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पंचपरमेष्ठी का साक्षात्कार अर्थात् गुरुमाँ

Updated: Apr 12




जीवन में कभी भी अमृतपान न किया हो किन्तु फिर भी आम के रसास्वाद से जैसे अमृत की तृप्तता होती है, यथार्थ वैसे ही……पंचपरमेष्ठी के साक्षात् दर्शन न होते हुए भी मेरी गुरुमाँ के दर्शन से ही मुझे पंचपरमेष्ठी के साक्षा-त्कार की निरन्तर अनुभूति होती है।

मेरी गुरुमाँ में विविधता थी और वह विविधता ही उनकी नाविन्यता को विशेष बनाती थी।

? गुरुमाँ के सानिध्य एवं स्नेह हेतु एक जीवन अल्प है…!

? और… गुरुमाँ के सभी पहलुओं को समझने के लिए एक बुद्धि अत्यल्प…!

? गुरुमाँ में मुझे जो पंचपरमेष्ठी के दर्शन होते हैं, अब उसका वृत्तान्त कहता हूँ, सभी ध्यान से सुनें…!

〈 अरिहंत : 〉

पूज्य गुरुमाँ का पुण्य अत्यन्त प्रकृष्ट था। जहाँ शून्यता का आभास हो वहाँ भव्यता तटस्थ रूप धारण करती थी। विवाद का स्थान संवाद में परिवर्तित हो जाता था। निराशा का अंधकार उत्साह के सञ्चार में कहीं अदृश्य हो जाता था।

अञ्जनशलाका प्रतिष्ठा-दीक्षा विधि का प्रसंग हो या चातुर्मास में सिद्धितप-भद्रतप-मृत्युंजय तप का प्रसंग हो… केवल पूज्यश्री के नाममात्र से ही पूरा माहौल प्रफुल्लित हो ऊठता था और उनके आगमन के पश्चात् तो चार चाँद लग जाते थे।

और हाँ! इस भव्यता के लिए पूज्यश्री का सहभाग शून्य प्रतिशत अर्थात् न होने के बराबर ही था।

किसी भी प्रकार के प्रयत्नों के सिवाय इस प्रकार के भव्यातिभव्य ऐतिहासिक प्रसंग सम्पन्न होना, श्रेष्ठ आर्य-श्रमणों की वृद्धि होना, समर्थ सूरिवरों के प्रभाव में भी एक छत्री स्नेहपूर्ण शासन का निर्वहन होना… यह सब उनके निर्मल पुण्य का ही द्योतक है।

पूज्य गुरुमाँ के वचन अत्यन्त अमूल्य एवं आदेय तो थे ही किन्तु अन्य समुदाय-सम्प्रदाय में भी पूज्यश्री के वचनों को पूरे आदर एवं श्रद्धा के साथ शिरो-मान्य किया जाता था।

ऐसे अनेक चमत्कारों को देखते हुए ऐसा प्रतित होता है कि वर्तमान में पूज्य गुरुमाँ ही साक्षात् अरिहंत है।

〈 सिद्ध : 〉

पूज्यश्री का सम्पूर्ण जीवन अग्नि से परिष्कृत सुवर्ण के भाँति निष्कलंक एवं स्फटिक की तरह निर्मल रहा है। 14 वर्ष की बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् 84 वर्षों की प्रदीर्घ जीवन यात्रा में उनके श्वेत वस्त्रों को कभी अपवित्रता का काला दाग स्पर्श भी नहीं कर सका। किसी के भी मन में उनके चारित्र्य के सम्बन्ध में यत्किंचित् भी शंका या प्रश्न उत्पन्न नहीं हुए, इसप्रकार पूज्य-पादश्री के द्वारा नैतिक ब्रह्मचर्य का पालन किया गया था।

ऐसी पवित्रता के प्रताप से ही अनेक सिद्धियों ने पूज्यश्री को वरदान स्वरूप मंगलमालाएँ पह-नायी थी।

अनपढ़ को विद्वान, रोगी को निरोगी, असम्भव को सम्भव बनाना, नवकारशी करने वालों को मास-क्षमण के लिए प्रवृत्त करना इत्यादि प्रवृत्तियाँ पूज्यश्री के वचनसिद्धि के कारण ही सहज थी।

किसी दैदिप्यमान संघ में चातुर्मास के प्रयोजन से गए हुए शासनप्रभावक पूज्यश्री के अनिच्छा के कारण निष्फल हो जाते थे और उनके कृपाज्ञा से गए हुए मुनि शुष्क क्षेत्र में भी शासन का डंका बजाते थे। यह उनकी आज्ञा सिद्धि का चमत्कार था।

सिद्ध भगवन्त जिस प्रकार अनन्त-चतुष्क के धारक होते हैं, उसी प्रकार पूज्यश्री भी……निर्मल ज्ञान-निर्मल दर्शन-निर्मल जीवन-निर्मल मन के धारक थे।

〈 आचार्य : 〉

कुछ हस्तियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें देखते ही मुख में से अपने आप शब्द निकलते हैं, कि “बस…! इसके लिए ही इनका सृजन हुआ है।” ठीक वैसे ही पूज्यश्री के दर्शन से मुझे ऐसा प्रतित होता था कि जिनशासन के राजा बनने हेतु ही पूज्यश्री का सृजन हुआ है। जहाँ जहाँ पूज्यश्री का आगमन होता वहाँ वहाँ “गच्छाधिपति” शब्द से ही एक गज़ब प्रभावशाली माहौल का सृजन हो जाता था। लोगों के चहल-पहल से बिना महोत्सव के भी महोत्सव के प्रसंग का अनुभव होता था और एक अनोखे ठाठ की अनुभूति होती थी।

दूसरी ओर जिनशासन के राजा भी कभी शान्ति से नहीं बैठते थे। अविरत रूप से शासन की एकता-अभ्युदय-अभिवृद्धि का विचार-विमर्श करते रहते थे।

पूज्यश्री के अतुल्य गीतार्थता का लाभ श्रीसंघों को व्यापक प्रमाण में मिला है।

सकल संघ तथा स्व-पर समुदायों को पूज्यश्री के शास्त्रीय एवं दीर्घ-दृष्टि युक्त निर्णयों के परिणाम स्वरूप वर्तमान में भी स्वादिष्ट फल चखने मिलते हैं।

अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थिति में भी पूज्यश्री में बड़े एवं यशस्वी निर्णय लेने की क्षमता थी और उनके निर्णय सर्वसम्मत बने ऐसा सर्वोत्कृष्ट पुण्य भी था।

किसी को सम्भ्रमावस्था में स्पष्ट-शास्त्रीय-सफल मार्गदर्शन की आस रहती, तो उनके लिए केवल एक ही ध्रुव मार्ग शेष रहता, जो उन्हें पूज्यश्री के आँचल तक ले जाता था।

〈 उपाध्याय : 〉

जिस प्रकार उपाध्याय भगवंत अभ्यन्तर स्वरूप में शासन-समुदाय का प्रेम एवं वात्सल्य से योगक्षेम करते हैं, उसी प्रकार पूज्यश्री ने अपने वात्सल्य की गरिमा से शासन-संघ-समुदाय का योगक्षेम करते थे।

चातुर्मास के लिए दूर गए हुए श्रमण-शिष्यों को जब पूज्यश्री का निश्राश्रय प्राप्त होता था तब उन्हें ऐसा लगता था कि वे दादा के घर आए हैं! अत्यंत आनंद… निश्चिन्तता की अनुभूति होती थी।

श्रमणों के हृदय में पूज्यश्री के लिए श्रद्धा एवं विश्वास का परम स्थान था।

अरे…! श्रमण ही नहीं किन्तु जो सूरि भगवंत पूज्यश्री से दीक्षा पर्याय में केवल 2-4 वर्ष से छोटे थे उन्हें भी उतना ही प्रेम-वात्सल्य उन्होंने दिया था जिस कारण से वो भी पूज्यश्री को गुरु-तुल्य ही मानते थे।

  1. पूज्यश्री ऐसे व्यक्तित्व के धनि थे कि जिनके सानिध्य में कोई भी व्यक्ति मुक्त-मन से रूठ सकता था, रो सकता था, अपने जीवन के गुप्त रहस्य प्रकट कर सकता था।

  1. पूज्यश्री का सक्त अनुशासन था किन्तु भय नहीं था, अभय का एहसास से परिपूर्ण वह तीर्थ था।

  1. पूज्यश्री को कोई अपने नाम से चुगली करने के लिए जाए तब पाप छिपाने की इच्छा नहीं होती थी किन्तु उसका इकरार कर उस पाप में से मुक्त होने की इच्छा मात्र अवश्य होती थी।

  1. पूज्यश्री के पास वात्सल्य की ऐसी कोमल हथोड़ी थी कि जिससे उन्होंने भले-भलों के जीवन पाषाण में से सुन्दर संयम शिल्प निर्माण का कार्य किया था।

  1. पूज्यश्री ने अस्थिर को सहानुभूति देकर स्थिरता प्रदान की है। बीमार साधुओं की अप्रतिम सेवा-वैयावच्च की है। वृद्ध साधुओं के पास स्वयं सामने से जाते और दूर रहने वाले वृद्ध साधुओं को स्व-हस्ताक्षर लिखित पत्र भेजें हैं। बालमुनिओं के ऊपर तो निरन्तर वात्सल्य का वर्षाव किया किया है।

  1. पूज्यश्री के प्रेम-वात्सल्य से कोई भी वंचित नहीं रहा। आज सभी के स्मृति में सबसे अधिक पूज्यश्री ही आते होंगे, जिसका कारण केवल और केवल उनका वात्सल्य ही था।

  1. पूज्यश्री ने सभी को अपना बना दिया था, सभी के मन में उनके लिए अत्यन्त आत्मीयता थी। इसी कारण से आज उनके बिना सभी अपने आप को अनाथ महसूस करते हैं। छोटी सी छोटी बात का अन्तःकरण पूर्वक ध्यान रखने का स्वभाव था पूज्यश्री का।

बायोकैमिक दवाई और पाचनवटी की ड़िब्बी किसी के पास मिल जाए तो बिना शंका किए समझ लेना कि इसके दाता पूज्यश्री के सिवाय दूसरा कोई नहीं हो सकता।

पूज्यश्री के अन्तिम विदाई के समय 625 साधु थे किन्तु आश्चर्य की बात यह थी की पूज्यश्री को उन सभी के नाम तो पता थे ही लेकिन उन सभी के जीवन के इतिवृत्त से वे भी भली-भाँति वाकिफ थे।

500-1000 कि.मी. तक दूर रहने वाले श्रमणों का भी ध्यान रखकर उनके जीवनरूपी शिलाओं में से सम्यक् चारित्र के सुन्दर एवं आदर्श शिल्प-कृतियों के महान निर्माण कार्य पूज्यश्री करते थे।

वात्सल्यमूर्ति पूज्यश्री के प्रेमपूर्ण पहलुओं की कोई सीमा नहीं थी, उनका वात्सल्य सागर की भाँति अगाध था।

आज भी श्री प्रेम-भुवनभानुसूरि समुदाय की जो निर्मल-उज्ज्वल यशकीर्ति है, उस श्रेय के एक-मात्र अधिकारी पूज्यश्री हैं।


〈 साधु : 〉

संयम-स्वाध्याय और समर्पण रूपी सरिताओं का संगम अर्थात् पूज्यश्री।

पूज्य श्री प्रेमसूरि-भुवनभानसूरि महाराज साहब की पूरी निष्ठा से पूज्यश्री ने सेवा की थी। जिससे उनके जीवन में सम्यक् एवं चुस्त चारित्र की सहजता थी।

यदि किसी को वाचना के लाभ का अवसर प्राप्त नहीं हुआ हो किन्तु केवल पूज्यश्री के जीवन-चरित्र से दृष्टिगोचर हुआ हो तो भी उसे आत्म-कल्याण का हितोपदेश प्राप्त हो सके, इस प्रकार की आदर्श जीवन शैली पूज्यश्री की थी।

अजपा जाप की तरह पूज्यश्री स्वाध्याय करते थे… उनकी आँखे बंध होने के कारण ऐसा प्रतित होता की वे निद्रावस्था में हैं किन्तु उनके होठों पर दृष्टिक्षेप होते ही वह स्वाध्याय में तल्लिन है इसका एहसास होता था। कालधर्म के कुछ दिन पहले भी पूज्यश्री प्रत के पन्नों को खोलकर नित्य वांचन करते थे, ऐसा विरल दृश्य जीवन में अविस्मरणीय एवं भावस्पर्शी है।

84 वर्ष की आयु में भी निरन्तर रूप से शासन-समुदाय की जिम्मेदारी संभालते हुए भी निर्वि-घ्नता एवं अखण्डित रूप से स्वाध्याय करना यह कोई साधारण बात नहीं है।

पूज्यश्री के समर्पण की तो बात ही क्या करें !

पूज्य प्रेमसूरि-भुवनभानुसूरि म.सा. की असीम कृपा से पूज्यश्री अत्यन्त लाभान्वित थे। इन गुरु भगवंतों के कृपा दृष्टि के प्रभाव से ही मंद क्षयो-पशम से परमगीतार्थ का प्रवास पूज्यश्री ने सरल एवं सहजता से किया था।

पूज्यश्री के जीवन में उनके गुरु का स्थान का सर्वोच्च था, उनके लिए गुरु ही परमेश्वर थे।

समुदाय के उत्तराधिकारी के रूप में पूज्यश्री के नाम का जयघोष होने के पश्चात् भी उनके स्वभाव में अत्यन्त विनम्रता थी। पूज्य गुरुदेवों का स्ट्रैचर ऊठाते थे, समर्पण भाव से वेयावच्च करते थे। कदाचित् यह बात हम लोगों को सामान्य लगती हो किन्तु इतने विशाल, उत्कृष्ट और समृद्ध समुदाय के उत्तराधिकारी के रूप में यदि हम लोगों में से किसी को घोषित किया जाए तो अपने कदम तो धरती से चार अँगुल ऊपर ही पड़ेंगे, मही से नाता तोड़कर हम आकाश से स्पर्धा करने लगते हैं क्युँकि सत्ता का अहम् और कुर्सी का अभिमान भले-भलों को मदमस्त बना देता है। पूज्यश्री को गुरुमाँ कहने के लिए ऐसे अनेकानेक कारण केवल निमित्त मात्र हैं किन्तु श्रद्धा नितान्त एवं निरन्तर है।

गुरुदेवों के प्रति पूज्यश्री का समर्पण भाव सर्व-श्रेष्ठ कक्षा का था। उनका अपने एवं शासन-समुदाय के प्रति जो समर्पण भाव था उसे गुरु – देव भली-भाँति जानते थे और इसलिए उनकी वात्सल्य रूपी कृपादृष्टि के मेघ सदैव प्रेम रूपी वर्षा से पूज्यश्री का सिंचन करते थे। कदाचित् इसी कारण से देवलोक गमन किए हुए गुरुदेव पूज्यश्री से मिलने के लिए वारंवार एवं पुनः पुनः पधारते थे। वे किस प्रकार पूज्यश्री से मिलने आते थे… उनके आने के पश्चात् पूज्यश्री क्या करते थे… इत्यादि का सुविस्तृत वर्णन पूज्यश्री ने वि.सं.2062 के पौष महिने में पार्श्व प्रज्ञालय तीर्थ में किया था।

पूज्यश्री का जीवन चमत्कारों के साथ-साथ आदर्श चारित्र्य का द्योतक है… इसलिए बातों को अवकाश देना… और अनुभवों को विस्मृत करना कदापि शक्य नहीं है… किन्तु फिर भी शब्दों की सीमा और कलम की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए विराम देना अनिवार्य है।

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