माता से अलग होना अगर भौतिक जन्म है,
तो शरीर से अलग होना आध्यात्मिक जन्म है।
अलग हुए बिना जन्म नहीं होता,
प्रभु गर्भ में थे तो माता के साथ जुड़े हुए थे,
जुड़ाव हटा, और जन्म हुआ !
स्वतंत्रता छूटने से ही तो आती है।
और माँ वो है जो पुत्र की स्वतंत्रता से प्रसन्न होती है,
नौ मास के बाद कोई माता नहीं चाहेगी कि
पुत्र जुड़ाव की जेल में बंधा रहे…।
नौ मास भी जो बंधन था, वह भी मुक्ति के लिए था,
जन्म है क्या? बंधन से मुक्ति
लेकिन शरीर से शरीर की मुक्ति होने से
आत्मा खाक मुक्त होगी ?
शरीर से मुक्त होना भी आत्मा की अधूरी मुक्ति है,
और अधूरी मुक्ति को मौत कहते हैं।
पूर्ण मुक्ति तो वह है जहाँ शरीर के कारणों से भी
आत्मा छूट जाए,
शरीर धारण करने का कारण है कर्म, और कर्म का कारण है,
अपने आपसे बिछड़ जाना, मोह, इच्छाएँ…।
प्रभु जन्म लेते समय सिर्फ गर्भ से ही नहीं, पर
शरीर, कर्म और राग-द्वेष, इन सबके जुड़ाव से परे थे,
प्रभु सब कुछ पास में होने पर भी उनके पास में न थे,
‘सब’ था पर ‘कुछ’ न था।
च्यवन होने की घटना को प्रभु नहीं जान पाए थे,
जन्म होने की घटना को प्रभु साक्षी बने,
लेकिन जाना / अनजाना का कोई महत्त्व नहीं है प्रभु को,
अवस्थाओं को जाना तो भी क्या ? नहीं जाना तो भी क्या ?
जानने वाला जानने में आ रहा है,
यही ज्ञान है।
इसके अतिरिक्त सब आभास मात्र है…।
प्रभु का जन्म होते ही प्रभु ने जाना था, जान रहे थे कि
56 दिक्कुमारियाँ आएगी या आ रही हैं,
सौधर्मेन्द्र आएँगे, या आ रहे हैं
अखिल प्रकृति में उल्लास की अभिव्यक्ति आएगी या आ रही है,
ये सारा स्पंदन यूँ तो प्रभु के ही पुण्य से आविर्भूत हुआ था,
हो रहा था, किंतु
प्रभु उस पुण्य के संबंध से अलिप्त केवल शुद्धि, अपनेपन में
आस्थित थे…।
जब तक हम प्रभु के आंतरिक स्वरूप को नहीं समझते,
तब तक हम जन्म मना सकते हैं, कल्याणक नहीं
जन्म शरीरधारित घटना है, और कल्याणक वो है,
जो इस घटना में होते हुए भी घटना से अतिक्रांत है…।
उनका स्मरण भी कल्याण कर देता है…।
क्या है वो ?
प्रभु की शुद्ध चेतना… जो हमारे भीतर भी प्रगट हो सकती है।
बस आवरण है, और वह आवरण यह कि उसे नहीं जानना है।
प्रभु के स्वरूप को जानने से
हम अपने आप को जान सकते हैं,
आवरण टूटता है…
और आत्मस्वरूप भगवान प्रकट हो जाते हैं।
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी की रजनी में
चन्द्र की ज्योत्सना अधिकाधिक विराट, सौम्य, शुभ और
आनंदवर्धक बन रही थी,
सोए हुए लोग उठ गये,
क्योंकि निद्रा श्रमवश लगती है।
सारा श्रम दूर हो गया…,।
तन-मन ऊर्जाओं से व्याप्त हो गया…।
क्योंकि जिनको आनंद के लिए कारण की अपेक्षा न थी
उनका आगमन हो रहा था…।
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