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आर्यावर्त के कांपिल्यपुर नगर में महाराजा द्रुपद राज्य करते थे। उनका युवराज पद पर आरूढ़ धुष्टद्युम्न नाम का पुत्र था। अद्वितीय रूप और गुणालंकृत द्रौपदी नाम की उनकी बहन थी। जब वह विवाह योग्य उम्र की हुई, तब निर्णय किया गया कि, भारतवर्ष का कोई पुरुष जब राधावेध करेगा, तब उसके साथ विवाह करूँगी।
स्वयंवर मंडप तैयार हो गया। उसके मध्यभाग में सुवर्ण का बड़ा स्तंभ खड़ा कर दिया गया था। हर एक देश के राजा-महाराजा और राजकुमारों को आमंत्रण दिया गया था। खास करके हस्तिनापुर नरेश राजा पांडु के पास भी एक दूत को भेजा गया था।
पूज्य प्रतापी राजा पांडु, भीष्म आदि बड़े-बुजुर्गों तथा एक सौ पाँच राजकुमार आदि परिवार सहित कांपिल्यपुर के समीप पहुँच गये थे। तब राजा द्रुपद ने उनका सोल्लास स्वागत किया।
स्वयंवर का दिन आ गया। सोलह श्रृंगार सजकर दासियों के साथ द्रौपदी भी स्वयंवर मंडप में पहुँची। उसका अद्भुत रूप देखकर सभी राजा आश्चर्यचकित हो गये। द्रौपदी और राजा द्रुपद की दृष्टि भी पाँचों पांडव पर गयी। अत्यंत मनोहर रूप और आकृति देखकर दोनों को पछतावा हुआ कि, राधावेध साधने की शर्त ना की होती तो पाँच पांडवों को हासिल कर सकते थे।
खैर! जो हुआ सो हुआ। युवराज धृष्टद्युम्न खड़े होकर हाथ ऊँचे करके बोला कि, जो कोई क्षत्रिय वीर इस दिव्य धनुष को चढ़ाकर राधावेध करेगा, उससे मेरी बहन द्रौपदी ब्याह रचायेगी।
हकीकत में, राधावेध बहुत ही कठिन होता है। एक ऊँचे स्तंभ पर स्त्री (राधा) का पुतली रखी जाती है। वह गोल-गोल घूमती रहती है। उसके नीचे उल्टे-सीधे दो चक्र घूमते रहते है। थंभे के ऊपर तराजू लगाया होता है उसमें दोनों पैर को रखकर और जमीन ऊपर तेल के कुंड में घूमते हुए वे दो चक्र, उपरान्त उसके ऊपर की घूमती हुई पुतली के प्रतिबिंब को बायी आँख से देखकर, पुतली की आँख को तीर से छेदनी होती है। ऐसी कठिन साधना होने पर भी हर एक राजा और राजकुमार द्रौपदी को प्राप्त करने के लिए उस दिव्य धनुष को उठाने तैयार होते थे तब द्रौपदी की दासी उसके कुल, वंश आदि का परिचय देती थी।
राधावेध के लिए धनुष ही इतना महाकाय और वजनदार होता है कि – कुछ लोग तो उसके दर्शन मात्र से ही काँपने लगे थे। कुछ उसके स्पर्श मात्र से भयभीत हो जाते थे। तो कुछ उसे चलायमान करने के प्रयत्न से ही नीचे गिर पड़ते थे।
हस्तिशीर्ष नगर का राज दमदंत, नंदीपुर का राजा शल्य, जरासंध का पुत्र सहदेव, चेदी देश का राजा शिशुपाल, मथुरा का राजा, उसके अलावा भगदत्त, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा, शल्य, जयद्रथ, महासेन और चारूदत्त इत्यादि राजा राधावेध की साधना को जानते नहीं थे, इसलिए पुतली के पास, पुतले की तरह टुकुर-टुकुर देखते ही वे सभी वापस चले गये। अरे…! दुर्योधन के इशारे से अजोड़ बाणावली के रूप में मशहूर ऐसा कर्ण भी राधावेध को साधने में निष्फल गया। बाद में दासी ने द्रौपदी को कुरुवंश के अलंकार रूप बेजोड़ पराक्रमी और सद्गुणी ऐसे पाँच पांडवों का परिचय दिया। तब मैं अर्जुन, हाथ में धनुष लेकर राधावेध के स्तंभ की करीब गया। नीचे स्थित तेल में पुतली का प्रतिबिंब देखकर सावधान मुद्रा में धनुष्य का टंकार किया। और क्षणभर में राधा-पुतली की बायी आँख को छेद दिया। तत्क्षण पांड़व पक्ष के राजा और राजकुमारों ने मेरे नाम का गगनभेदी जयनाद किया। भीष्म पितामह और माता कुंती आदि बड़ों-कुलपूज्यों के आनंद का कोई पार न रहा। परंतु दुर्योधन पक्ष के राज-कुमारों के चेहरे उतर गये। महाराजा द्रुपद, धृष्ट-द्युम्न और द्रौपदी आदि भी अतिशय हर्षित हो गये।
प्रश्न यह है कि इतने सारे क्षत्रियवीर समर्थ राजा और राजकुमारों के बीच राधावेध करने में सफलता मुझे ही क्यों प्राप्त हुई?
जवाब यह है कि जब किशोर आयु में हम 105 राजकुमारों को भीष्म-धृतराष्ट्र-पांडु आदि बड़े लोगों ने द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या का अभ्यास करने रखा तब मैं (अर्जुन) सबसे आगे निकल गया। धनुर्विद्या में सूर्य के जैसे चमकने लगा। मेरे ऊपर गुरुकृपा यानी द्रोण-कृपा अच्छी तरह बरस रही थी। उसके भी मूल में था गुरु (द्रोणाचार्य) के प्रति मेरा अतुल्य विनय और अप्रतिम बहुमान-भाव। ‘विनयेन विद्या ग्राह्या’। मेरे और द्रोणाचार्य के बीच इतना गाढ़ स्नेह था कि, दोनों एक-दूसरे को ज्यादा प्रसन्न करने में जैसे कि स्पर्धा कर रहे हों। उनकी समस्त विद्या ग्रहण करने की मेरी पात्रता को देखकर द्रोणाचार्य ने एक दिन मुझे कहा कि, ‘मैं तुझे विश्व का बेजोड़ धनुर्धर बनाऊँगा। मेरी ग्रहणशक्ति से भी अजोड़ गुरुभक्ति से एक दिन ऐसा आया कि मैं बेमिसाल धनुर्धर बन भी गया। कुरुवंश का मैं विनयवंत सन्तान था। और दुर्योधन उद्धत-अविनीत शैतान था। उसके प्रमाण के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं थी। एक छोटी-सी घटना से आप यह समझ सकोगे।’
एक दिन पांड़वपक्ष की ओर से मैं और कौरवपक्ष की ओर से दुर्योधन, श्रीकृष्ण से युद्ध में मदद लेने के लिए दौड़े चले गये थे। श्रीकृष्ण के पास दुर्योधन पहले पहुँच गया था, तब निद्राधीन श्रीकृष्ण के सिरहाने पर वह बैठ गया, और मैं उनके चरणों के पास बैठा। अब स्वाभाविक है कि, कृष्ण जब जाग जाये तब दोनों में से पहले तो पैरों के पास बैठे हुए को ही देखेंगे, इसलिए दोनों ने जब अपनी बात रखी, तब सुनकर श्रीकृष्ण बोले कि, ठीक है, मेरे पास दो चीज है।
1. मैं खुद…
2. मेरी विराट और बलिष्ठ नारायणी सेना।
विष्टिकार बनकर मैं जब धृतराष्ट्र के पास आया था, तब भीष्म के आग्रह से मैंने उन्हें वचन दिया था कि, यदि युद्ध छिड़ जाये तो मुझे जिस पक्ष में रहना पड़े वहाँ निःशस्त्र रहना है। अब अर्जुन! उठकर मैंने तुझे पहले देखा है। इसलिए तू पहले माँग कि तुझे क्या चाहिये? उसके बाद जो बचेगा वह दुर्योधन का। मैंने कहा, मुझे आप! श्रीकृष्ण चाहिये। यह सुनते ही दुर्योधन खुश-खुशहाल हो गया! उसे जो चाहिये था – वह मिल गया!
यहाँ श्रीकृष्ण को मुझ में लघुता, धार्मिकता, निर्मल बुद्धिमत्ता रूप महानता देखने को मिली। मैंने यहाँ पर चरण की शरण माँगी! इसी में तो मैंने तीनों लोक का राज प्राप्त कर लिया। हस्तिनापुर का राज तो बहुत मामूली बात थी। दुर्योधन शैतान था। उसने सैन्य की बहुमती माँग ली। मेरे पास श्रीकृष्ण की एकमती थी।
सब जानते है कि जीत किसकी हुई? क्यों हुई?
यद्यपि मैं तो युद्ध-समाधान के लिए तैयार हो गया था, परंतु मुझे युद्ध के लिए तैयार करने वाले एकमात्र श्रीकृष्ण थे। जब मेरे रथ के सारथी श्रीकृष्ण बने, और कुरुक्षेत्र के युद्ध-मैदान में एक तरफ जरासंध के विशाल सैन्य के साथ कौरव सैन्य खड़ा रहा था, तो दूसरी तरफ विद्याधरों की विराट सेना के साथ धर्मराज युधिष्ठिर का (हमारा) सैन्य खड़ा हो गया था, उस समय दोनों पक्ष ने सर्व सम्मति से निर्णय लिया कि, किसी को भी प्रतिपक्ष के निःशस्त्र सैनिक पर शस्त्र का वार नहीं करना है, और स्त्री होगी तो उसका वध नहीं करना है। सूर्यास्त से सूर्योदय तक नहीं लड़ना है।
उस समय मेरे रथ के सारथी श्रीकृष्ण ने कौरवों की सेना के मुख्य-मुख्य नेताओं का परिचय देते हुए कहा, अर्जुन! देखो, इधर।
जिसकी ध्वजा में कलश का चिह्न है, श्वेत घोड़ों के रथ में विराजित है, जिसकी युद्ध कला सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है, वे भीष्म पितामह है।
वैसे ही कलश के चिह्नवाली धजा से सुशोभित रथ में बैठे हुए द्रौणाचार्य।
कमंडल के चिह्न से अंकित चंदन जैसी कांति-युक्त, अश्वरथारूढ़ कृपाचार्य।
जिसके ध्वज पर नाग का चिह्न है, ऐसे नील अश्वरथारूढ़ यह दुर्योधन शस्त्रसज्ज होकर युद्धारंभ की राह देखता हुआ बैठा है।
और यह जाल के चिह्न से युक्त धजा और पीले-पीले घोड़ेवाले रथ में बैठा हुआ दुष्ट हृदयी दुःशासन है। जिसने द्रौपदी के बाल खींचे थे।
और दुष्टता में अजोड़ दुर्योधन का मामा शकुनि।
और यह किसी से भी ना डरने वाला द्रोण पुत्र अश्वत्थामा।
यह शत्रुओं पर भारी शल्यरूप महाबलवान महाराज शल्य।
यह विविधवर्णी घोड़े वाले जयद्रथ, भूरिश्रवा, और भगदत्त इत्यादि महायोद्धा तैयार होकर खड़े है। इन सभी को तुझे जीतना है।
श्रीकृष्ण के प्रतिपक्षियों का परिचय देते ही मेरा युद्ध लड़ने का उत्साह ही खत्म हो गया। मैं हताश और निराश हो गया। और श्रीकृष्ण को कहाँ, ‘प्रभो! मुझ से किसी भी संजोग में लड़ाई नहीं हो सकेगी। आपने जिनका परिचय दिया, वे सभी मेरे अलग-अलग तरह से निकट के संबंधी है। क्या मुझे इन सभी उपकारियों की हत्या कर देनी है? गुरुजनों और आप्तजनों के खून के बलिदान से मुझे राज्यसत्ता नहीं प्राप्त करनी है। दूर से ही सलाम है, उस राज्यलक्ष्मी को…! मैं जीवन पर्यंत वनवास भुगतने तैयार हूँ। परंतु आत्मीयजनों का वध करके राजा बनना नहीं चाहता हूँ। इसलिए हमारे रथ को रणभूमि से वापस फेर लो।’ सचमुच उस समय जैसे कि क्षमाश्रमण के जैसे मैं सभी को क्षमा देने तैयार हो गया था। तब श्रीकृष्ण को लगा कि परिस्थिति हाथ से बाहर निकल रही है, यदि अर्जुन में शौर्य रस नहीं जगाया जायेगा तो पांडव कैसे जीत पायेंगे ?
मुझ में युद्ध का उत्साह लाने के लिए, श्रीकृष्ण ने मुझसे कहा, ‘अर्जुन! तू क्षत्रिय है, कोई क्षमाश्रमण नहीं है। तू स्वजनों और स्नेहीजनों का बहाना बनाकर अन्याय के सामने लड़ाई नहीं लड़ता है, तो यह तेरे जैसे क्षत्रिय को बिलकुल भी शोभा नहीं देता है। अन्याय के मार्ग पर गये हुए गुरु हो या पिता, पुत्र हो या बंधु, पर यदि वे शस्त्र धारण करके हमारे प्रतिस्पर्धी बन गये हों तो उनके ऊपर निःशंक हो कर प्रहार करना, यह क्षत्रियधर्म है।’
अर्जुन! मैं पूछता हूँ, उसका जवाब दो,
≈ जिस पितामह ने अपने ही पोतों के सामने शस्त्र उठाये हो, उसे पितामह कहेंगे कि प्रतिपक्षी ?
≈ जो विद्यागुरु ने अपने ही विनयवान और प्रिय शिष्यों को मारने का प्रयास करते हों उन्हें विद्या-गुरु कहेंगे या दुश्मन ?
≈ जिस बंधुओं ने अन्याय और अनीति द्वारा आपके अधिकारों को छीन लिया हो, आपके सामने हमेशा लड़ने को तैयार रहते हों, उन्हें बंधु कहेंगे या शत्रु ?
≈ विश्वश्रेष्ठ तेरे जैसा धनुर्धारी होने पर भी तेरे भाई युधिष्ठिर की राज्यसत्ता अन्याय से जो लोग हड़पना चाहते हो। यह तेरे लिए शर्म की बात है। उन लोगों के ऊपर तुझे दया क्यों आती है? तू इतना कायर क्यों बन रहा है? तेरी बुद्धि बिलकुल सुन्न हो गई हो ऐसा क्यों लगता है ?
हे अर्जुन ! तू कहता है कि, मैं उन्हें नहीं मार सकूँगा, तो तू क्या उनको मारेगा? पापी उनके पापकर्मों से ही मरते है। तू तो केवल निमित्त मात्र है। विचार तो कर! कि दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्ण की बनी हुई चांड़ाल चौकड़ी ने जुआ, द्रौपदी की बेज्जती आदि जो हलकट-हीन-अधमकक्षा के पाप किए, और भीष्म, द्रोण आदि ने मौन रहकर उन पापों को जिस तरह से प्रोत्साहन दिया, वह इतना ज्यादा भयंकर है कि उनको इसी भव में ही उसके फल मिलने वाले है। उग्र पापियों को उनके पाप ही मारते है। परंतु अभी उन लोगों को, किए गये पाप नहीं याद आये है। उसी तरह तुझे भी तेरा स्वधर्म भी याद नहीं आता है। तू तेरी फर्ज अदा कर। तू अब तेरा धनुष उठा, और दुष्टों का निग्रह कर।
उठा तलवार, कर ले वार।
अब तो युद्ध यहीं कल्याण!
श्रीकृष्ण की बात मेरे गले में उतर गई।
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा, करिष्ये वचनं तव।
(व्यास-महाभारत)
अब मेरे मोह का नाश हुआ है। बुद्धि ठिकाने पर आई है, इसलिए आप जैसा कहेंगे, वैसा करने को तैयार हूँ। ऐसा कहकर मैंने गांडीव को उठाया और गगनभेदी टंकार किया।
यह दिया गया उपदेश: गीता और गांडीव का योग….यहीं महाभारत का मर्म है।
याद रखना : धर्म अगर इमारत है, तो स्वधर्म बुनियाद है। स्वधर्म (औचित्य, फर्ज, पालन) आदि का धर्म या धार्मिकता हलबलायी हुई इमारत जैसा है। हर एक गुरु श्रीकृष्ण के स्थान पर होता है। और वे आश्रितों को-अर्जुन को धर्म और स्वधर्म का उपदेश देते है। ऋजु शब्द से अर्जुन शब्द बना है। मैं सरल था, इसलिए श्रीकृष्ण मुझे गीता के द्वारा ठिकाने पर लेकर आये। दुर्योधन दुष्ट था, इस-लिए गदा (भीम) के द्वारा उसे ठिकाने पर लगाया।
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