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प्रभु का आध्यात्मिक जन्म

Updated: Apr 8




माता के गर्भ से निष्क्रमण होना जन्म कहलाता है,

पर चेतना का शरीर में से निष्क्रमण होना  

जागरण कहलाता है।

जन्म से पूर्व ही जागरण की धारा में ज्योतिर्मय हो चुके थे प्रभु….।

जब शरीर के निर्माण की विश्व के समक्ष प्रस्तुति हो,

उस घटना को लोग जन्म कहते हैं। 

और ज्ञानी विश्वविमुख होकर जब चेतना को 

आत्मसमक्ष करे, उसे वास्तविक जन्म समझते हैं।

जिस जन्म को मरने का अहसास कभी सहना न पड़े 

वो ही सत्य-जन्म है।

सत्य का जन्म कभी होता नहीं है, पर जब सत्य का 

अनुभव हुआ तब असत्य के गर्भावास से बाहर आना होता है,

वही आध्यात्मिक जन्म है।

त्रिशला महारानी की कुक्षी से प्रभु का जन्म होने की तैयारी है।

परमात्मा के प्रचंड पुण्य से चारों ओर शुभ – 

मंगल – आनंद और उल्लासपूर्ण वातावरण है। 

दिशाओं में उद्योत है,

जन-जन में अकारण उमंग है। 

आकाशमंडल में नक्षत्रों का संचार भी परम

शुभत्व की वृष्टि कर रहा है।

गर्भस्थ प्रभु अवधिज्ञान से सब जान रहे हैं, देख रहे हैं, 

फिर भी तटस्थ हैं।

सामान्य बालक गर्भ में कितना व्यक्त होता है?

प्रभु तो गर्भ में आये तब से संयोगाधीन निर्माण को 

सूक्ष्म रूप से जानकर भी अत्यंत अलिप्त हैं।

गर्भ के बाहर का भी सब ज्ञात हो रहा है।

अपने पुण्य के प्रभाव से घटित होने वाले सभी परिवर्तनों का संबंध 

प्रभु खुद से नहीं जोड़ रहे हैं, क्योंकि पुण्य को भी प्रभु 

अपने स्वरूप से भिन्न ही समझ रहे हैं।

इस प्रभुता के दर्शन करके ही देवों के सम्राट इन्द्र भी पगला जाते हैं।

और अहोभाव से रोमांचित बन जाते है।

अपने अखंड और पूर्ण स्वरूप से च्युत न होना ही प्रभुता है। 

सारा संसार खंडित और अपूर्ण है, क्षणिक और वियोगमय है, वहाँ प्रभुत्व कैसे रह सकता है? 

रहे तो भी वो किराए पर लिए गहने जैसा होता है, 

जिसमें स्वामित्व से ज्यादा गुलामी का अनुभव होता है। 

प्रभु का स्वामित्व अपने स्वाधीन स्वतंत्र स्वरूप से प्रगट हुआ।

जिसे नमन करने को पूरा विश्व उत्कंठित हुआ…

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