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‘नमो तित्थस्स’

Updated: Apr 7, 2024




चलो, आज भगवान बनने का अंतिम कदम भी भर लेते हैं । जिसका नाम है – तीर्थ पद।

दो चीजें सबसे महत्त्वपूर्ण होती हैं, एक जो सबसे पहली हो, और दूसरी जो सबसे अंतिम हो।

दो बातें सबसे महत्त्वपूर्ण होती हैं, एक जो सबसे पहले कही गई हो, और दूसरी जो सबसे अंत में कही जाए। 

खाने में दो चीजें हमेशा याद रहती है, एक जो सबसे पहले खाई हो, और दूसरी जो सबसे अंत में खाई हो। डकार आती है, तो जो चीज सबसे अंत में खाई हो, उसका ‘स्वाद’ भी आ जाता है।

जब नवपद की ओली करते हैं, तो पहला पद है अरिहंत, और अंतिम पद है, तप। कितना महत्त्व पूर्ण संदेश है। तप से अरिहंत बन सकते हैं। प्रभु महावीर स्वामी ने अपने तीसरे पूर्व भव में 11,80,645 मासक्षमण किए थे, उसकी बदौलत तीर्थंकर नामकर्म बांधा और वे ‘महात्मा’ और ‘परमात्मा ‘ बने।

नवतत्त्व के भीतर सबसे प्रथम तत्त्व है जीव, और अंतिम तत्त्व है मोक्ष। ‘जीव’ को आखिर क्या चाहिए – ‘मोक्ष’। क्यों साधु भगवंत कष्टमय संयम जीवन जीते हैं? क्यों कठोर तप की तपस्या करते हैं? क्यों ध्यानी एकान्त में बैठकर महीनों तक ध्यान करते हैं? क्यों साधक दुनिया की सुख सामग्री से मुंह मोड़े हुए रहते हैं?

इस सभी सवालों का एक ही जवाब है, क्योंकि उन्हें ‘मोक्ष’ चाहिए।

बीस स्थानक की जब बात आती है, तो प्रथम पद है – अरिहंत और अंतिम पद है – तीर्थ। तीर्थ की स्थापना करने के कारण ही तो अरिहंत, तीर्थंकर कहलाते हैं। तो सबसे प्रथम पद था तीर्थंकर का, और अंतिम पद – उन्होंने जिस तीर्थ की स्थापना की उसका।

तीर्थ का अर्थ क्या है? जब यह प्रश्न भगवती सूत्र में प्रभु से पूछा गया, तब प्रभु का उत्तर था – तीर्थ यानी प्रथम गणधर द्वारा रचित “द्वादशांगी श्रुत या चतुर्विध श्रीसंघ।”

आज हमारे पास प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामी जी तो मौजूद नहीं है। ऐसे में दो ही तीर्थ हैं जिनकी हम तीर्थ पद में आराधना कर सकते हैं, वे हैं – द्वादशांगी श्रुत और श्रीसंघ।

इन दोनों में से भी द्वादशांगी श्रुत की पठन-पाठन की अनुज्ञा तो मात्र श्रमण- श्रमणियों को ही है, उसके अर्थ का श्रवण सिर्फ श्रावक-श्राविका करते हैं ऐसा नियम है।

अब अंत में रहा सिर्फ एक ही तीर्थ – चतुर्विध श्रीसंघ।

चतुर्विध संघ में श्रावक-श्राविका भी आते हैं, और साधु साध्वी जी भी समा जाते हैं। एक दिन के पर्याय वाले मुनि एवं आठ साल की उम्र वाले छोटे से श्रमण भी संघ है। क्या ये सभी पूज्य हैं? हाँ। और सिर्फ मुझे ही नहीं, यह तीर्थ, यानी चतुर्विध श्रीसंघ तो स्वयं तीर्थंकर अरिहंत प्रभु के लिए भी नमस्करणीय व वंदनीय है। समवसरण में आते ही तीर्थंकर प्रभु चैत्य वृक्ष को प्रदक्षिणा देते हैं, और कहते हैं, ‘नमो तित्थस्स’ – तीर्थ को नमन हो।

यदि श्री संघ वंदनीय है, तो हम संघ के किसी भी सदस्य के प्रति श्रीसंघ कैसे रख सकते हैं? हम संघ के अंग पर मन-मुटाव या वैर-कलह कैसे कर सकते हैं? हम संघ के सदस्य की निंदा या उनके प्रतिकूल वर्तन कैसे कर सकते हैं?

 हम जब मंदिर में जाते हैं, दर्शन पूजा करते हैं, तब हमें ध्यान रखना चाहिए कि, इस तरीके से ना खड़े रहें कि किसी अन्य दर्शनार्थी को दर्शन में अंतराय हो। कोई भक्त अपनी भक्ति बताता हुआ इतनी जोर की आवाज से स्तवन और गीत ललकारता है कि, मानों भगवान को सिर्फ उसकी ही बात सुननी चाहिए, और किसी की नहीं। यह ‘नॉइज़ पॉल्यूशन’ सिर्फ चौराहे पर ही नहीं, मंदिर में भी घुसपैठ कर देती है। हमारी भक्ति के भाव से औरों की भक्ति के भाव को ‘डिस्टर्ब’ करने का हमारा अधिकार नहीं है। भक्ति अगर इतनी ही उमड़ रही हो, तो अपने घर में ही गृह-जिनालय बनाओ और उसमें जो करना हो, जितना करना हो, करो। कईं बार होता ऐसा है कि हमें भगवान को सुनाने में नहीं, औरों को दिखाने में ज्यादा रस होता है। भगवान तो मन में बोला हुआ भी सुन लेते हैं। 

जब संघ इकट्ठा होता है तब इसलिए इस बात का ख्याल रखा जाए कि, मेरे व्यवहार, वाणी और विचारों से संघ का कोई भी सदस्य हर्ट न हो। 

घर के किसी सदस्य ने कोई गलती की हो, तो हम उस बात को घर के बाहर तक भी नहीं जाने देते, और संघ के किसी सदस्य से कोई गलती हो गई, तो उसको सार्वजनिक गॉसिप का इश्यू बना देते हैं। क्या हमें संघ के सदस्य की गलती को देखने का या उसका प्रचार करने का ठेका किसी ने दे रखा है? क्यों व्यर्थ ही भगवान बनने से दूर जा रहे हैं? तीर्थ से दूर मत रहो, पर तीर्थ की आशातना से दूर रहो, और तीर्थंकर बन जाओ – यही तीर्थबोधि की अंतिम सलाह। फिर मिलेंगे।



मारी अरज सुनो रे…

मारी अरज सुनो रे ओ पच्चीसवें भगवान!

मैं तो सेवक हूँ थारे दरबार रा सुनो रे साई!

मैं तो सेवक हूँ थारे दरबार रा…

वीर प्रभु ने थापीयो है और गणधर ने फैलायो है;

सूरिदेवों ने आपरी बढ़ाई शान जी… मैं तो…१॥

मैं थाने ना जानूं मोटे ज्ञानी तुझको जाने रे;

थे हो मारी नाचीज की तो आन बान जी… मैं तो…२॥

मैं थारो सिपाही तू है मारो सूबेदार जी;

मारे तन मन धन तुझ पे करूं कुरबान जी… मैं तो…३॥

खम्मा घणी रे थोने जिनशासन रा देव जी;

थारा छोटा भगत रे रखजो दल में याद जी… मैं तो…४॥

एक बार थे प्रेम नजर सुं जो मोने निहाळोजी;

मारे आंगन सुं बरसे लाल लाल गुलाल जी… मैं तो…५॥

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