मांसाहारी और शाकाहारी में अंतर
मांसाहारी पशु के लक्षण
शाकाहारी मनुष्य के लक्षण
1. दूसरों को फाड़ डालने के लिए टेढ़ेऔर वज्र समान तेज नख।
1. मनुष्य के नख वैसे नहीं है। वधशाला में शस्त्र से काम लेना पड़ता है।
2. जठराग्नि में कच्चा मांस पचाने की शक्ति है।
2. मनुष्य में यह शक्ति नहीं है।
3. दिन में सोते है; रात्रि में भोजन ढूंढते है।
3. दिन में भोजन और रात को आराम करते है।
4. भोजन चबाना नहीं पड़ता।
4. चबाकर भोजन खाता है।
(तभी पचता है और रोग नहीं होता।)
5. जीभ से चाट कर पानी पीते हैं।
5. घूंट भरकर जल पीते हैं।
6. श्रम करने से पसीना नहीं आता।
6. श्रम करने में पसीना आता है।
7. जब शेर आदि जानवरों को पसीना आता है,तब उनकी प्रकृति बिगडी मानी जाती है।
7. मनुष्य को पसीना न आए तब ज्वरादि के कारण बीमार माना जाता है, पसीना आने पर स्वस्थता के योग्य।
8. हिंसक प्राणियों के दांतों व दाढ़ों में दांता जैसी तेजी है। मानव केवल मांसाहार से जीवन निर्वाह नहीं कर सकता। उसे वनस्पति जन्य भोजन लेने की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है।
8. मनुष्य के दांतों, दाढ़ों में ऐसी तीक्ष्णता नहीं होती। शाकाहारी को मांस की कदापि आवश्यकता नहीं। वह शाकाहार से समस्त जीवन सुख पूर्वक व्यतीत करता है।
मांस का उपयोग किस लिए नहीं?
क्योंकि यह मनुष्य का वास्तविक भोजन नहीं, सृष्टि के विरुद्ध है।
आरोग्य तथा आयु में बाधक, अनुचित, अपथ्य -कर, अहितकर भोजन है।
मांस का रूप नेत्रों को रुचिकर नहीं लगता है।
इससे दुर्गन्ध आती है।
अपवित्र माना जाता है।
मांस का भक्षण क्रूर कृत्य है
प्राणी का वध करते समय उसका खून इतना उबल उठता है कि इसका उग्र प्रभाव भक्षक पर पड़ता है।
मांस खाना धर्म नहीं, अधर्म है। यथार्थ में जीवन दयावान होता है। दया के बिना जप, तप, व्रत व्यर्थ हो जाते हैं।
मनुष्य का आधार वीर्य शक्ति पर है, मांस पर नहीं।
मांस खाने से शक्ति बढ़ती नहीं। मांस न खाने वाले, हाथी, ऊँट, जिराफ, हिरण, घोडा, बंदरादि प्राणी शक्तिशालियों में विशेष स्थान रखते हैं।
अन्न, फल, दूध आदि पदार्थों से शारीरिक स्वस्थता अति उत्तम रहती है। मांस से स्वास्थ्य का नाश होता है।
जार्ज बर्नाड शॉ ने एक भोज में कहा था, मेरा पेट कब्रस्तान नहीं है।
प्रकृति का नियम है कि बड़े छोटों की रक्षा करें।
मांस इस लोक में केंसर जैसे भंयकर रोग का और परलोक में भयावह नरक का उपहार देता है।
मांसाहार पर डाक्टरों के अभिमत
डाक्टर रोबर्ट बेल एम.डी.ने ‘केंसर स्कर्ज एण्ड हाउ टू डिस्ट्रोय इट’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है, ‘दो करोड़ और पचास लाख मनुष्य तथा केवल इंग्लैंड और वेल्स में तीस हजार मनुष्य केंसर से मरे, मुख्य कारण मांसाहार था। अतः मैं इसका प्रबल निषेध करता हूँ। आज दिन दिन संख्या बढ़ रही है।
डाक्टर बेज चीन की यात्रा करने गए। उस समय उन्होंने चार शाकाहारी श्रमिक अपने को उठाने के लिए रखे। बारी बारी से दो-दो व्यक्ति उन्हें उठाते थे। तीन दिन पश्चात उन्हें मांसाहार दिया गया तब वे श्रमिक थक जाते थे। इससे प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि मांसाहार से कार्य क्षमता घट जाती है।
डा. सरवाल्टर स्कोट फरग्युसन ने लिखा है कि ६५ वर्ष की आयु में अपनी कक्षा में भाषण देते हुए उन्हें लकवा हो गया। उनकी सेवा शुश्रूषा के लिए उनके मित्र रसायन शास्त्री डा. ब्लेक को बुलाया। उन्होंने शाका-हार का परामर्श दिया। वे निरोग और बल-शाली शरीर के साथ 30 वर्ष अधिक जीवित रहे।
डा. स्मिथ का कथन है कि ईरान के एक अप्रसिद्ध वन स्थान से अतीव सत्ताशाली और भव्य राज्य का निर्माण करनेवाला बादशाह सैरल बाल्यकाल से ही बहुत ही सादा वनस्पति भोजन खाता था। उसके सैनिक रोटी, सागपात तेल से निर्वाह करते थे। तो भी थोड़े समय में ही हजारों मील की कूच करने में समर्थ थे। उन्होंने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की। वे बम की सेना से भी नहीं डरते थे।
डा. हेग का कथन है कि पाचन शक्ति की, हृदय और पित्त बढ़ने की तथा सिर दर्द के साथ की अन्य पीड़ाएँ रक्त में मांसाहार से बढ़े हुए यूरिक एसिड के कारण होती है।
डा. हेग लिखते हैं कि मांस खाने वालों और अपेय पीने वालों में घाव या चीट के कारण जो भय, अंग, अंग का टूटना तथा उनसे भी बढ़कर अन्य अनिष्ट परिणाम दृष्टीगोचर होते हैं। वे उनकी तुलना में मांस तथा अपेय का परहेज रखने वालों में बहुत कम दिखाई देते हैं। मांसाहारी अधिक पीडा के शिकार बनते हैं। शारीरिक हानि के अतिरिक्त उपचार में आर्थिक हानि भी होती है।
अमरिका के हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के डाक्टर. ए. वाचमैन व डा. बी स. बनस्टीन लैसेंट १६६८ भाग एक तथा ६५८ पृष्ठ पर अपनी वैज्ञानिक शोध के परिणाम में लिखते हैं कि मांस भक्षण से हड्डियां कमजोर हो जाती है।
मांसाहारी का मूत्र (यूरिक ऐसिड) तेजाब जैसा होता है। अतः रक्त व तेजाब के क्षार की मात्रा संरक्षित रखने के लिए अस्थियों से क्षार और तेजाबी नामक रक्त में मिल जाता है। इसके विपरीत शाकहारियों का मूत्र क्षार युक्त होता है उनकी हड्डियों का खार रक्त में न मिलकर वहीं रहता है। वह उन्हें दृढ़ बनता है। इस प्रकार जिन व्यक्तियों की हड्डियों निर्बल होती है, उन्हें विशेषतः फल, फूल, शाक, भाजी, प्रोटीन और दूध का आहार लेना चाहिए। मांस का अल्पांश भी उनके जीवन कि लिए हितकर नहीं।
रसायन शास्त्री डा. विसंगाल्ट अपनी पुस्तक में लिखते है कि प्रत्येक १०० भाग में ३६ भाग पौष्टिक अंश और ६४ भाग पानी होता है। अन्न में ८० % से ९० % पौष्टिक तत्त्व होते है। इसके अतिरिक्त विद्युत अग्नि का तत्त्व भी अनाज में है। उससे अस्थियों में वृद्धि और प्रबलता होती है यह तत्त्व जिस अंश में वनस्पति में है, उस अंश मांस में नहीं।
डा. ज्योर्ज विलसन का मत है कि मांस में उष्णता उत्साहकजनक अंश ८ से १० तक है, गेहूँ, चावल, चने आदि में ६० से ८० अंश तक है।
एडम स्मिथ की पुस्तक के पृष्ठ ३७० पर लिखा है कि अनाज घी, दूध व अन्य वनस्पति के भोजन से, बिना मांस भक्षण किए सरलता से यथेष्ट स्वस्थता, पौष्टिकता और शारीरिक, मानसिक शक्ति प्राप्त की जा सकती है।
डब्ल्यू गिन्सन वॉर्ड F.R.S.C ने पत्र में लिखा है कि में ३० वर्ष से मदिरा, मांस या मछली का उपयोग न करते हुए केवल वनस्पति व फलाहार पर निर्वाह करके पूरे अनुभव के साथ लिख रहा हूँ कि चरबी वाले एक हजार मनुष्यों में से एक व्यक्ति भी फेफड़ों के विषय में मेरी तुलना में नहीं ठहर सकता। शरीर के अवयवों के बल में कुछ बराबरी कर सकता है। इस अनुभव के आधार पर साहसपूर्वक कहता हूँ कि वनस्पति आहार द्वारा पोषण प्राप्त करने वाले बालक से लेकर सब सुखी और सबल होते है।
मिस्टर फलेमिंग का कथन है कि मांस काटने से पूर्व प्राणी में होने वाले रोगों की परीक्षा उसकी जीवीत अवस्था में नहीं होती। फलतः उसके रोगों का उत्तराधिकार मांसाहारी को मिल जाता है और उसका जीवन संकट म पड़ जाता है।
डा.केमेरन ने अनुभव से कहा है कि कंधे और पांव में होने वाली सूजन के रोग पशुओं के ही हैं। मांसाहार के साथ वे मानव शरीर में प्रविष्ट हो जाते है।
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