“पर्वाणि सन्ति प्रोक्तानि, बहुनि श्री जिनागमे ।
पर्युषणां समं नान्यत, कर्मणां मर्मभेदकृत् ।।”
भूमिका : वर्ष में (साल में) बारह मास होते है। प्राय: ऐसा कोई महिना नही जिसमें कोई पर्व न आता हो। पर्व आत्मा के परिणामों को ऊँचाई पर पहुँचाने वाला श्रेष्ठ आलंबन है। तीर्थस्थान पर जाने के बाद जैसे कितना भी लालच दे किंतु हम पाप प्रवृत्ति नही करते है वैसे पर्व के दिनों में भी हमें पाप से निवृत्ति लेनी चाहिए। आत्मा को सदा शुभ अध्यवसाय में रमण करने पर्व के दिनों में वह विशेष धर्मप्रवृत्ति करने का लक्ष रखना है।
ज्ञानी भगवंतोने पर्युषण पर्व के पाँच कर्तव्य बताये है। कर्तव्य = फर्ज. जिसे अवश्य करना है उसे कर्तव्य कहते है।
संसारी जीवों को सांसारीक कर्तव्यों में जितना इन्ट्रेस्ट है, उसके दसवें भाग का भी धर्म के कर्तव्यों में इन्ट्रेस्ट है क्यां? बच्चो को व्यवहारिक शिक्षण देना, युवा होने के बाद उनकी शादी करवाना, उनको व्यवसाय में स्थापित करना, यह सब कार्य कंपलसरी और नेससरी लगते है, वैसे ही पर्व के कर्तव्यों का पालन भी कंपलसरी करना चाहिए। इस जिनशासन के प्रत्येक जैनी ने पर्व के दिनों में कर्तव्यों का पालन किया तो विश्व में बहोत सारे पापस्थान घट जाएगें।
सब जैनीयों यदि अमारी प्रवर्तन करने लगे तो सबसे पहले हॉटेल, रेस्टाँरंट और झोमेटो, स्वीगी, फुडपांडा, उबेर इट्स आदि ऑनलाईन फुड डिलीवरी कंपनीओं को नुकसान होगा।
सब जैनी अगर अपने साधर्मिक भाईयों को संभाले तो जो जैन गलत धंधा करके सलाखों के पिछे सड़ रहे है अथवा जो जैनी अशोभनीय कार्य कर रहे है ऐसे साधर्मिक को वक्त पर सहायता मिले तो वह ऐसा कार्य नही करेगे। उसके गलत काम बंद होंगे और वह अपना समय धर्म कार्य में व्यतित करेंगे।
परस्पर मैत्री रखी जाए तो कितने ही कोर्ट के मामले रफादफा हो जाएगे। सर्वत्र आनंद छा जाएगा।
उपवास, छट्ठ, अट्ठम ऐसी तपस्या करते रहे तो शरीर भी स्वस्थ रहता है। किसी बिमारी के चपेट में भी नही आते है। डॉक्टर, दवाई, क्लीनीक, हॉस्पिटल तथा सर्जरी वगैरे की जरूरत भी नही पडती है।
अगर चैत्यपरिपाटी में मन लग जग जाए तो वर्ल्ड टुर पर होनेवाला व्यर्थ खर्चा और वेस्ट ऑफ टाईम भी बच जाएगा।
पाँच कर्तव्यों के पालन से ऐसे भौतिक लाभ कई तरह के होते है और आध्यात्मिक लाभ का तो कोई पार ही नहीं है।
? ⌊ अमारी प्रवर्तन ⌋
मारी = मारना अमारी = नही मारना।
मारी = हिंसा अमारी = अहिंसा।
इस जगत में कौन मरना चाहता है ? कोई भी नही। मक्खी गुड के पीछे, चींटी शक्कर के पीछे, सुअर विष्ठा के पीछे, गाय घास के पीछे, मानव पैसे के पीछे भाग रहा है। हर एक की वासना (इच्छा) भले ही अलग-अलग है किंतु हर जीव में जीने की कामना एक समान होती है। यही जीजीविषा है। मरना तो चींटी भी नहीं चाहती और मनुष्य भी। इस जगत में सबकी जीने की इच्छा समान है।
श्री आचारांग सूत्र का एक सुंदर सूत्र है…
!! सव्वे जीवा न हंतव्वा !!
( किसी भी जीव का हनन नही करना है । )
यह सूत्र भले ही साधु महात्माओं के लिए है किंतु गृहस्थों को हिंसा करने की छुट नहीं मिलती।
त्रसजीवों की तो श्रावकों को भी हिंसा नहीं करनी है। स्थावर जीवों की भी यतना रखनी जरूरी है। अगर हम अपनी लाइफस्टाईल के साथ इस बात को जोड दे को कितने जीवों की विराधना से हम बच जाएंगे।
याद आती है, तीन खंड के अधिपति श्री कृष्ण महाराजा और 18 देश के महाराजा कुमारपाल। चातुर्मास के दिनों में जीवो की विराधना न हो इसलिए द्वारिका तथा पाटण के बाहर भी नहीं जाते थे। जगद् गुरु श्री हीरविजयसूरि महाराज के सत्संग से अहिंसक बनने वाले अकबरने आजीवन मांसाहार का त्याग किया था। अपने राज्य में छः महीने तक अमारी प्रवर्तन लागू कीया था और नये जीवों की हिंसा पर प्रतिबंध लागू किया था।
योगशास्त्र में कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रा-चार्यजी ने हिंसा के त्याग से होनेवाले लाभ का वर्णन करते हुए कहा है।
चित्त की प्रसन्नता बढ़ती है।
रोगरहित काया मिलती है।
सुंदर देह की प्राप्ति होती है।
दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता है।
अनुकूल परिवार मिलता है।
परलोक में सुख-सामग्री मिलती है।
अंत में परमपद (मोक्ष) की प्राप्ति होती है।
वर्तमान समय में जीवदया की बातों का महत्व नहीं रहा, ऐसे बोलने के पूर्व चिंतन करे।
मुंबई में एक व्यक्ति की पत्नी पियर गई हुई थी, वह अकेला था। रात में जब वह सोने की फिराक में था तब उसे खटमल काटनें लगे, उससे यह सहन नहीं हुआ, रातभर लायटर लेकर ढुंढ-ढुंढ के खटमलों को खत्म किया। रातभर जागरण हुआ, सुबह जैसे ही पानी गरम करने के लिए गॅस शुरू किया तो सिलेंडर फट गया, उसका चेहरा जल गया, उसे हॉस्पीटल ले गए, सर्जरी भी की गई किंतु जीवन-भर के लिए चेहरा विकृत हो गया। इस भव में की हुई हिंसा का फल इसी भव में मिला।
पर्युषण के दिन शुरू हुए है। हर जैन का यह कर्तव्य है कि पाप के साधनों का उपयोग कम से कम हो। भूतकाल में इन दिनों में कपडे़ धोना, अनाज पिसना आदि कार्य नहीं होते थे। ज्यादा से ज्यादा समय धर्म की आराधना में समय व्यतीत करते थे।
याद करो उन पूर्व के महापुरूषों को जिन्होंने एक जीव के प्राण बचाने के लिए अपने/खुद के प्राणों का बलिदान दे दिया।
आओ, इस वर्ष से हम यह पक्का वादा करते है की पर्युषण में जो कर्तव्य हम पालन करने वाले है वो हम आजीवन कर दे।
जैसे पानी छानकर ही उपयोग में लेना है। गॅस-चुल्हा शुरू करने के पहले पुंजके लेना है। स्नान के लिए बैठने से पहले स्टुल को चेक कर लेना है। कपडे धोने के पहले जेब चेक करे (पैसो के लिए नही)। गाडी स्टार्ट करने से पहले व्हील के आसपास चेक करलो, कहीं कोई कुत्ते का पिल्ला तो नहीं है।
यह वाक्य भूलना नहीं,
जो जीव को जीवन देता है उसे समाधि मिलती है, जो जीव को मौत देता है उसे मौत की परंपरा मिलती है।
? ⌊ साधर्मिक भक्ति⌋
जिनका धर्म समान होता है वो साधर्मिक कह-लाते है। शास्त्र में साधर्मिक का महत्व लिखा है – “साधर्मिकना सगपण समु, अवर न सगपण कोय” जीव को अनंतकाल में अनेक बार माता / पिता / भाई / बहन / पत्नी / पुत्र के रूप में अन्य जीवों से संबंध प्राप्त हुए है। परंतु इन संबंधों के केन्द्र में स्वार्थ और ममत्व भाव था। साधर्मिक के साथ जो सगाई होती है उसके केन्द्र में धर्म और धर्म की आराधना होती है।
स्व. पू.गच्छाधिपति श्री जयघोषसूरीश्वरजी महा-राजजी ने साधर्मिक वात्सल्य का महत्व बताते हुए कहा है की ‘एक बाजु सभी धर्म और दूसरी बाजू साधर्मिक वात्सल्य’… तब साधर्मिक भक्ति का पलडा भारी होता है। इसका कारण क्या है ? ऐसा प्रश्न पूछने पर पूज्यश्री समाधान देते है, “जीव कीतनी भी पराकाष्ठा की साधना कर ले फिर भी सभी गुणों का अधिकारी नहीं बन सकता है, किसी भी जीव में इतनी शक्ति नहीं होती है कि वह सभी शुभ क्रिया की साधना कर सकें। किंतु वह साधर्मिक भक्ति कर ले तो उसकी आराधना, उसके गुण आत्मसात कर सकते है। श्री संघ रत्नों की खान है, सिद्धत्व का मूल है, अरिहंत का उत्पत्तिस्थान है, संघ में सभी गुण अवस्थित है, इसलिए खुद की आराधना को गौण कर श्री संघ की भक्ति करनी चाहिए।”
वर्तमान, जगत में सबसे ज्यादा नुकसान साध-र्मिक का हुआ है। नौकरी छुट गई, इनकमिंग बंद और आऊटगोइंग (खर्च) हो रहा है। 4 से 5 लोगो का परिवार हो, जरूरतें पूरी कर सके उतनी पूंजी न हो तब साधर्मिक क्या करेगा ? याद रखना एक साधर्मिक को उपर उठाने से केवल साधर्मिक ही उपर नही उठता बल्की धर्म भी उपर उठता है। क्योंकि धर्म का आधार संघ है, अगर संघ ही नहीं होगा तो धर्म कैसे बचेगा।
आओ, पर्युषण पर्व के निमित्त से संभव हो उतनी साधर्मिक को सहायता करनी चाहिए। विवाह, बर्थ डे पार्टी, रीसेप्शन, गेट टु गेदर, पार्टी वगैरे में लाखों रूपयों का व्यय करनेवाले अमीर लोग अगर एक टका रकम वर्ष में साधर्मिक को दे तो मेरा मानना है निर्धन-दुःखी साधर्मिक ढुंढने से भी नही मिलेगा।
? ⌊ क्षमापना ⌋
क्षमापना दो चीजे मांगती है,
1) विस्मरण 2) विसर्जन।
याद रखना हमें क्रोध की भूल का विस्मरण नहीं करना है बल्की साथ ही विसर्जन भी करना है। क्योंकि विस्मरण में अभी तक मन के कंप्युटर में Feed है। जबकि विसर्जन में Delete हो जाता है।
मिच्छा मि दुक्कडम् मांगने/देने के बाद भी अपराध अपने स्मरणपथ में रहता है तो समजना क्षमापना हुई ही नहीं। बिल में रहा हुआ सांप बीन की आवाज सुनते ही बाहर आ जाता है। वैसे ही हमें निमित्त मिलते ही अपराध स्मरण में आ जाता है।
एक कहावत है, ‘अच्छी याददाश्त बड़ी ताकत है, किंतु भूल जाना ईश्वरीय वरदान है।’
हमें कल की हुई गाथा याद नहीं रहती परंतु 10 साल पहले क्रोध में किसी ने गाली दी हो तो वह हमें याद रह जाती है।
किसी की भूल का मन में संग्रह करके रखते हो तो मन में इतना कचरा जमा करते हो, यदि शरीर में इतना कचरा जमा हो तो मौत नजदीक आ सकती है। और मनमें कचरा पड़ा हो तो दुर्गति नजदीक आ सकती है।
एक दिन भी घर में झाडु नहीं लगाया तो घर गंदा हो जाता है, कपड़े में पानी रह जाए तो कपड़ा सड़ जाता है। वैसे हि मन में क्रोध रहा तो वैर में कन्वर्ट हुए बिना नहीं रहता।
प्रश्न : क्रोध बड़ा या वैर ?
जवाब : एक दिन तक मन में रहे वह क्रोध, वर्षो तक मन में रहे वो वैर होता है।
क्रोध सब्जी जैसा है, वैर मुरब्बा जैसा होता है। आज की सब्जी, ज्यादा से ज्यादा शाम तक चल सकती है, बाद में उसे गाय-कुत्ते को देनी पडती है। मुरब्बा तो सालभर चलता है। इस अपेक्षा से वैर, क्रोध से बढ़कर है। कमठ और अग्निशर्मा के जीवन में भव-भव से जो वैर चल रहा था उसके दुखद अंजाम उन्हे भूगतने पडे।
एक महत्व की बात समझने जैसी है, वैर के मूल में क्रोध है तो क्रोध के मूल में अहंकार है। मनुष्य के अहंकार को चोट लगती है तब उसे क्रोध आता है।
चंडकौशिक की आत्मा पूर्वभव में साधु थी, साधु बनने के पहले गरीब ब्राह्मण था। गर्भवती पत्नी को छोडकर कमाने के लिए परदेश निकला। रास्ते में विद्यासिद्ध पुरूष मिला, उसने इस ब्राह्मण को परस्त्री के साथ भोगसुख की व्यवस्था की। परंतु ब्राह्मण ने उस स्त्री को समझाकर वापस भेज दिया। उसने जैन धर्म अपनाया आगे जाकर दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के बाद एक बार उनके पैर के नीचे आकर मरे हुए मेंढक का प्रायश्चित करने के लिए बालमुनि ने कहा तब मुनि को क्रोध आया। क्रोध ही क्रोध में न करने जैसा काम कर बैठे। जिसने कंदर्प को जीत लिया था वो दर्प के आगे हार गये। बालमुनि द्वारा प्रायश्चित की बात से उनके अहं को चोट पहुंची। जिसका परिणाम क्रोध था। अंत में सर्प की योनि में अवतार लेना पडा।
और एक अति महत्व की बात।
? पेट में से मल निकलता है तो आनंद होता है।
? पैर में से काँटा निकले तो आनंद मिलता है।
? आँख में से कचरा निकले तो आनंद मिलता है।
? गले से कफ निकलता है तो आनंद मिलता है।
? शरीर से कचरा निकल जाए तो आनंद मिलता है।
? ठीक वैसे ही हृदय से क्रोध और वैर निकल जाए तो कितना आनंद प्राप्त हो सकता है ?
आओ, इस वर्षे में संवत्सरी प्रतिक्रमण करने से पूर्व अंतर को कषायों से साफ कर सच्चे अर्थ में संवत्सरी प्रतिक्रमण की आराधना करें।
? ⌊ अट्ठम तप ⌋
अनादिकाल से आत्मा का कर्म के साथ संयोग है। उसे तोडने का श्रेष्ठ उपाय है ‘तप’।
तत्त्वार्थ सूत्र कहता है “तपसा निर्जरा च।“
तप से कर्मनिर्जरा होती है। सर्व कर्म का क्षय होने पर आत्मा मोक्ष में जाती है।
मैले शरीर को शुद्ध करने के लिए जैसे स्नान करते है वैसे कर्म से मलीन आत्मा की शुद्धिकरण के लिए तप करते है। संवत्सरी पर्व के प्रसंग पर शक्ति हो तो अट्ठम नहीं तो आयंबिल आदि तप को पूर्ण करने की कोशिश करें। यह भगवान की आज्ञा है।
? ⌊ चैत्य परिपाटी ⌋
चैत्य अर्थात् जिनालय, परिपाटी अर्थात् क्रमशः गाँव के जिनालय / चैत्यो में इन दिनों में एक बार दर्शन के लिए जाना चाहिए। इससे सम्यग्दर्शन का निर्मल होता है।
लाखो-करोडों रूपये लगाकर जिनालय बना सकते है तो कम से कम हम जिनमंदिरों के दर्शन तो कर सकते है ना ?
पर्युषण पर्व के दिनों में इन पाँच कर्तव्यों का पालन कर सच्चे अर्थ में पर्युषण मनाये। यही शुभेच्छा।
コメント