस नम्बर वन को टिकाए रखने की धमाचौकड़ी। (बड़े-बड़े उद्योगपतियों के जीवन में झाँककर देख लीजिए) जीवन का एक ही लक्ष्य बन जाता है, पैसा … पैसा और पैसा।
अर्थात् इस दौड़ का कोई अन्त नहीं है। लोभ पर कोई लगाम नहीं होती, यह तो भागता है, बस भागता ही रहता है। कहीं शान्ति नहीं, कहीं फुरसत नहीं।
गैलेरी में खड़े होकर रस्ते का दृश्य देखकर रो रही सेठानी से नौकर ने पूछा, “माँजी ! आपकी आँखों में आँसू?” सेठानी बोली, “उस चौराहे पर देख। एक मजदूर और उसकी पत्नी सामान से भरा ठेला खींच रहे हैं। उनका 5-6 वर्ष का बच्चा उसी ठेले पर बैठा है। एक दूसरा छोटा सा बच्चा उस औरत ने अपनी साड़ी से बाँधकर रखा है। कैसा पुण्य-शाली परिवार है, जो चौबीस घण्टे साथ रहता है। तूने हम चार जनों को एक हफ्ते में आधे घण्टे भी साथ बैठे देखा है? सेठ, बेटा और बेटी, सब अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हैं। ये भी कोई जिन्दगी है?”
पैसे के पीछे दौड़ने वाले ऐसे धनवन्तो को :
न मानसिक शान्ति है,
न पारिवारिक जीवन है,
न शारीरिक सुख है,
न धर्म, न समाज, कुछ नहीं।
और इस तरह 200-500 करोड़ तक पहुँचने वाले को ‘मेरे 400 करोड़’ ‘मेरे 500 करोड़’ ऐसा देख-देख कर खुश होने का सुख और अपने अहंकार को पुष्ट करने का सुख – इन दो सुखों के अलावा उसके पास ऐसा दूसरा सुख कौनसा है, जो 20 – 25 करोड़ कमाकर बैठ जाने वाले को नहीं है? यह आप ही बताइए। और 200 करोड़ से 500 करोड़ तक पहुँचने के लिए आँख बन्द करके जोखिम की और उल्टे गिरे, तो ये दो सुख भी नसीब नहीं होंगे। ऊपर से घोर आघात में घिर जाएँगे, वो अलग।
उपरान्त, यदि पैसे को ही सर्वस्व मान लिया, तो सुकृत करने का मन ही नहीं रहेगा। फलतः नए पुण्य का बँध नहीं होगा, पुराना पुण्य तो भोग लिया। अर्थात् पूर्वभव के पुण्य की balance खत्म होते ही सीधे गिरने की बारी आएगी। आप देखिए, सामान्य व्यक्ति की तुलना में जिसके पास 200 करोड़ हो उसका सारा पैसा चला जाए, तो उसे अनेक गुना आघात लगेगा या नहीं? टेंशन, डिप्रेसन और सुसाइड तक की नौबत आ जाती है।
इसके सामने मुम्बई जैसे शहर में आज भी ऐसे अनेक श्रावक हैं जो अत्यन्त संतोषपूर्वक रहते हैं, अच्छे एरिया में फ्लेट है, दुकान भी अच्छी चलती है, कर्मचारियों को भी अच्छा वेतन और स्नेह देकर विश्वासी और वफादार बनाया हुआ है। खुद सिर्फ 3-4 घण्टे काम करते हैं, बाकी सब फोन से सम्भाल लेते हैं। सुबह अष्टप्रकारी पूजा, व्याख्यान श्रवण, संघ-संस्था के कार्य, साधर्मिक-जीवदया -अनुकम्पा आदि कार्य करते हैं, और परिवार के साथ भी समय बिताते हैं।
इस दुकान में तो मुझे सिर्फ 3-4 घण्टे ही जाना होता है, तो क्यों न दूसरी दुकान भी खोल लूँ? या दूसरा धन्धा चालू कर लूँ? ऐसा लोभ न करके सन्तोषप्रद जीवन जी रहे हैं।
याद रखिए, कि धनवृद्धि के सुख से सन्तोष का सुख अनेक गुना अधिक होता है, अनेक गुना अच्छा होता है।
रोग होने के बाद दवा लेने से लाख बेहतर यही है कि रोग हो ही नहीं, आरोग्य का सुख ही अच्छा है। लोभ, आत्मा से लगा एक रोग है। धनप्राप्ति से मात्र चेहरे पर चमक आती है, लेकिन सन्तोष तो सच्चा आरोग्य है। इसके तो सुख की बात ही कुछ और है। जन्मजात रोगी तो इस सुख की कल्पना भी नहीं कर सकते।
धनप्राप्ति की दवा एलोपेथी जैसी है, एक रोग ठीक तो दूसरा चालू, फिर उत्तरोत्तर डोज़ बढ़ाने पड़ते हैं। सन्तोष के मामले में एक बात समझने जैसी है, कि अधिक धन प्राप्त करने के लिए मेहनत की, लेकिन यदि पुण्य साथ न दे, तो सफलता नहीं मिल सकती। अब यदि यह सोचा कि जितना मिला, उतने में सन्तोष कर लेना है, यह वास्तविक सन्तोष नहीं है, यह तो ‘ Grapes are Sour ‘ ( अंगूर खट्टे हैं ) वाली बात हुई। होना यह चाहिए, कि ‘मेरे पास जो भी है, वह बहुत है, और अधिक नहीं चाहिए’ – यह वास्तविक सन्तोष है।
प्रश्न : अधिक मिलने की क्षमता भी है, और संभावना भी, लेकिन फिर भी नया धन्धा न करें? भविष्य की भी तो चिन्ता करनी है न?
उत्तर : 3-4 घण्टे की मेहनत से यदि जरूरत से अधिक मिल रहा हो, साथ ही बचत करके 2-5-10 करोड़ की सम्पत्ति भी इकट्ठा कर ली, ऊपर से धन्धा तो चालू ही है, फिर भविष्य की कैसी चिन्ता?
प्रश्न : लेकिन यदि पापोदय से सारा पैसा एक साथ चला गया तो?
उत्तर : नया धन्धा किया, टेंशन लेकर शायद 50-100 करोड़ कमा लिए, फिर पापोदय से वे सारे पैसे चले गए तो? फिर क्या करेंगे?
100 करोड़ तो क्या, एक लाख करोड़ भी कम ही लगेंगे, मुकेश अम्बानी भी यही बात कहेगा। इसीलिए ऐसे पुण्यशाली जीवों के लिए कहा जाता है, कि 3-4 घण्टे में यदि अच्छी कमाई हो रही हो, तो बाकी का समय धर्म और सत्कार्यों में लगाना चाहिए।
अब कहिए, इसमें क्या अनुचित है? कौनसा दम्भ है। इसका आगे का जवाब आने वाले लेख में …
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