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त्रिशला रानी शंकित हो गये,
क्योंकि गर्भ का स्पंदन अब बंद हो गया है।
जीवन की कल्पना स्पंदन से होती है,
जीवन का अनुभव तो निःस्पंद से मिलता है।
त्रिशला रानी के गर्भ में जो रचना हो रही थी,
वो सारी स्पंदन से जुड़ी हुई थी।
लेकिन जिसकी रचना ही नहीं हुई और फिर भी
सारी रचना जिसके ऊपर हो रही थी,
वो चैतन्य निःस्पंद था…।
प्रभु रचना के स्पंदन से नहीं, पर निःस्पंद में विराजमान थे…।
और इसी कारण रचनाओं ने भी अपना कंपन स्थगित कर दीया…।
संसार कंपन से चलता है।
कंपन नहीं दिखे तो बड़ी बेचैनी आ जाती है…।
वृक्षों में पत्तों का, सरोवरों में पानी का, वातावरण में हवा का,
शरीर में धड़कनों का, मन में विचारों का कंपन चाहते है हम…!
और कंपन का अर्थ है अस्थिरता…।
अस्थिरता यानी अपने मूलरूप को खो देना…।
कंपन औरों से आता है, औरों से हटे तो निष्कंप तत्त्व है।
जन्म भी कंपन है, मृत्यु भी कंपन,
सर्जन भी कंपन है, विसर्जन भी कंपन…।
कंपन के अलावा संसार में है क्या?
प्रभु तो गर्भ में भी संसार से अगवा है
निष्कंप में प्रविष्ट है…।
और कंपनों के साक्षी है…।
प्रभु ने जिस औचित्य से अपनी शारीरिक रचनाओं को
संयमित किया था। उसमें भाव था, माता को कष्ट न हो।
पर माता को अधिक कष्ट हुआ।
माता तो शरीर की माता होती है।
शरीर जीवंत होने का प्रमाण स्पंदन से मिलता है।
स्पंदन नहीं महसूस हुआ तो माता नाराज…।
गुरुमाँ, परमात्मा अध्यात्म की माँ है।
अध्यात्म जीवंत होने का प्रमाण निःस्पंदन के स्पर्श से मिलता है।
चेतना स्पंदित हुई तो गुरुकृपा और प्रभुकृपा का प्रवेश द्वार बंद हो जाता है…।
प्रभु महावीर ने पूर्व भवों में अनंत सद्गुरु और अनंत परमेश्वर की सहज कृपा झेलने के अभ्यास को निस्पंदता के रूप में सिद्ध कर लिया था…।
ज्ञात हुआ कि माता को स्पंदन से शांति मिलेगी,और प्रभु ने अपनी शारीरिक रचना का एक भाग – अंगुष्ठ प्रमाण स्पंदित किया…।
अर्थात् प्रभु की चेतना निष्कंप थी और स्पंदन जो करने पड़े थे। उसमें वे जुड़े नहीं थे…।
उचित करने के लिए आग्रह छोड़ना पड़ता है।
प्रभु ने माता के सुख के लिए स्थिर होने का निर्णय किया था, परंतु स्थिर होने से माता को सुख के बजाय दुःख उत्पन्न हुआ।
माता के शरीर को पीड़ा न हो इसलिए स्थिर हुए प्रभु,
और माता के मन में पीड़ा उत्पन्न हो गई।
शरीर की पीड़ा से मन की पीड़ा ज्यादा दुःखदायिनी होती है…।
प्रभु ने अपना निर्णय बदल दिया, छोड़ दिया आग्रह…!
इस घटना से हम सीखें, प्रभु की अंतर्लीन और औचित्यपूर्ण अवस्थाओं को कैसे देखे? जिससे हमारे भीतर गुण और तत्त्व का प्रागट्य हो…।
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