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पर्युषण की यादें… कुछ खट्टी… कुछ मीठी….

Updated: Apr 12




अरिहंत भगवंत के द्वारा प्राप्त जिनशासन इतना अद्भुत-अनोखा-अप्रतिम है कि जहाँ निरन्तर आत्मा के ध्येय के साथ जुड़े हुए अनेक योग हमें प्राप्त होते हैं।

जहाँ दोषनाश से कर्मनाश और कर्मनाश से संसार-नाश की श्रेष्ठ कक्षा का सिद्धान्त है।

जहाँ द्रव्य-क्षेत्र-काल से हमारे भाव की चिंता की जाती है।

जैसे कि;

? द्रव्य : आवश्यक क्रियाओं में कटासणा, चरवला, मुहपत्ति, दंडासन वग़ैरह का आलम्बन देकर जिनशासन ने उपकार किया।

? क्षेत्र : तीर्थभूमि, कल्याणक भूमि वग़ैरह का आलम्बन देकर उपकार किया।

? काल : पर्युषण, नवपद की ओली, दिवाली, ज्ञान-पंचमी, मौन एकादशी, पौष दशमी जैसे पर्व देकर उपकार किया।

ऐसे द्रव्य-क्षेत्र-काल के सद्-आलम्बनों के द्वारा हमारी भावचिन्ता प्रभु ने की है।

इनमें से आज बात करेंगे “काल” के सद्-आलम्बन की…

पर्वाधिराज पर्युषण के आगमन के 1 महिने पहले से (मास घर से) जैनों में पर्युषण के लिए जोर-शोर से तैयारियों की शुरुआत हो जाती है। और उसमें भी जब 2 – 4 दिन बाकी होते हैं तब देहरासर में, व्याख्यान में जो मिलें उनसे प्रश्न किए जाते हैं कि,

➡️ “इस बार क्या कुछ अट्ठाई, 9 उपवास, क्षीरसमुद्र ऐसा कुछ करने वाले हो ?

➡️ सुबह का प्रतिक्रमण कहाँ करने वाले हो ?”

वग़ैरह… वग़ैरह…

और अन्ततः जिसका बेसब्री से इन्तज़ार होता है उस पर्युषण पर्व का आगमन होता है तब सज-धजकर देवी-देवताओं के जैसे शोभायमान श्रावक -श्राविकाएँ देहरासर-उपाश्रय में दौड़-धाम करते हैं… जैसे कोई महा-महोत्सव ना हो…!

पूजा के लिए दूर-दूर तक लाइनें लग जाती हैं… बड़े-बड़े चढ़ावे बोले जाते हैं… व्याख्यान में सबसे आगे बैठने के लिए भाग-दौड़ करते हैं…प्रतिक्रमण में कटासना को बिछाकर जैसे बुकींग करते हैं… सूत्र, श्री महावीर स्वामी का हालरडा, 27 भवों का स्तवन वग़ैरह बोलने के लिए बोली लगाई जाती है… गुरुवंदन-पच्चक्खाण के लिए उपाश्रय भरे रहते हैं… व्याख्यान हॉल छोटे पड़ जाते हैं…।

और इस पूरे पर्युषण पर्व का सबसे आनन्ददायी क्षण… जिसकी सभी को प्रतीक्षा होती है… वह है…“जन्म वांचन!”

सम्पूर्ण विश्व में उस दिन सभी संघों में आनन्द के घनघोर मेघ बरसते हैं…

प्रभु, धर्म और आगम के प्रति श्रद्धारूपी सर्वोच्च शिखर के दर्शन का सुनहरा अवसर उस दिन प्राप्त होता है…

देव-द्रव्य और साधारण-द्रव्य के खातों की संघों की झोली उस दिन शासन के निष्ठावन्त सेवकों, भाग्यवन्तों के द्वारा छलक-छलककर भरते हुए श्री संघ को निश्चिंत किया जाता है।

लेकिन… किन्तु… परन्तु… इस वर्ष ऐसा नहीं हो सका।

खैर…! छोटे-मोटे स्तरों पर… ग्रुप बनाकर… बिल्डिंग और सोसायटीवालों ने मिलकर छूटक-छूटक और त्रूटक-त्रूटक आराधना की लेकिन उससे सिर्फ दिल को झूठ-मूठ की तसल्ली ही मिली, इसके सिवाय और कुछ प्राप्त नहीं हुआ।

अब में महत्व की बात पर आता हूँ।

जिस प्रकार इस साल जो नए तौर-तरीक़ों से आराधना की गई ऐसी ही परम्परा चलती रहेगी तो जिनशासन को भयानक नुकसान होगा उसमें कोई दो-राय नहीं है।

क्युँकि…

अब घर-घर प्रवचनों के पुस्तक-प्रतें पहुँच गई हैं। लोग उन्हें ही पढ़ेंगे, उपाश्रय तक आएँगे ही नहीं… उसके कारण भी अनेक हैं…

? उपाश्रय में AC, पंखा नहीं है… जगह छोटी पड़ती है…।

? उपाश्रय में होने वाले प्रवचन ज्यादा देर तक चलते हैं और उनका समय फीक्स होता है…।

? उपाश्रय में होने वाले प्रवचनों में रोज़ बीच-बीच में टीप-फंड किए जाते हैं…।

? उपाश्रय में होने वाले प्रवचनों में पीछे बैठना पड़े तो सुनाई भी नहीं देता… वग़ैरह… वग़ैरह…।

उससे अच्छा घर बैठकर ही प्रवचनों का वांचन करें तो उसमें ही सभी प्रकार की अनुकूलता है।

इस नई परम्परा की घातकता मात्र प्रवचनों तक ही सीमीत नहीं है किन्तु “जन्म वांचन” के कारण संघभेद तक पहुँचनेवाली है।

इस साल बहुत से शहरों में ऐसा हुआ है कि भिन्न-भिन्न संघों के सदस्य जो एक सोसायटी-बिल्डिंग में रहते हैं उन्होंने अपनी सोसायटी-बिल्डिंग में अलग से “जन्म वांचन” किया।

अच्छा किया कि बुरा… योग्य किया कि अयोग्य… इसकी चर्चा अभी महत्व की नहीं है… किन्तु…

यदि यह परम्परा ऐसी ही चलती रहेगी… साल-दर-साल ऐसा ही चलता रहेगा तो शासन की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी, इसमें किसी प्रकार की शंका नहीं है।

क्युँकि इससे जो भी पैसा जमा होगा उससे नए-नए 14 सपने आएँगे… फिर हर साल सपने उतरेंगे…

इससे मुख्य संघ के उपार्जन में कटौती होगी। छोटे-छोटे चढ़ावे बोलकर लाभ लेने से देवद्रव्य की वृद्धि में कमी होगी, इससे अपनी धरोहर के समान प्राचीन तीर्थों के जीर्णोद्धार के कार्यों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ेगा। वे तीर्थ जीर्णोद्धार के अभाव से अमूल्य विरासत से खंडहर में तब्दील हो जाएँगे। संघ के बारह महिनों की व्यवस्था में अनेक समस्याएँ खड़ी हो जाएँगी। और इन सोसायटी-बिल्डींगों के जमा हुए पैसे का व्यवहार शास्त्रीय पद्धति से होगा इसका भरोसा कौन दिलाएगा ?

(कहीँ-कहीँ ऐसे देवद्रव्य की राशि में से सोसायटी में गार्डन-खेलने के खिलौने, बैठने के लिए बैंच इत्यादि सामग्री का प्रयोजन किया गया है, इस तरह की बातें भी सुनने में आई हैं।)

जिनका संघों के व्यवस्थापक, ट्रस्टी मण्डल के साथ पहले से ही विवाद है उनके लिए तो “पसंद था और वैद्य ने कहा…” इस प्रकार का मसला हुआ।

एक बात हमेशा याद रखो! संघ की शक्ति समूह में है, टोली में नहीं…!

भले ही आप लोगों को इस साल “जन्म वांचन” का आनन्द आया होगा, उसके लिए ना नहीं है। लेकिन जो आनन्द संघ के स्थान पर प्राप्त होता है वह और कहीं नहीं प्राप्त होता है। यह बात शत-प्रतिशत सही है।

इस साल पढ़े हुए प्रवचनों के पुस्तक या बिल्डिंग में किए गए “जन्म वांचन” ये मुख्य मार्ग नहीं है… केवल डाइव्हर्झन है और इस बात को हम सभी को ध्यान में रखना अत्यन्त आवश्यक है।

जैसे कि अँधेरा है और दिया जले तो आनन्द होना सहज है, वैसे ही कोरोना में सर्वत्र लॉकडाऊन होने से इस प्रकार भी पर्युषण पर्व का उत्सव मनाने के लिए मिलना इससे भी हमें आनंद की अनुभूति हुई है।

अन्यथा बिल्डिंग या सोसायटी में किए गए “जन्म वांचन” का आनन्द दिये की भाँति ही है और संघ का सूर्य के समान दैदिप्यमान्, अविस्मरणीय आनंद होता है… इसलिए दोनों की तुलना करना अयोग्य है।

संघ… संघ होता है…।

इसलिए सकल श्री संघ के भाई-बहनों को मैं यह स्पष्ट रूप से बता दूँ कि इस साल किए गए बिल्डींग-सोसायटी के “जन्म वांचन” की अगले साल पुनरावृत्ति नहीं करनी होगी।

यदि फिर भी आप ऐसा करते हो तो “संघभेद-शासनभेद” जैसे बड़े पाप के भागी बनोगे, दुर्लभ-बोधि बनोगे और आने वाले भवों में अरिहंत परमात्मा के इस जिनशासन की प्राप्ति नहीं होगी।

साथ ही इस साल जो भी उपार्जन हुआ हो उसे अपने-अपने मुख्य संघ में… देवद्रव्य का हो तो देवद्रव्य में और साधारण का हो तो साधारण में जमा करवा दें !

संघ से अलग होने का विचार भी मन को नहीं छूना चाहिए। सस्ते में लाभ लेने के चक्कर में संघभेद का पाप कभी भी ना करें !

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प्रभु से एक प्रार्थना करता हूँ कि,

“हे प्रभु! हर साल की तरह आने वाले वर्ष में भी अनोखे ठाठ-बाट से पर्युषण महापर्व की आराधना हम सभी को संघ में सामूहिक रूप से करने का अवसर प्राप्त हो, ऐसी कृपा करना!”

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