
कौरव कुल में पहला गर्भ मेरी माता गान्धारी को रहा, किन्तु मैं इतना पापी था कि तीस माह तक प्रसव नहीं हुआ। मेरी माता ने प्रसव हेतु अनेक प्रयास किए, किन्तु सभी प्रयास निष्फल रहे। इतना ही नहीं, मेरे गर्भकाल में मेरी माता को पापों से भरे विचार आते थे और वेदना भी बहुत होती थी। उपरान्त मेरी माता की देवरानी कुन्ती, उनके बाद गर्भवती बनी, लेकिन पुत्रवती पहले बन गई, उनकी कुक्षि से युधिष्ठिर का जन्म हो चुका था। ऊपर से उन्हें दूसरा गर्भ भी रहा और उसके भी प्रसव की तैयारियाँ चल रही थी। और मेरे जन्म का तो अब तक कोई ठिकाना ही नहीं था। यह सब विचार करके मेरी माता अत्यन्त व्याकुल हो गई और अपने पेट पर जोर-जोर से मुक्के मारने लगी। ऐसा करने से प्रसव तो हुआ, किन्तु सर फट जैसे ऐसी बदबू के साथ मैं एक मांस-पिण्ड के साथ बाहर निकला, और यह देखते ही माता चीख उठी और विचार करने लगी कि इस मांस-पिण्ड का मैं क्या करूँ ?
मेरे अविकसित आँख, कान आदि अंग देखकर और गर्भकाल के दौरान आए भयंकर स्वप्नों का विचार करके, और जन्म के समय सुनाई दे रहे उल्लू आदि के अपशकुन वाले शब्दों से चिन्तार्त्त और पीड़ार्त्त बनी माता गान्धारी ने मुझे कुल-विनाशी समझकर मार डालने का आदेश दिया। किन्तु उस समय वृद्ध दासियों और मेरे पिता धृतराष्ट्र की दखलअंदाजी से उस आदेश पर रोक लगी, और मैं जीवित रहा।
कुलवृद्धाओं ने मांस-पिण्ड जैसे मेरे शरीर की देखभाल करनी शुरू की। घी से लथपथ कपड़ों में मांस-पिण्ड को लपेट-लपेटकर पहले दुर्गन्धमुक्त किया गया। पूरी सावधानी रखने के कारण कुछ ही समय में मेरा बालक स्वरूप दिखाई देने लगा। यह देखकर मेरी माता को खूब शांति मिली।
जिस दिन मेरा जन्म हुआ, उसी दिन तीन प्रहर के बाद कुन्ती ने भीम को जन्म दिया। मतलब, मेरे और भीम के बीच मात्र तीन प्रहर (नौ घण्टे) का ही अन्तर था। समभावी राजा पाण्डु ने दोनों का जन्म महोत्सव एक सरीखा मनाया।
मेरे पिता धृतराष्ट्र ने मेरा नाम दुर्योधन रखा। मैं और भीम साथ-साथ खेले और साथ-साथ ही बड़े हुए। मेरे पिता के गान्धारी के अतिरिक्त सात पत्नियाँ और भी थी, उनसे अनुक्रम से (मेरे पश्चात्) निन्यानवें पुत्र और हुए। हम सौ भाई सौ कौरवों के नाम से प्रसिद्ध हुए। काका पाण्डु के पांच पुत्र पाण्डवों के नाम से जाने गए। हम सब साथ ही रहते और साथ ही क्रीड़ा करते थे। मेरी एक दुःशल्या नामक बहन भी थी। योग्य वय होने पर उसका विवाह सिन्धु देश के राजा जयद्रथ के साथ करवाया गया।
हम एक सौ पांच भाई रोज सुबह उठकर भीष्म, धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर, सत्यवती, अंबिका, अम्बा-लिका, अम्बा, गान्धारी, कुन्ती, माद्री, कुमुदवती आदि सभी बड़ों को प्रणाम करते और उनके आशीर्वाद लेते थे।
हम 105 भाई खेलने के लिए कभी गंगा नदी के किनारे उछल-कूद करते, कभी पानी में डुबकी लगाते, कुश्ती और अनेक प्रकार की कसरत करते। इन सभी खेल में भीम सबसे अव्वल रहता, किन्तु फिर भी वह सभी भाइयों के प्रति एक सरीखा स्नेह रखता था, और मेरे प्रति तो विशेष। प्रेम के बावजूद भी उसका खेल ऐसा होता कि हमें चोट लगे बिना नहीं रहती। खेल-खेल में भीम हम कौरवों को आसानी से उठाता और अपनी बगल में दबा लेता। हमें वृक्ष पर चढ़ा हुआ देखकर कर वह वृक्ष को जोर से हिलाकर हमें नीचे गिरा देता। यद्यपि ये सब बाल-सुलभ खेल ही था। उसके हृदय में हमारे प्रति जरा भी द्वेष भाव नहीं था। बड़े लोग भी उसकी बाल-सुलभ हरकतों पर गुस्सा नहीं करते थे। बेशक, मैं उसके बाल-सुलभ पराक्रम नहीं देख पाता था। उसकी इन चेष्टाओं ने मेरे हृदय में ईर्ष्या और वैर का बीजारोपण किया। उस समय मेरे मन में उठी वैर और ईर्ष्या की ‘डिम लाइट’ कुरुक्षेत्र के मैदान में बिजली बनकर प्रज्ज्वलित हुई। इस ईर्ष्या ने मेरे जीवन को जलाकर राख कर दिया, खत्म कर दिया, मेरे भवोभव बिगाड़े। सत्य है कि, अज्ञान और जड़ता जीवन के पतन की गहरी खाई होती है।
कभी-कभी भीम और मैं कुश्ती में दो-दो हाथ करने हेतु तैयार होते तो सभी लोग हमारी कुश्ती देखने के लिए इकट्ठा हो जाते। उस समय भीम मेरे शरीर पर ऐसे प्रहार करता कि मैं बचने के लिए अपने भाइयों के पास भागता, और भीम अपने चार भाइयों के पास जाता, तो वे पाण्डव भीम के विजय में पागल बन जाते और उसकी पीठ थप-थपाते। उस समय मैं ईर्ष्या की आग में जलता। यथार्थ में ईर्ष्या बिना लकड़ी की आग है और बिना तलवार की वार है। निस्संदेह विवेकवान युधिष्ठिर का सभी भाइयों के प्रति एक समान स्नेह रहता था और वह इन सब हरकतों को बाल-क्रीड़ा के रूप में ही देखता था।
किन्तु अब तक 105 भाइयों में जो निर्दोष प्रेमभाव था, वह मेरी संकुचित ईर्ष्यालु दृष्टि के कारण नाश होने लगा और उसके स्थान पर भेदभाव ने जगह बनाई। फिर तो भीम को मारने के लिए मैंने अनेक युक्तियाँ की, जैसे:
1. भीम गाढ़ निद्रा में हो तब उसे वेलड़ी से बाँध-कर पानी में गिराना।
2. उस पर जहरीले सर्प छोड़ना।
3. उसके भोजन में जहर मिलाना, आदि।
किन्तु मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। मेरे सारे पैंतरे बेकार गए, ये सभी प्रयास भीम को खराब असर करने की बजाय अच्छा असर करने वाले बने। भीम के लिए प्रतिकारक और रामबाण रसायन साबित हुए। उस समय भी भीम यही विचार करता था कि मैं यह सब बाल चेष्टा के रूप में कर रहा हूँ। जैसे कपटी कभी भी अपनी कपट दशा नहीं छोड़ता, वैसे ही सरल व्यक्ति भी अपनी सरलता नहीं छोड़ता। अन्त में हम सबको हमारे बड़े भीष्म, विदुर आदि ने कृपाचार्य और द्रोणाचार्य जैसे महान और विद्वान गुरुओं से शस्त्राभ्यास और शास्त्राभ्यास हेतु भेजा गया। इस कार्य में अर्जुन सबसे आगे रहा। उचित समय पर हम सबका विवाह हुआ।
समय बीता और युधिष्ठिर का हस्तिनापुर के सिंहासन पर राज्याभिषेक हुआ। उस प्रसंग पर निर्मित हुई दिव्यसभा में नीलमणियों की रचना इस प्रकार की गई थी कि फर्श के स्थान पर जल होने की भ्रान्ति हो जाए। इसलिए मैं कपड़े ऊपर करके चलने लगा। फिर आगे बढ़ा तो वहाँ वास्तव में पानी का कुण्ड था, लेकिन मुझे सपाट धरती का भ्रम हुआ और मैं उस कुण्ड में गिर गया। यह देखकर भीम जोर से हँसने लगा, इस कारण मुझे बहुत बुरा लगा। ऐसा बार-बार हुआ, और यह देखकर युधिष्ठिर के अलावा बाकी पाण्डव जोर-जोर से हँसने लगे, और उसी समय द्रौपदी के मुख से निकले शब्द, ‘अन्धे जाया अन्ध’ अन्धे का पुत्र अन्धा ही होता है, इन शब्दों सुनकर और मेरे इस अपमान से मैं आगबबूला हो गया। मेरे मन में गुस्से की आग दहकने लगी। हालाँकि युधिष्ठिर ने मुझे शान्त करने के थोड़े-बहुत प्रयास किए मुझे शान्ति नहीं मिली, और बचपन से हृदय में पाण्डवों के प्रति बन्धी वैर की गाँठ एकदम मजबूत बन गई। सत्य है, कि जीभ परमाणु बॉम्ब से भी अधिक खतरनाक होती है। इसका ब्लास्ट करोड़ों लोगों का संहार करता है। महाभारत के युद्ध में करोड़ों सैनिकों के रक्तसंहार के पीछे यह ईर्ष्या और जीभ ही कार्य कर रही थी।
किसी शायर ने सत्य ही कहा है, कि
रसना में अमृत बसे, रसना विष भी होय
मिले लाख ईनाम भी, जान हानि भी होय
मैं खुद इन्द्रप्रस्थ नगरी का राजा था, किन्तु दिव्य-सभा की दिव्यता, पाण्डवों द्वारा उड़ाई गई मेरी हँसी और पाण्डवों की दिन-प्रतिदिन होती प्रगति मुझे समिलकर हमने एक योजना बनाई। हस्ति-नापुर से बेहतरतत बेचैन करती थी। मेरे मन में ईर्ष्या की अग्नि तीव्र रूप से जल रही थी। शुरू में मामा शकुनि ने मुझे ईर्ष्या छोड़कर प्रमोद धारण करने हेतु बहुत समझाया, किन्तु मुझे या तो पाण्डवों का नाश, या फिर मेरे प्राणों का नाश, इन दो विकल्पों के अतिरिक्त और कोई बात सूझ ही नहीं रही थी।
वैसे मेरे पिता ने भी मुझे पाण्डवों के प्रति ईर्ष्या न करने और प्रमोद भाव रखने के लिए बहुत समझाया, किन्तु मैं टस से मस नहीं हुआ। जब मैंने आत्महत्या की धमकी दी तब पुत्र-मोह में अन्ध मेरे पिता ने मेरा पक्ष लिया।
फिर मामा शकुनि के साथ एक दिव्य सभा का निर्माण इन्द्रप्रस्थ में किया। पाण्डवों को निमन्त्रण देकर वहाँ द्यूतशाला आयोजित करके उन्हें जुए में हराना था। हमारे मन की मैली मुराद के अनुसार सब कुछ हुआ। जुए में जब युधिष्ठिर सब कुछ हार गया तो मामा शकुनि ने उसे द्रौपदी को दांव पर लगाकर सब कुछ वापिस जीत लेने के लिए आखिरी बाजी खेलने की सलाह दी। ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ सबके मना करने पर भी युधिष्ठिर ने द्रौपदी को दांव पर लगाया। जब दशा खराब चल रही हो तो सद्बुद्धि कहाँ से होगी ?
पाण्डवों द्वारा द्रौपदी को दांव में हारते ही मैंने अपने छोटे भाई दुःशासन को आज्ञा दी, कि द्रौपदी अब हमारी सम्पत्ति है, तू उसे इस सभा में लेकर आ। जब दुःशासन द्रौपदी को लेने गया, तो द्रौपदी ने उसे अच्छे से समझाने की बहुत कोशिश की, किन्तु सब व्यर्थ गया। दुःशासन ने द्रौपदी की चोटी पकड़ी और उसे घसीटते हुए सभा में लेकर आया। भीष्मादि सब बड़े-बुजुर्ग और पाण्डवों ने यह दृश्य देखकर अपनी नजर नीची कर ली। अतिशय रो रही द्रौपदी के रूप को देखकर मैं मुग्ध हो उठा और बोला कि, ‘तुझे जुए मैं हार दिया गया है, अब तू मेरी है। मेरे पास आ, हम मौज करेंगे। आकर मेरी जंघा पर बैठ।’
यह दृश्य देखकर लोगों में हाहाकार मच गया। कुछ लोग रोने लगे, तो कुछ अचेत होकर धरती पर गिर पड़े। क्रोधवश द्रौपदी और भीम की आँखों में से मानो अंगारे बरसने लगे। द्रौपदी के कटु वचनों से मैं क्रोधान्ध बना और दुःशासन को उसकी साड़ी खींचने की आज्ञा दी। क्रूर हृदयी दुःशासन चीरहरण हेतु तत्पर हुआ, किन्तु उस महासती के शील के प्रभाव से क्षेत्रदेवताओं ने चीर की आपूर्ति की। उस समय कुरुवंश की कीर्ति की कत्ल-ए-आम होती देखकर विदुर से रहा न गया और उन्होंने अग्नि के समान तीक्ष्ण शब्दों से मेरे पिता धृतराष्ट्र को बहुत बुरा-भला कहा, मेरी नीचता सबके सामने प्रकट की। विदुर का पुण्यप्रकोप देखकर मेरे पिता सहित सभी लोग घबरा गए। मेरे पिता भी व्याकुल हुए और अपना ‘वीटो’ इस्तेमाल करते हुए उन्होंने द्रौपदी को छोड़ने की आज्ञा की। इसलिए दुःशासन ने द्रौपदी को छोड़ दिया।
वास्तव में गर्भकाल में मैंने मेरी माता को कुल के हत्यारे के रूप में संकेत दिया ही था, आज वही सत्य साबित हुआ। मेरे द्वारा कुरुकुल को कलंक लगा, कुल का नाश हुआ। निस्संदेह मेरी माता इस आर्य देश की नारी थी, आदर्श माता थी। युद्ध के समय जब मैं उनसे आशीर्वाद लेने जाता, तब वह कहती थी कि, ‘यतो धर्मस्ततो जयः’, जिस ओर धर्म है, उसकी विजय हो। बेटा तेरे पक्ष में धर्म नहीं है।’
बेशक मेरा जीवन बनाने में मेरे पिता का अधिक योगदान था, मैं पितृभक्त था। यदि मेरे पिता मुझे अच्छे रस्ते ले जाते तो मेरी यह हालत नहीं होती। माता-पिता का काम सन्तान को मांस-पिण्ड के रूप में जन्म देने से पूरा नहीं होता, उन्हें सन्तान का संस्करण करना होता है। यदि इसमें माता-पिता से कोई भूल हो जाए तो उसकी अव्यक्त असर सन्तान पर पड़ती है जो आगे जाकर व्यक्त होती है, और उसका नाश करती है।
ऐसा भी कह सकते हैं कि मैंने और पिता धृतराष्ट्र ने अपने गलत इरादों और गलत पुरुषार्थ के कारण ही मार खाई। अपने पूर्वकृत कर्मों का हवाला देकर अपने दुष्कृत्यों का बचाव नहीं किया जा सकता।
1) जब युद्ध नहीं करने के कारण मध्यस्थ के रूप में आए श्रीकृष्ण को मैंने कैद करने का नाहक प्रयास किया,
2) पांच पाण्डवों को मात्र 5 गाँव देने की श्री-कृष्ण की समझदारी भरी सलाह की अवगणना करके उन्हें सुई के नोक जितनी भी जमीन न देने का कदाग्रह,
3) द्रौपदी को भरी सभा में अपनी जंघा पर बैठने का आदेश
ये सब मेरी धृष्टता का ही तो परिणाम था।
विशेषतः, अन्त में मेरी अति भयानक करुण मृत्यु हुई, जिससे मेरे जीवन की अधमता की कल्पना की जा सकती है। यथार्थ में, मैं स्वार्थी था, अपने ही प्रेम में गिरा हुआ था, मुझे दुनिया या देवाधि-देव से कोई लेना-देना ही नहीं था।
अन्त समय में श्रीकृष्ण के कहने से भीम ने मेरी जांघ पर इतनी जोर से प्रहार किया कि मेरी जंघा की हड्डियाँ चूर-चूर हो गई। उस समय अतिशय वेदना से चीखते हुए मेरी मनोस्थिति अत्यन्त घातक हो गई थी। उस समय मैंने अश्वत्थामा को पाण्डवों का सर काटकर लाने को कहा। उस समय रात्रि के अन्धकार में उसने गलती से पांच पाण्डवों की जगह उनके पांच पुत्रों का सर काटा और उन पांचालों का रक्तरंजित सर मेरे पास लेकर आया। मैं यह देखकर निःश्वास लेते हुए चीखकर बोला, ये तो पांचाल हैं, पाण्डव कहाँ हैं? पाण्डवों के जिन्दा बचने के आघात से मुझे हताशा हुई, और शारीरिक वेदना तो असह्य थी ही। अन्ततः युद्धभूमि पर ही प्राण त्याग कर मैं सातवीं नरक गया। जैसी मति, वैसी गति। मेरे तो जन्म, जीवन और मृत्यु तीनों ही बिगड़े, बाकी क्या रहा ?
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