पूज्य चिदानंद जी महाराज रचित प्रथम अध्यात्म-पद परिशीलन
स्व में समा जाने का स्वर्णिम अवसर
प्रश्न के प्रश्न का प्रश्न
परिणति होगी या नहीं,
वास्तव में यह प्रश्न है ही नहीं,
परिणति तो प्रत्येक समय में हो ही रही है।
वास्तव में प्रश्न यह है,
कि कौन-सी परिणति हो रही है?
स्व परिणति, या पर परिणति?
यदि स्व परिणति हो रही है, तो शाश्वत पद हाथ में ही है।
यदि पर परिणति हो रही है, तो खेल खत्म!
जो जीवन और मृत्यु का प्रश्न होना चाहिए,
उसके बारे में तो हमें प्रश्न ही नहीं होता है।
यही हमारा सर्वोत्कृष्ट दुर्भाग्य है।
वास्तव में तो यह एक जीवन-मृत्यु का प्रश्न नहीं है,
बल्कि अनंत जीवन-अनंत मृत्यु का प्रश्न है।
सद्गुरु की करुणा यहाँ पर दो कार्य कर रही है।
एक, प्रश्न जगा रही है,
और दूसरे, उत्तर की प्राप्ति करा रही है।
सद्गुरु का यह प्रयास है –
आपको खुद के भीतर वापस लाने का,
उन्होंने तो कोई कमी नहीं छोड़ी है।
चलिए, पकड़ते हैं सद्गुरु की उंगली।
हम भी कोई कमी नहीं रखेंगे
आत्म परिणति के पंथ पर।
सीधे अंदर
पू. चिदानंद जी महाराज
प्रथम अध्यात्म पद में आत्मा के दो पहलुओं के बारे में संकेत करते हैं। सुमता और कुमता।
मोक्ष हेतु मार्गानुसारी क्षयोपशम का पर्याय सुमता है, और भाव हेतु मार्ग विरुद्ध कदाग्रह, कुमता है।
सद्बुद्धि सुमता है, और दुर्बुद्धि कुमता।
सुमता, आत्मा को विनती करती है, पर-परिणति से वापस लौटने की, और स्व-परिणति में डूब जाने की।
कुमता की बात उल्टी है।सुमता हृदय के उद्गारों के साथ
पर-परिणति में प्रवेश करने के दुष्परिणाम समझाती है।
‘पर’ का कोई प्रयोजन ही नहीं है।
यह सत्य का पर्दाफाश करती है।
आत्मा मंत्रमुग्ध होकर सुनती रहती है,
और उसके बाद क्या होता है…?
थोड़ा परिशीलन के लिए बाकी रखते हैं।
चलिए अब सीधे पद के भीतर जाते हैं।
आत्म परिणति हमारी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही है।
प्रथम पद
पिया ¹, पर-घर मत जाओ रे, करी करुणा महाराज।
कुल मरजादा लोप के रे, जे जन पर घर जाय;
तिणकु उभय लोक सुण प्यारे, रंचक² शोभा नाय।…1
कुमता संगे तुम रहे रे, आगे काळ अनाद;
तामे मोह ³ दीखावहू⁴ प्यारे, कहा निकाल्यो स्वाद?…2
लगत⁵ पिया कह्यो माहरो रे, अशुभ तुम्हारे चित्त;
पण मोथी⁶ न रहाय पिया रे, कहा बिना सुण मित्त।…3
घर अपने वालम कहो रे, कोण वस्तु की खोट;
फोगट तद किम लीजिये प्यारे, शीश भरम की पोट।…4
सुनी सुमता की विनती रे, चिदानंद महाराज;
कुमता नेह निवार के प्यारे, लीनो शिवपुर राज।…5
1. प्रिय 2. लेश-मात्र 3. मुझे 4. दिखाओ 5. लगता है 6. मुझसे
पिया, पर-घर मत जाओ रे,
करी करुणा महाराज।
कुल मरजादा लोप के रे, जे जन पर घर जाय;
तिणकु उभय लोक सुण प्यारे, रंचक शोभा नाय। …01
शुद्ध स्वरूपात्मक आत्मचेतना आत्मा से कहती है कि,
हे प्रिय! हे महाराज! आप करुणा करके पर-घर में मत जाइए।
जो कुल मर्यादा का लोप करके पर-घर में जाता है,
उसकी उभयलोक में कोई शोभा नहीं होती है। ॥१॥
हमारे यहाँ कुल की उच्चता या नीचता का आधार चारित्र होता था। दृढ़ चारित्र वाले उच्चकुल के, तथा हीन चारित्र वाले नीचकुल के माने जाते थे। नीचकुल की नारी दूसरे के साथ सम्बन्ध रखती थी, दूसरे के घर जाकर बैठ जाती थी। बस, पति बदल जाता था।
धिग् ब्राह्मणी-र्मृते पत्यौ, या जीवनि मृता इव।
धन्यां शूद्रीमहं मन्ये, पतिलक्षेऽप्यनिन्दिता॥
धिक्कार है उस ब्राह्मणी को, जो पति की मृत्यु के बाद मुर्दे की तरह जीती है। मुझे तो शूद्री ही धन्य लगती है, जिसके लाख पति होने पर भी वह निंदनीय नहीं बनती।
ऐसा प्राचीन श्लोक देखने को मिलता है, जिसका सार यह है कि नातरा करे, वह नीच। दूसरे के घर पर जाकर बैठ जाना, अर्थात् नातरा करना। आत्मा जब स्वद्रव्य-रूप अपना घर छोड़कर परद्रव्य-रूप दूसरे के घर को अपनाती है, तब वह वास्तव में नातरा करने की ही घटना होती है।
परभावगमन, नैश्चयिक नीच गोत्र का उदय है। परपरिणति गमन, नैश्चयिक व्यभिचार है।
पिया पर घर मत जाओ रे
पू. चिदानंद जी महाराज सरलतम शब्दों में गहन-तम बात कर रहे हैं।
कुल मरजादा लोप के, जे जन परघर जाय
तेरा कुल कौन-सा है? अनंत सिद्धों का जो कुल है, वही तेरा भी कुल है। उसकी मर्यादा है – अविरत स्वद्रव्यमात्र परिणति। उसका लोप, यानि परद्रव्य परिणति। याद आती है वह आनंदघनीय लय…
जात आनंदघन
शुद्धात्मा की जाति और उसका कुल और क्या हो सकता है, सिवाय आनंदघन के।
गाभ आनंदघन
उसकी लाज, उसकी मर्यादा वह भी आनंदघन ही है।
कुलकरों ने मर्यादालोप में हाकार, माकार और धिक्कार नीति लागू की थी। भरत चक्रवर्ती ने साम, दाम, दंड और भेद की नीति लागू की थी। आत्मा जब मर्यादा का लोप करती है, तब वह भेदनीति की भोग बन जाती है। जहाँ स्वरूप का भेद हो जाए, जहाँ आत्मा, आत्मा के रूप से मिट जाती है। शुद्ध पानी ही पानी होता है, गटर के पानी को पानी कैसे कह सकते हैं? पीने के, नहाने के, धोने के लिए जो पानी किसी भी काम का नहीं है, उसे पानी कैसे कह सकते हैं? अनंत ज्ञान, अनंत दृष्टि, अनंत शक्ति – यह आत्मा का काम है। ऐसी आत्मा का कोई भी काम जो नहीं कर सकता, उसे आत्मा कैसे कह सकते हैं?
पर परिणति का सीधा अर्थ है – पर रूप में परिण-मन होना। स्वत्व से भ्रष्ट हुए बिना यह संभव ही नहीं है। इसीलिए महोपाध्याय श्री यशोविजय जी महाराजा ज्ञानसार में कहते हैं, ‘स्वद्रव्यगुणपर्याय चर्या – वर्या पराऽन्यथा।’
स्वद्रव्य, स्वगुण और स्वपर्याय में रमण करना ही अच्छा है। परद्रव्य, परगुण और परपर्याय में रमण करना अच्छा नहीं है।
तिनकुं उभय लोक सुण प्यारे, रंचक शोभा नाय
पर प्रवृत्ति में इहलोक और परलोक, दोनों ही बर्बाद हो जाते हैं। पूछिए अपने आप से, पूरे जीवन में स्वप्रवृत्ति की कितनी क्षण हैं? हम स्व में कब डू़बे? पर से कब छूटे?
कुमता संगे तुम रहे रे, आगे काळ अनाद;
तामे मोह दीखावहू प्यारे, कहा निकाल्यो स्वाद? …02
कुमता के संग आप अनादि काल तक रहे।
उसमें क्या स्वाद आया? मुझे दिखाएँगे? ॥२॥
हमने पूरे भवचक्र में “पर” नामक बैल को दोहने का ही धंधा किया है, पर दूध की एक बूंद भी अब तक हमें नहीं मिली। तो अब कब तक उस बैल को दोहते रहने का हम निरर्थक प्रयास करते रहेंगे? पू. चिदानंद जी का यही आशय है।
कुमता का अर्थ है – दुर्बुद्धि, कदाग्रह। बैल को ही दोहना है – ऐसा असद्भिनिवेश। पर से ही सुख प्राप्त करने का आग्रह। सुख का आग्रह रखना ठीक है, किंतु सुख के स्रोत के प्रकार का आग्रह रखना सही नहीं है। जहाँ प्रकार का आग्रह आता है, वहाँ सुख का आग्रह छूट जाता है। वहाँ यह भूमिका आ जाती है, कि यदि इस प्रकार से सुख मिलता हो, तो ही चाहिए। “इसी प्रकार से,” वर्ना नहीं चाहिये। हकीकत में तो यहाँ न तो सुख का आग्रह है, और न ही प्रकार का आग्रह, यहाँ मात्र मूर्खता का आग्रह है।
उसमें भी, जब वह ‘प्रकार’ सही मायनो में ‘प्रकार’ ही न हो, तब वह मूर्खता अपनी सारी सीमायें पार कर जाती हैं। जैसे – ‘मुझे तो रेत में से ही तेल चाहिये।’
कुमता; रेत पीलने का मशीन मिल जाए, उसे चलाने वाला आदमी भी मिल जाए, वह मशीन बराबर चल भी जाए – ये सारे आग्रह ही गलत हैं, क्योंकि शायद ये सब कुछ हो भी जाए, तो भी आखिर में तेल तो मिलने वाला है ही नहीं।
पू. चिदानंदजी महाराज कहते हैं:
कहा निकाल्यो स्वाद
आप अनादिकाल से इस मशीन में रेत पील रहे हो। आपको तेल की एक बूंद भी मिली हो, तो बताओ। अभी भी आपको उसकी आशा है?
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