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मृगापुत्र कथा

Updated: Apr 12




प्रभु ने मृगापुत्र का दृष्टान्त विस्तार से बताना शुरू किया।

इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मृगाग्राम नामक एक नगर था, वहाँ विजय नामक क्षत्रिय राजा राज्य करता था। उसकी पत्नी का नाम मृगा था। वह अत्यन्त रूपवती स्त्री थी। सांसारिक सुख भोगते हुए उन्हें एक पुत्र हुआ, जिसका नाम रखा गया – मृगापुत्र।

पूर्वकृत कर्मों के उदय के कारण मृगापुत्र जन्म से ही अन्धा, गूंगा, बहरा, लूला और जुगुप्सनीय विचित्र आकृति वाला था। उसके शरीर का एक भी अंग ठीक नहीं था। उसके शरीर में हाथ-पैर, आँख, नाक, कान आदि थे ही नहीं। उन अंगों के स्थान पर उनका चिह्न कहा जा सके, सिर्फ ऐसी आकृति थी, वह भी बिना ठिकाने की थी। उसकी आँख, नाक और कान के छिद्रों और हृदय से जुड़ी नाड़ियों में से बार-बार रक्त और मवाद निकलता था, उपरान्त उसे वायु रोग भी था। माता मृगादेवी उस बालक को गुप्त स्थान पर रखकर उसको भोजन आदि देकर उसका पालन करती थी।

उसी नगर में एक जन्माँध व्यक्ति रहता था और एक अन्य दृष्टिवान व्यक्ति उसकी सहायता करता था। यह अन्धा व्यक्ति शरीर से अत्यन्त मैला और दुर्गन्ध वाला था, उसके चारों ओर मक्खियाँ भिनभिनाती रहती थी। यह व्यक्ति मृगाग्राम में घर-घर भीख माँगकर अपना जीवन यापन करता था।

एक बार इस नगर में मेरे पगलिए हुए, नगर के बाहर समवसरण की रचना हुई थी। राजा विजय अपने विशाल परिवार के साथ धर्मदेशना सुनने के लिए निकला। हजारों लोगों की चहल-पहल के कारण उस अन्धे व्यक्ति ने अपने सहायक से पूछा, “आज नगर में बड़ा उत्सव लगता है, अन्यथा इतनी चहल-पहल  नहीं होती।” तो उसके सहायक ने कहा, “हाँ ! आज श्रमण भगवान महावीर हमारे नगर में पधारे हैं, उनके दर्शन-वन्दन के लिए सब लोग जा रहे हैं” यह सुनकर उस अन्धे व्यक्ति ने कहा, “चलो ! हम भी प्रभु के पास चलते हैं।”

दोनों समवसरण में पहुँचे, तीन प्रदक्षिणा दी, वन्दन और नमस्कार किया। तत्पश्चात् पूरी सभा ने धर्मश्रवण किया, और अन्त में सब यथास्थान चले गए।

समवसरण में जन्माँध व्यक्ति को देखकर गौतम ने मुझसे प्रश्न किया, “भगवन् क्या ऐसे भी लोग होते हैं, जो जन्म से अन्धे हो ?”


मैंने कहा, “हाँ गौतम ! ऐसे लोग होते हैं, और ऐसा एक व्यक्ति इसी नगर में है। इस नगर के राजा विजय और रानी मृगादेवी का पुत्र जन्म से अन्धा है, और उसका कोई भी अंग प्रमाणयुक्त नहीं है। रानी मृगादेवी गुप्तरूप से उसका पालन कर रही है।”

यह सुनकर गौतम मेरी अनुमति से मृगापुत्र को देखने के लिए उसके घर गए। प्रथम गणधर गौतम स्वामी को साक्षात् देखकर मृगादेवी अत्यन्त आनन्दित हुई। वह हाथ जोड़कर बोली, “भगवन्त! आप अभी यहाँ किस प्रयोजन से आए ?”

गौतम ने कहा, “देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे पुत्र को देखने के लिए आया हूँ।”

यह सुनकर मृगादेवी, मृगापुत्र के बाद उत्पन्न हुए अपने चार पुत्रों को सुन्दर वस्त्र-अलंकार पहना-कर गौतम के पास लेकर गई, और बोली, “ये चारों मेरे पुत्र हैं, आप देख लीजिए।”

तो गौतम बोले, “मृगादेवी ! मैं इन्हें नहीं, तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र को देखने के लिए आया हूँ, जो जन्म से अन्धा है और जिसे तुमने तलखाने में छिपाकर रखा है।”

यह सुनकर मृगादेवी आश्चर्य से बोली, “भगवन्त ! आपको इस गुप्त रहस्य की जानकारी कैसे हुई?” तो गौतम बोले, “मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर ने मुझे बताया।”

जब यह संवाद चल रहा था, उस समय मृगापुत्र के भोजन का समय हो गया था, अतः मृगा रानी ने गौतम से कहा, “प्रभु ! आप यहीं रहिए, मैं अभी मेरे ज्येष्ठ पुत्र के दर्शन आपको करवाती हूँ।”

यह कहकर रानी वस्त्र परिवर्तन करके भोजन-शाला में गई, वहाँ छोटी बैलगाड़ी के आकार की गाड़ी में विपुल मात्रा में अनेक प्रकार के भोजन के बर्तन लिए और गाड़ी खींचते हुए गौतमस्वामी के पास आई, और बोली, “प्रभु! आप मेरे साथ चलिए।”

दोनों तलगृह में पहुँचे, रानी ने अपना मुख चार परत वाले वस्त्र से ढका, और गौतम स्वामी को भी अपना मुख ढकने की विनती की। गौतम स्वामी ने भी मुँहपत्ती बाँधी। तलभँवरे का कक्ष निकट आते ही मृगा रानी ने मुँह उल्टा करके कक्ष का द्वार खोला। द्वार खुलते ही जोर से दुर्गन्ध आई। कैसी दुर्गन्ध थी? कोई गाय, भैंस, बिल्ली, कुत्ता, चूहा, हाथी, घोडा, शेर, बाघ, बकरे आदि की सड़ी-गली लाश, जिसमें असंख्य कीड़े सड़ रहे हों, जो अत्यन्त अशुचिमय और विकृत हो, दिखने में जो अत्यन्त जुगुप्सनीय हो, ऐसी दुर्गन्ध से भी अनेक गुना अनिष्ट, अमनोहर, अप्रिय और अमनोज्ञ दुर्गन्ध थी।

रानी मृगा ने साथ लाया हुआ भोजन अपने पुत्र को खिलाया। उसे जन्म से ही भस्मक रोग था, इस-लिए भोजन उदर में जाते ही तुरन्त पच गया, और वह रक्त और मज्जा में परिवर्तित हो गया। फिर तुरन्त ही उसे उस रक्त और मवाद का वमन भी हो गया, और इतना ही नहीं, वह अपने ही वमन को खुद चाट गया।

यह देखकर गौतम को विचार आया, “अहो ! यह जीव पूर्व जन्मों के कैसे घोर पापों का फल इस भव में भुगत रहा है। नरक और नारकी जीवों को तो मैंने नहीं देखा, किन्तु इस मृगापुत्र की वेदना सच में नरक की वेदना याद दिला रही है।”

तत्पश्चात् गौतम मृगा रानी से अनुमति लेकर वहाँ से निकले, और मेरे पास आए, वन्दन करके मुझसे पूछा, “प्रभु ! पिछले भव में इस बच्चे ने कौनसे ऐसे कर्म बाँधे, कि इस भव में वह ऐसे घोर दुःख भुगत रहा है ?”

मैंने गौतम को मृगापुत्र के पूर्वभव की बात कही।

इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में शतद्वार नामक समृद्ध नगर था। वहाँ धनपति नामक राजा राज्य करता था। इस नगर के निकट विजयवर्धमान नामक एक नगर था, वहाँ इक्काइ नामक राठौड़ (राजा द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि) राज्य करता था। उसके अधीन पांच सौ गांव थे। वह अत्यन्त अधर्मी था, और पाप करने में ही मौज का अनुभव करता था। उसने इस प्रकार के पापाचरण किए :

? अपने अधीन पांच सौ गांवों पर अत्यधिक कर लगाना।

? किसानों को कम पैसे देकर दोगुना अनाज लेना।

? रिश्वत देकर या अधिक ब्याज लेकर धन का संचय करना।

? लोगों पर हिंसा आदि के गलत इल्जाम लगाना।

? पैसे लेकर अयोग्य व्यक्ति को उच्च पद देना।

? चोरों को दण्ड न देकर उनका पालन करना।

? गाँव के गाँव जला देना राह चलते राहगिरो को सहायता करने की बजाय परेशान करना।

? लोगों को धर्म से विमुख करना।

? श्रीमन्तों को परेशान करके गरीब बनाना।

? बड़े लोगों के सामने वादा करके मुकर जाना।

? प्रजा को पीड़ा देने को ही कर्तव्य मानना।

माया, झूठ प्रपंच का लगातार सेवन करना ऐसे अनेक पाप करके अपनी आत्मा को कलुषित करते हुए इक्काइ अपना जीवन व्यतीत कर रहा था। एक दिन उसके शरीर में एक साथ सोलह महारोग उत्पन्न हुए, जो इस प्रकार थे :

1. श्वास2. खांसी3. बुखार4. दाह5. कुक्षिशूल6. भगंदर7. मस्सा8. अजीर्ण9. दृष्टिशूल10. मस्तकशूल11. अरुचि12. आँख की वेदना13. कान की पीड़ा14. खुजली15. जलोदर16. कुष्ठ

ये सोलह रोग भयानक, असाध्य और मृत्यु के समकक्ष थे। इक्काइ से ये रोग सहन नहीं हो रहे थे। उसने सेवकों को बुलाकर कहा, कि मेरे रोग दूर कर सके, ऐसे वैद्यों को बुलाकर मेरी चिकित्सा करवाओ। सोलह रोग भले ही दूर न कर सके, लेकिन एक रोग तो दूर करवाओ और ऐसी घोषणा करवाओ कि जो ये रोग दूर करेगा, उसे बहुत अधिक धन मिलेगा।

राजा की आज्ञा से सेवकों ने घोषणा करवाई। सुनकर अनेक वैद्य और वैद्यपुत्र उपचार करने के लिए आए, विविध प्रकार की औषधियाँ दी गई। अनेक प्रकार के चिकित्साकर्म किए गए। किन्तु सोलह में से एक भी रोग शान्त नहीं हुआ, अन्ततः सब लोग थक-हार कर चले गए।

शारीरिक वेदना से पीड़ित इक्काइ राजा ने अपने राज्य आदि पर अत्यधिक राग-मूर्छा की, और एक दिन उसकी मृत्यु हो गई। दो सौ पचास वर्ष की आयु पूर्ण करके वह रत्नप्रभा नामक पहली नरक में गया, और वहाँ घोर पीड़ा सहन करके अपना आयुष्य पूर्ण करके मृगारानी का पुत्र बना।

यह बालक जब से माता के गर्भ में था, तब से माता के शरीर में भी अनेक वेदनाएँ उत्पन्न हुई। इतना ही नहीं, वह राजा विजय की भी अप्रिय बन गई। इन कारणों से रानी ने गर्भ गिराने का निर्णय किया। इस हेतु उसने अनेक प्रयास किए, किन्तु सन्तान का आयुष्य प्रबल होने के कारण वह जीवित रहा।

बालक का जन्म हुआ, वह बहुत कुरूप था, इसलिए मृगा ने घाई को आदेश दिया, कि बच्चे को कचरे में फेंक दो। किन्तु चतुर घाई ने राजा को बता दिया। राजा स्वयं चलकर रानी के पास आया और कहा, “देवानुप्रिये ! यह तुम्हारा प्रथम गर्भ है। यदि इसे कचरे में फेंक दिया तो भावी प्रजा और सन्तति भी स्थिर नहीं रहेगी।” इसलिए रानी ने राजा की बात मानी और बालक को गुप्त रूप से पालने लगी।

गौतम ! पूर्व भव में बाँधे कर्मों का कटु विपाक इस भव में मृगापुत्र साक्षात् भोग रहा है।

मृगापुत्र का भूत और वर्तमान जानने के बाद गौतम स्वामी को मृगापुत्र का भविष्य जानने की जिज्ञासा हुई, इसलिए उन्होंने विनयपूर्वक प्रश्न किया।

“प्रभु ! मृगापुत्र यहाँ से मृत्यु प्राप्त करके कहाँ उत्पन्न होगा ?”

“गौतम ! मृगापुत्र इस भव में २६ वर्ष तक जिएगा, आयुष्य पूर्ण करके वह जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के वैताढ्यगिरि के तलहटी में सिंह के रूप में उत्पन्न होगा। सिंह के भव में अत्यन्त पाप करके वह घोर अशुभ कर्म बाँधेगा। वहाँ से मरकर पहली नरक में एक सागरोपम तक पीड़ा सहन करके सरीसृप (भुजा एवं छाती के बल चलने वाले पशु ) की योनि में उत्पन्न होगा। वहाँ भी हिंसादि करके पापकर्म उपार्जित करेगा।

वहाँ से काल पूर्ण करके दूसरी नरक में तीन सागरोपम की पीड़ा सहन करके पक्षी योनि में उत्पन्न होगा। यहाँ भी अनेक कर्म बाँध कर तीसरी नरक में सात सागरोपम की पीड़ा सहेगा। वहाँ से सिंह के भव में जन्म लेगा। सिंह के भव में अनेक जीवों को मारकर अशुभ कर्म बाँधते हुए चौथी नरक में उत्पन्न होगा।

नरक के घोर-अतिघोर दुःख सहन करके वहाँ से च्यवन करके सर्प के भव में उत्पन्न होगा। वहाँ भी अनेक पाप करके पांचवी नरक में जाएगा।

अनेक सागरोपम दुःख सहन करके यह मृगापुत्र काल करके स्त्री के रूप में उत्पन्न होगा। उस भव में अनेक प्रकार के विषय कषायों द्वारा क्लिष्ट कर्म बाँध कर वह छठी नरक में जाएगा।

वहाँ असह्य क्षेत्रज वेदनाएँ सहन करके वहाँ से निकल कर मनुष्य बनेगा। वहाँ भी पापकर्म करके सातवीं नरक में उत्पन्न होगा। सातवीं नरक के भयंकर दुःख सहन करके भी उसे छुटकारा नहीं मिलेगा। वहाँ से निकलकर जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच गति में मछली, मगर, ग्राह, सुंसुमार आदि जाति की समस्त योनियों और साढ़े बारह लाख कुल कोटियों में प्रत्येक में लाखों बार जन्म-मरण को प्राप्त करेगा।

  1. इसी प्रकार चतुष्पद पशुओं में, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प के रूप में, खेचर में, चउरिन्द्रिय, तेइन्द्रिय, बेइन्द्रिय में भी लाखों भव करेगा।

  1. इसी प्रकार एकेन्द्रिय में वनस्पतिकाय, वायु-काय, तेउकाय, अप्काय और पृथ्वीकाय में भी प्रत्येक योनि में और प्रत्येक कुलकोटि में लाखों बार जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त करेगा।

  1. इस प्रकार दीर्घकाल तक भव-भ्रमण करने के बाद मृगापुत्र की आत्मा, कुछ कर्म हल्के होने के कारण सुप्रतिष्ठपुर नामक नगर में एक बैल के रूप में उत्पन्न होगा। वर्षाऋतु के प्रारम्भ में वह गंगा नदी के किनारे वह जब मिट्टि खोद रहा होगा, वहीं गिरकर उसकी मृत्यु होगी। मरकर इसी नगर के श्रेष्ठी के घर पुत्र के रूप में जन्म लेगा।

उसका युवावस्था में पंचमहाव्रतधारी गुरु भगवंत के साथ संयोग होगा। उनके मुख से धर्म-श्रवण करके वह चारित्र अंगीकार करेगा। दीर्घकाल तक निरतिचार श्रमण जीवन का पालन करके अन्त में अतिचारों का आलोचन – प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक कालधर्म प्राप्त करके वह सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा।

वहाँ से मृत्यु पाकर महाविदेह क्षेत्र में श्रीमन्त श्रेष्ठी के घर जन्म लेगा। वहाँ कलाभ्यास करके, चारित्र ग्रहण करके अन्त में सभी कर्मों का क्षय करके मोक्ष जाएगा।

मृगापुत्र के वर्तमान काल का दुःख, भूतकाल के पाप एवं भविष्य की दुर्गति का श्रवण करके राजा हस्तिपाल की शुल्कशाला में बैठी!, अपा-पापुरी की पापभीरु पर्षदा अधिक भीरु बनी।

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