मूलाधार चक्र ध्यान की प्रक्रिया में से 1 से 6 क्रमांक तक ध्यान करने के पश्चात )
7. फिर विचार कीजिए कि दूर क्षितिज से पीले रंग की कोई चीज आ रही है। वह धीरे-धीरे निकट आ रही है, बड़ी हो रही है। वह पीला रंग का कमल है, अब उसकी पीला रंग के कमल की पंखुड़ी देखिए, वह कमल धीरे-धीरे खिल रहा है, प्रकाशमान हो रहा है। फिर उसकी हरे रंग की कर्णिका और पीत वर्ण का पराग देखिए।
8. उस पराग के मध्य में गुलाबी रंग का त्रिकोण बनाएं।
9. उस पराग के मध्य में लाल रंग से ‘रँ’ अक्षर बनाइए।
10. तत्पश्चात् आकाश से श्याम वर्ण की एक बिंदू आपकी ओर आ रही है, ऐसा विचार कीजिए। धीरे-धीरे उस बिन्दु का आकार बढ़ रहा है। समीप आने पर उसके दो भाग हो रहे हैं। और समीप आने पर आप एक बिन्दु में भगवान, और दूसरे में शासन देवी देख रहे हैं। और निकट आने पर आप वहाँ “ श्री मुनिसुव्रत भगवान” और शासनदेवी “ श्री नरदत्ता देवी “ को देखते हैं। फिर उस रक्त कमल के पराग में “रँ” अक्षर के मध्य के दोनों स्थानों पर आप उनकी प्रतिष्ठा कर रहे हैं।
11. अब पुनः आकाश से आपको श्वेत पुंज आता हुआ दिख रहा है, जिसमें से 10 वर्ण आते हुए दिख रहे हैं – “डँ” “ढँ” “णँ” “तँ” “थँ” “दँ” “धँ” “नँ” “पँ” और “फँ” ।
12. इन 10 वर्ण को पीले पद्म की 10 पंखुड़ियों पर प्रदक्षिणावर्त रखें। पंखुड़ियाँ स्थिर होने के बाद उनकी वहाँ प्रतिष्ठा करें।
13. फिर उस कमल के 6-6 रेशे उतारकर उनकी प्रतिष्ठा करें।
प्रभु के बाये बाजू 6 रेशे इस प्रकार उतारे।
प्रभु के दाये बाजू के 6 रेशे से इस प्रकार उतारे
1. “डँ” और “ढँ” के बीच में “तारका” 1. “फँ” और “डँ” के बीच में “तारा”
2. “ढँ” और “णँ” के बीच में “माधवी” 2. “पँ” और “फँ” के बीच में “अतीता”
3. “णँ” और “तँ” के बीच में “तारका” 3. “नँ” और “पँ” के बीच में “तारा”
बाद में “तँ” पंखुड़ि से 3 रेशे उतारे
4. “काली” 5. “विजोलिका” 6. “इल्ता”
बाद में “नँ” पंखुड़ी से 3 रेशे उतारे
4. “शुक्रा” 5. “युक्ता” 6. “इल्तिका”
14. अब नभोमंडल में बिंदु देखें। नजदीक आते ही कछुआ देखें। कछुआ प्रभु का लांछन है। अहिंसक व सौम्य है। परम प्रतापी प्रचंड शक्तिशाली परम सहिष्णु है। उस कछुए को आते देखें और तत्पश्चात पीले कमल के पराग में आलेखन “रँ” में सबसे नीचे श्री मुनिसुव्रत प्रभु के चरणों में विराजित करें। तत्पश्चात् प्रतिष्ठा करें।
15. अब पीले दसदल कमल को ध्यान से देखें, फिर उसे ब्रह्मरन्ध्र के पास ले जाएँ।
15. फिर यह पीले दसदल कमल ब्रह्मरन्ध्र के पास आता देखकर “सुषुम्ना नाड़ी” खोलें।
फिर उस कमल को अन्दर ले जाकर पूरी नाड़ी में घुमाकर ब्रह्मरन्ध्र के पास लाएँ, फिर “वज्र नाड़ी” खोलें।
फिर उस कमल को अन्दर ले जाकर पूरी नाड़ी में घुमाकर ब्रह्मरन्ध्र के पास लाएँ, फिर “चित्रिणी नाड़ी” खोलें।
फिर उस कमल को अन्दर ले जाकर पूरी नाड़ी में घुमाकर ब्रह्मरन्ध्र के पास लाएँ, फिर “ब्रह्म नाड़ी” खोलें।
फिर उस कमल को अन्दर ले जाकर पूरी नाड़ी में घुमाकर मूलाधार चक्र को स्पर्श करवाते हुए स्वाधिष्ठान चक्र को स्पर्श कराकर मणिपुर चक्र के पास लाकर वहाँ स्थिर करें फिर वहाँ प्रतिष्ठित करें।
17. इस चक्र का स्थान रीढ़ की हड्डी के मध्य भाग एवं आंत पर यानी नाभि से 5-6 अंगुल ऊपर कमलाकारीय पीत वर्ण का चक्र के रूप में रहा है।
18. यह मणिपुर चक्र अत्यंत प्रभावशाली चक्र है। इस चक्र के ध्यान के प्रभाव से सरस्वती माता की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है। यह चक्र भौतिक जगत का केंद्र चक्र है। ( सहस्रार चक्र एवं आज्ञा चक्र आध्यात्मिक है, बाकी के 5 चक्र भौतिक है। ) इस चक्र को सूर्य चक्र भी कहते हैं।
19. यह मणिपुर चक्र दहलीज के वृक्ष से प्रभावित है। इस चक्र में पहुँचने और कमल स्थिर करने में “अ” इसकी चाबी रूपी मन्त्र है। राकिनी देवी और नरदत्ता देवी से अधिष्ठित और कछुआ लाँछन युक्त श्री मुनिसुव्रत भगवान इस चक्र के सम्राट हैं। हम प्रभु के लिए एक थाल भरकर स्वर्ण चंपा के फूल लेकर खड़े हैं, और प्रभु को चढ़ा रहे हैं। यह मणिपुर चक्र ऐसे महा प्रभावशाली प्रभु से परम पवित्र एवं अग्नि तत्त्व और तेजतत्त्व से प्रभावित है।
20. तेज यानी प्रकाश। मणि-मंत्र-रत्न-औषधि यह सब प्रकशमय होते है। ये पुण्यशाली को स्वयंभू प्राप्त होते हैं और उनके पास ही स्थिर होते है। यह मणिपुर चक्र की ध्यान साधना को जो पुण्यशाली सम्यक् रुप से करता है उसी को ही सिद्ध होती है।
21. तेज, अर्थात् तेजस्वी वस्तु। जिस प्रकार सूर्य, मणि, अग्नि आदि बिना किसी भेदभाव के सबको प्रकाश देते हैं, उसी प्रकार इस चक्र के ध्यान से साधक बिना किसी भेदभाव के सबका विश्वासपात्र बनकर लोकप्रिय बनता है।
22. तेज, अर्थात् उद्योत, जिसे देखकर जीव चकाचौंध हो जाए, उसके मोहपाश में बंधकर उसे लेने का सतत प्रयास करे। यदि जीव किसी बाह्य आडम्बर की ओर मोहित हो जाए तो उसका विवेक निकल जाता है और ईर्ष्या, क्लेश, कषाय आदि में फंस जाता है, इसलिए उसे यथार्थ आनन्द नहीं मिलता। किन्तु यदि विवेक के साथ सम्यग् ज्ञान भी हो, तो उसे अध्यात्मिक आनन्द अवश्य ही मिलता है।
23. जिस प्रकार सूर्य नित्य उदय होता है और अस्त भी होता है, उसी प्रकार यह चक्र भी सूर्योदय होने पर खिलता है, और सूर्यास्त होने पर बन्द हो जाता है। इसीलिए जिनशासन में रात्रि-भोजन का त्याग बताया गया है।
24. जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में अन्य ग्रह-नक्षत्रों का प्रकाश ढक जाता है, उसी प्रकार इस चक्र के ध्यान से ऐसा पुण्य उदय होता है जिससे पुण्यानुबन्धी पुण्य से वह शासन रक्षक, पोषक और वर्धक बनता है। अन्यथा पापानुबन्धी पुण्य हो तो संसारवृद्धि का कारण बनता है।
25. जिस प्रकार अग्नि स्वयं जलती है, और खुद के संसर्ग में आई हर चीज को जलाती है। उसी प्रकार यदि यह चक्र बिगड़ा हुआ या दुष्प्रभावित हो, तो व्यक्ति ईर्ष्या, कषाय, राग-द्वेष से स्वयं जलता है और अपने साथ वालों को भी जलाता है।
26. जैसे अग्नि थोड़ी हो तो नियन्त्रित की जा सकती है, किन्तु यदि वह ज्वाला बन जाए तो वश में नहीं रहती, ठीक वैसे ही ईर्ष्या, कषाय, राग-द्वेष आदि कम मात्रा में या शुरूआती हो तो नियन्त्रण में लाया जा सकता है, किन्तु इनका स्वरूप बढ़ जाए तो अनन्तानुबन्धी भी बन जाता है।
27. यदि अग्नि का स्वरूप दीपक की ज्योति सा हो तो सबको अच्छा लगता है और अन्धेरे में प्रकाश भी देता है, किन्तु यही अग्नि यदि ज्वाला बन जाए तो लोगों को मुसीबत में डाल देती है। उसी प्रकार छोटी-छोटी भूल के लिए यदि मीठी डांट पड़े तो व्यक्ति वह डांट सुनता भी है, और सलाह भी स्वीकार करता है। लेकिन यदि कोई हर बात पर तीव्र कषाय करे, तो उसकी बात कोई नहीं सुनता, और सुन भी ले तो परेशान होकर सुनता है। और उसकी सलाह तो कभी भी नहीं लेता।
28. अग्नि जिसे पकड़ ले, उसे छोड़ती नहीं, लेकिन उसके सामने कोई विरुद्ध पदार्थ (पानी) का प्रयोग करे तो वह शान्त हो जाती है। उसी प्रकार आत्मा में विषय कषाय उत्पन्न हो, उस समय यदि संयम धारण किया जाए जो आत्मविकास होता है। अन्यथा जीव का पतन निश्चित है।
29. मणिपुर चक्र ज्ञान और विवेक का केन्द्र है। ज्ञान और विवेकपूर्ण जीव को अपनी शक्ति और जवाबदारी का आभास होता है। किन्तु जो अज्ञानी और अविवेकी होता है, वह कदम-कदम पर दुःख पाता है।
30. यदि यह चक्र नियन्त्रित न हो तो पेट की समस्या, लीवर, पित्ताशय, गर्मी के रोग, चमड़ी और रक्त के रोग, उल्टी, दस्त, अजीर्ण, मधुमेह, गैस, एलर्जी, इंफेक्शन, खाने में अरुचि, अपथ्य में रुचि, बेडौल शरीर या कुरूपता होती है। उपरान्त व्यक्ति short tempered या कषायग्रस्त बनता है। कितना भी प्रयास करें, वह शान्त नहीं रहता, असन्तोषी और दुःखी रहता है, असमाधि प्राप्त करता है। इस कारण उसका बौद्धिक और मानसिक स्तर खराब रहता है और यही उसके संसार बढ़ने में कारणभूत बनता है।
31. यदि यह चक्र सम्यग् रूप से नियन्त्रित हो तो साधक को स्वरूपवान और स्वस्थ काया मिलती है, जिससे वह आलस्य त्यागकर सम्पूर्ण शक्ति से धर्माराधना कर सकता है। उसकी इच्छाशक्ति मजबूत बनती है, उसे सत्ता मिलती है, या फिर सत्ताधारी उसकी सलाह पर काम करते हैं। सन्तोष, सुख और समाधि को प्राप्त करते हुए वह बौद्धिक और मानसिक स्तर पर श्रेष्ठ और सर्वश्रेष्ठ कक्षा तक पहुँचता है। इसलिए इस चक्र को नियन्त्रित रखना आवश्यक है।
32. इस चक्र को नियन्त्रित करने के लिए सतत संसार की असारता और अशरण भाव रखें तो अपरिमित संसार परिमित हो सकता है, मन में उल्लास बना रहता है और असीम आनन्द भोगते हुए उच्च कक्षा की समाधि प्राप्त होती है।
33. इस चक्र को निहारते हुए इसके मूल मन्त्र “असिआउसादज्ञाचातेभ्यो नमः” का जाप करते हुए चेतना को सभी नाड़ियों से बाहर निकालें। फिर ब्रह्म नाड़ी, चित्रिणी नाड़ी, वज्र नाड़ी और सुषुम्ना नाड़ी बन्द करते हुए अशोक वृक्ष के नीचे शान्त चित्त से सरोवर का अवलोकन करते हुए “ॐ शान्ति” तीन बार बोलते हुए दोनों हाथ परस्पर रगड़कर आँखों पर लगाएँ, फिर पूरे शरीर पर हाथ फिराते हुए आँखें खोलें।
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