भक्ति की पात्रता विकसित करें
- Panyas Shri Labdhivallabh Vijayji Maharaj Saheb
- May 17, 2020
- 4 min read
Updated: Apr 12, 2024

आन्तरिक सौंदर्य की चित्ताकर्षक मोहकता
जिनके हर कदम पर अनावृत थी,
जिनकी आत्मनिष्ठ अदा से
घायल होते थे सब समझदार,
वे हो जाते थे उनके पीछे कायल और कायल बनने के बाद पागल।
उस में भी उन्हें ऐसा लगता था, कि
यह पागलपन ही समझदारी का असली फल है।
भौतिक जगत में ऐसा कहा जाता हैं, कि
पागल बना दे, ऐसी समझदारी किस काम की,
किन्तु आध्यात्मिक जगत में तो यह कहते हैं, कि
पागल न बनाये ऐसी समझदारी किस काम की।
बिना पागल बने कुछ बातें समझ नहीं आती,
पागल होने का गुण,
भक्त होने का प्रमाण है।
आइए पागल बनते हैं…।
Q. पागल होना पवित्र है या अपवित्र ?
यह निर्भर करता है, कि आप किसके पीछे पागल हैं,
दिल में उमड़ती आनंद की लहरें
कौन से स्तर से उछल रही हैं,
यह तो किनारे के चयन से ही पता चलता है,
ऊँची लहरों के किनारे, अमर्यादित होते हैं।
किनारा तो बहाना है, समाप्ति के उत्सव का,
दरिया समाप्त होता है,
तभी तो किनारा धन्यवाद का पात्र बनता है।
समाप्ति का यह उत्सव
कभी समाप्त नहीं होता,
क्योंकि यह अनन्त की समाप्ति है,
जो निरन्तर घटित होती है
स्वयं की सम्पूर्णता के साथ …
हमारा पागलपन
एक चुल्लू भर पानी में उठती तरंगों के जैसा ही रहा,
क्योंकि हमारा स्तर भी वैसा ही था,
हमारे किनारे अत्यन्त संकीर्ण और मर्यादित थे,
हमारा स्तर और उसमें से उठती लहरें भी
छिछोली थी,
किनारों को हम भिगो नहीं पाए, उल्टा
किनारों ने मिलकर हमें शोषित कर लिया,
क्योंकि हम कीचड़ भरे गड्ढ़े में कैद थे, और
अभी भी उस गड्ढ़े में रहना ही पसन्द है।
गड्ढ़ा, अर्थात् सादि-सान्त व्यक्तित्व,
गड्ढ़े में उठने वाली तरंगे
कीड़े-मकोड़े को पनपने देती हैं,
काम, क्रोध, मद, माया, हर्ष, शोक उन कीड़ों के नाम हैं।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, पैसे, पत्नी और परिवार, शरीर, यह सब किनारों के नाम हैं। नश्वर किनारें!!!
जो अस्तित्व का निर्णय किनारों के हाथ में है
वह गड्ढ़ा है,
और किनारे का निर्णय जिस के हाथ में है,
वे पारावार है।
किचड़ भरा गड्ढा सिर्फ, मात्र जमीन में दरार होने से नहीं बनता,
बल्कि उस दरार में पानी रुक जाने से बनता है।
उसी प्रकार व्यक्तित्व भी,
अस्तित्व मात्र से अनुभूत नहीं होता,
बल्कि चेतना की आसक्ति से अनुभूत होता है।
Q. गड्ढे के किचड़ जल को जब समंदर में समा जाने का अवसर मिलता हैं, उस पल क्या होता है ?
व्यक्तित्व में सीमित चेतना
जब प्रभुत्व ( अस्तित्व ) से मिलती है
उस पल क्या होता है ?
इसका उत्तर शब्दों में ढालना सम्भव नहीं,
यह तो अभिव्यक्ति है,
यही वह पागलपन की अनुभूति है।
स्तर परिवर्तन के बिना
भगवद् भक्ति का सामुद्रिक ज्वार सम्भव नहीं,
मिटानी होगी व्यक्तित्व के गड्ढ़े की हस्ती,
तड़पन से बाष्पीभूत होकर समाना होगा बादल में,
गड्ढ़े में नहीं, सागर में छलांग लगानी होगी,
तभी एकाकार हो पाएँगे उस अनन्त के साथ,
बाद में किनारे भी भीग जाएंगे धन्यवाद के भावों से।
हम तो बिना पागलपन वाली भक्ति कर रहे हैं,
यह तो बिना बरसात के सावन जैसा है,
और यदि थोड़ा पागलपन आया भी होगा,
तो वह सिर्फ चुल्लू भर पानी में उठी लहरें थी।
गड्ढे को ही गड्ढा पहचान पाता हैं,
सीमित, सीमित को ही पहचान पाता है,
प्रभु को भी इसी सीमितता से
पहचानने की मनपसंद “गलती” करके हमने
अपनी कल्पनाओं में काल्पनिक प्रभु की काल्प-निक भक्ति की।
‘परम’ सुदूर है,
अपना से जिसका सृजन होता है वो ‘संसार’ है, ‘प्रभु’ नहीं…
प्रभु तो कल्पनातीत है, निर्विकल्प है,
प्रभु सृजन से नहीं, विसर्जन से मिलते हैं।
सृजन में सीमितता का अभिशाप है,
प्रभु असीम है, सृजन से परे है
वे अनंत सृजन और विसर्जन के साक्षी मात्र हैं।
जो विसर्जन सृजन के लिए हो,
वह विसर्जन नहीं, अपितु सृजन का गर्भकाल है;
पर्वत से टूटे पत्थर से सीमेंट बनती है,
उससे बिल्डिंग बनती है, बन्धन यथावत् है;
वृक्ष से फल, फल से बीज निकलता है,
वही बीज पुनः वृक्ष की जड बनता है,
परम्परा चालू है;
हमने भी अनन्त बार विसर्जन किया,
किन्तु सृजन करने के लिए किया,
इसलिए वह विसर्जन नहीं, विशिष्ट सृजन था,
विसर्जन वह है, जो स्वयं को विराट में विलीन कर दे, पूर्ण शून्य कर दे,
बुलबुला, विसर्जित होते ही
अनन्त आकाश में विलीन हो जाता है;
दीपक की ज्योत, बुझते ही अनन्त शून्य में परिवर्तित हो जाता है।
बुलबुला, हाजिर रहकर नहीं फूटता,
ज्योति, विद्यमान रहकर नहीं बुझती,
विसर्जन, अनुपस्थिति माँगता है,
उपस्थिति ही सृजन है, और उपस्थिति ही संसार है।
उपस्थिति दो प्रकार की होती है
एक, अनुपस्थित की उपस्थिति,
दूसरी उपस्थित की उपस्थिति,
सृजन, अपने होने से पहले अनुपस्थित होता है,
और उत्पत्ति के बाद ही होता है।
सृजन का न होना, अनुपस्थित की उपस्थिति है
और उसकी उपस्थिति स्वयं एक उपद्रव समान है।
जैसे मांस का खुला पिण्ड,
जंगली कुत्तों और गिद्धों का आहार बनता है,
वैसे ही सृजन की उपस्थिति
काल रूपी श्वान का आहार बनती है।
सृजन, विसर्जन से पहले भी है,
बाद में भी, और बीच में भी
जिसका सृजन और विसर्जन सम्भव नहीं,
जो सदैव है, सतत है, आकाश की भाँति
यही है उपस्थित की उपस्थिति।
जन्म, अनुपस्थित की उपस्थिति है,
मृत्यु, उपस्थित होने के लिए अनुपस्थिति है,
निर्वाण, उपस्थित की उपस्थिति है।
जो ‘है’ अब मात्र वही ‘है’
और जो ‘नहीं’, अब वह ‘नहीं’
हाजिर की हाजिरी पाने के लिए,
गैरहाजिर की हाजिरी से गैरहाजिर होना अनिवार्य है,
यही साधना है,
यही निर्वाण का पथ है,
यही जन्म एवं मृत्यु का उल्लंघन कर पाने का राजमार्ग है।
यह बात जिसे समझ आई,
उसे प्रभु के साधना काल की कथा
अवश्य रोमांचित करती है।
प्रभु ‘वोसिरामि’ की धारा से
सतत संप्रस्थापित होते थे
स्वभाव की धारा की ओर,
आइए, प्रभु की साधना को भीतर से
स्पर्श करें …!
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