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Hello friends !
इस बार बीस स्थानक पद का 15वां पद आ गया है, जिसका नाम है ‘गौतम पद।’ हालाँकि यह ‘दान पद’ के नाम से जाना गया है, पर फिर भी ‘गौतम पद’ के नाम से ही जगत में मशहूर है। क्योंकि जगत के दानवीरों की अग्रिम श्रेणी में अग्रिम दानवीर तो श्री गौतमस्वामी महाराजा ही थे।
उनके पास अनन्त लब्धियाँ थीं। हालाँकि उन लब्धियों का उन्होंने विशेष उपयोग नहीं किया था। सिर्फ दो– तीन बार ही, जब जरूरत पड़ी तब उन विशिष्ट शक्तियों का उपयोग किया था। एक बार तो सूर्य की किरणों को रस्सी की भाँति अवलंबन करके वे हजारों फीट ऊपर अष्टापद पर्वत के शिखर तक पहुँचे थे। बाद में जब वे नीचे उतरे, तब 1500 तापस उनके शिष्य बनने हेतु आतुर होकर कतार में खड़े थे। उन सभी को दीक्षा देने के बाद जब भिक्षा देने की बात आई, तब वे अपना पात्र लेकर भिक्षा हेतु निकले। कहीं से खीर मिल गई, और पात्रे में यथोचित प्रमाण से वहोर कर आये।
‘इतने अन्न से 1500 साधुओं का पेट कैसे भरेगा ?’ नये–नये साधु भगवंत सोच में डूबे थे। परन्तु अनन्त लब्धिनिधान गोतमस्वामीजी का अंगूठा जैसे ही उस पात्र में गिरा, उसके साथ उनका संकल्पबल, लब्धिबल मिश्रित हो गया। और फिर क्या कहना था ! 1500 मुनियों के पात्र भर जाने के बावजूद गोयम गुरु के पात्र की खीर उतनी की उतनी ही शेष थी।
हमको तो आज भी यह चमत्कार सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, तो उन नूतन मुनिवरों, जिन्होंने यह चमत्कार आँखों के सामने घटता हुआ देखा था, उनकी क्या अवस्था हुई होगी ?
परिणाम वही आया जो आना था। उस खीर को वापरते-वापरते सभी की आँखों से आँसू निकल आये, “हमारे गुरु कितने महान हैं ? कितने दयालु हैं ?” इसी भावधारा में चढ़ते हुए 500 श्रमणों को गोचरी करते-करते ही केवलज्ञान हो गया। बाकी के 1000 मुनियों को आगे चलते हुए केवलज्ञान हुआ।
और जब समवसरण में पहुँचे तब पता चला कि, ये तो सब केवली हो चुके। तब किसी ने कहा,
“अरे! दानी तो जो खुद के पास होता है, वही देता है, जबकि ये गोयम महाराज तो ऐसे दानी है, जो खुद के पास न हो वैसा केवलज्ञान सभी को देते हैं। यदि आप उनके शिष्य बनते हैं, और केवल 24 घंटे उस रजो हरण को अपने समीप रखते हैं तो केवलज्ञान का दान निश्चित ही समझिएगा। बोलिए महादानी श्री गौतमस्वामी महाराज की जय…” बातें तो गोयम गुरु की ढेर सारी हैं। पर हमें आज उनसे अपने आप की तुलना करनी है।
लब्धियों का खजाना था उनके पास, फिर भी कभी किसी को बताते नहीं थे। यदि हमारे पास कोई नई ब्रांडेड चीज आए, या कुछ छोटा-मोटा ज्ञान आ जाए, तो भी हम इधर-उधर बताते हुए घूमते फिरते हैं।
50,000 केवलज्ञानी शिष्यों के गुरु थे वे स्वयं, परन्तु जरा सा भी अहंकार न था। हमें यदि 50,000 रूपये की लॉटरी भी लग जाए तो भी हम जमीन से ऊपर आकाश में उड़ने लगते हैं।
और इतनी सत्ता, इतना सामर्थ्य, इतनी शक्तियाँ, इतना कुछ होने के बावजूद वे अपने धर्मपिता, धर्मदायक, धर्मनायक, धर्माचार्य, धर्मगुरु, परमात्मा महावीर के चरणों में अज्ञान बालक की भाँति सिर झुकाकर बैठते थे। सब जानते हुए भी प्रभु को प्रश्न पूछते थे। प्रभु की देशना सुनते वक्त उनका चेहरा मानो गुलाब की भाँति खिल उठता था, उनका हृदय विस्मय भाव से परिपूर्ण हो जाता था। यह था परम विनय, जो गौतमस्वामीजी को उन्नत लब्धिनिधान बनाता था।
यदि हम, आप और मैं, अपने परमोपकारी माँ–बाप और बड़े बुजुर्गों के प्रति नियमित रूप से विनय से अवनत नहीं होते है, उनकी कही गई कड़वी-मीठी बात हमें नहीं सुहाती है, तो समझना कि हम गौतमस्वामी बनने की तो दूर, गौतमस्वामी के चरण के अंगूठे के पास बैठने की भी बराबरी नहीं रखते।
चलिए गुरु गौतम के गुण गाते हैं।
॥ गौतम पद ॥
(पहेली नज़र में ऐसा…)
गौतमस्वामी जी की लब्धि है कमाल,
गौतम की किरपा कर दे निहाल,
विनय की मूर्ति है जिनकी पहचान,
महावीर के दिल में इनका है स्थान…
वीर के पट्टधर गणधर अग्रसर;
सूरिमंत्र के सूत्रधार…
किरपा बरसा, अंतर में आ, सूना है सूना मेरा जिया;
मेरे पापों का कोई अंत ना, और तेरी लब्धि भी अनंत है;
अवगुण को मेरे तू न देखना, तू हे दानी, महाज्ञानी;
मुझ पर बरस, थोड़ा तरस, मेरे भीतर की रूखी सूखी धरा….
चौदह सौ बावन गणधर हुए, उनमें से तेरा इक नाम है;
मेरे जैसों की तो जिंदगी, गई गुजरी, यूं ही बिखरी;
तुमको नमन करना हरदम, तेरा शिष्य मुझे अपना लेना…
जैसे कोई पत्थर पतवार पर, जुड़ जाने से पूरा सागर निरे;
तू मेरी उंगली वैसे थाम ले, मुझे ले चल, तेरे संग–संग;
तेरी दया, मेरी वफा, इतना ना तड़पा मुझको मेरे खुदा…
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