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घर अपने वालम कहो रे, कौण वस्तु नी खोट?
यदि आपको अपने घर में सोना ही सोना दिखाई दे, और दुनियाभर में धूल ही धूल दिखाई दे, तब समझ लेना कि अब आपको सत्य दिखाई देने लगा है।
रोज के अरबों की कमाई करने वाले उद्योगपति, और चौपाटी की रेत को जेब में भरने वाला बालक – इन दोनों के बीच कोई भी फर्क ना लगे, तब समझ लेना कि अब आपको सत्य दिखाई देने लगा है।
मेगा मॉल, मेगा ज्वेलरी शो-रूम और चौपाटी – ये सभी जब समानार्थी दिखने लगें, तब समझना कि अब आप समझदार हो गए हैं।
रूपवान नवयौवना स्त्री, और रेत की ढेरी – ये दोनों परस्पर एक-दूसरे का प्रतिबिंब लगे, तब समझ लेना चाहिए कि अब हम शब्दों के अर्थ को बराबर से समझने लगे हैं।
हार-मालाएँ पहनने के लिए हो रही धक्कामुक्की, और धूल के उड़ते गुबार – ये दोनों जब हमें एक ही पात्र के डबल-रोल लगने लगे, तब हमने अंशत तत्त्व की स्पर्शना होती है।
बहुत ही मूल्यवान वस्त्राभूषण पहना हुआ व्यक्ति, और धूल से लिपटा हुआ व्यक्ति – ये दोनों जब हमें एक समान लगने लगें तब हमने उन व्यक्तियों को सही मायने में पहचान लिया होता है।
हमें लगता है कि इन सभी परिणतियों में व्यवहार का छेद उड़ जायेगा, पर हकीकत यह है कि ये सभी परिणतियाँ होगी, तो ही सही व्यवहार हो पायेगा। सभी बाह्य प्रवृत्तियों को सहज और सुंदर बनाने वाला यदि कोई तत्त्व है, तो वह यह परिणति है।
आपको संघ-शासन के काम करने हो, तो भी आपको इस परिणति की आवश्यकता पड़ेगी। आपको “VIP” को मिलना होगा, तो भी आपको इस परिणति की जरूरत होगी। आपके बोलने से पहले आपकी उपस्थिति बोलने लगे तभी आपके बोलने का मतलब रहता है। आपकी उपस्थिति यदि उभर कर नहीं आती, तो आप कुछ भी नहीं हैं। मुखर अस्तित्व ही जीवित अस्तित्व है, मौन अस्तित्व तो मृत्यु का अस्तित्व है। अस्तित्व की मुखरता, आँखों की गहनता और आकार की सौम्यता – ये परिणति का परिपूर्ण प्रमाण पत्र है।
आपकी माता ने हकीकत में रो-मटीरियल को जन्म दिया होता है। जिसमें से आपको आपका सृजन करना होता है। आपको तो आप खुद ही जन्म दे सकते हैं। दूसरे शब्दों में, आपके पुरुषार्थ से प्रगट हुई परिणति ही आपको जन्म दे सकती है। तीसरे शब्दों में, आपकी परिणति का जन्म ही आपका जन्म है। चौथे शब्दों में, यदि आपकी परिणति नहीं है, तो आप भी नहीं हैं। पाँचवें शब्दों में, परिणति का सृजन – माता के सृजन की सार्थकता है।
बाहर के सारे काम करने से पहले यह अंदर का काम करने जैसा है। बाहर के सृजन से पहले यह भीतरी सृजन जरूरी है। यदि आप ही नहीं हो, तो आप का किया हुआ कृत्य भी नहीं है। स्वकृत, स्व के सापेक्ष होता है। यदि स्व ही नहीं है, तो स्वकृत का अर्थ और वन्ध्यापुत्र का अर्थ एक ही बन जाता है।
अधिक गहराई में जायेंगे तो स्व ही सर्वश्रेष्ठ स्वकृत है। पर का कर्तृत्व – मोह है, कर्मबंध का कारण है। याद आता है सवा सौ गाथा का स्तवन:
हुं कर्ता परभावनो, एम जिम जिम जाणे;
तिम तिम अज्ञानी पड़े, निज कर्म के थाणे।
तीर्थंकर क्या करते हैं? दीक्षा लेकर एक ही साधना में लग जाते है। ‘स्व’ के सृजन सर्जन की। प्राय: मौन, शून्य प्रवचन। पूर्ण अंतर्मुखता सीधे केवलज्ञान के प्राकट्य तक। फिर? बाह्य प्रवृत्ति? बाह्य सृजन? नहीं, केवल सहज परार्थ। याद आता है तत्त्वार्थभाष्य :
तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम्।
तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थकृदेवम्॥
जिस तरह सूर्य स्वभाव से ही विश्व को उज्ज्वलित करता है, उसी तरह तीर्थंकर स्वभाव से ही तीर्थप्रवर्तन के लिए प्रवृत्ति करते हैं।
तीर्थंकरकल्प : तीर्थंकरों का आचार यह है कि, केवलज्ञान तक मौन, उसके बाद सहज परार्थ।
स्थविरकल्प यह है कि, गीतार्थता तक मौन रखना, उसके बाद सहज जैसा परार्थ। प्रधानता स्व की, लक्ष्य स्व का। पर ज्यादा से ज्यादा अनुषांगिक। वह भी स्व को गौण करके नहीं, स्व के लिये ही। इसी का नाम मोक्षमार्ग है। याद आता है आवश्यकनिर्युक्ति :
तं च कहं वेइज्जइ अगिलाए धम्मदेसणाइं हिं।
तीर्थंकर नाम कर्म की निर्जरा किस तरह से होती है? बिना थके धर्मदेशना आदि परार्थ करने से।
गौतमस्वामी, शालिभद्र, अभयकुमार आदि का प्रभु ने निस्तार किया। गौतमस्वामी आदि की अपेक्षा से परार्थ था। प्रभु की अपनी अपेक्षा से स्वार्थ था। प्रभु की प्रत्येक परार्थ प्रवृत्ति उनकी आत्मा को मोक्ष की दिशा में सघन गति अर्पण कर रही थी।
बात है स्व की। स्व को देखना, स्व को पहचानना, स्व में सर्वस्व हो जाना, स्व में सर्व-समावेश को देखना और उसके द्वारा ‘पर’ से सहज उदासीनता को आत्मसात् करना। याद आता है, नियमसारवृत्ति :
क्षीणे मोहे तृणमिव सदा लोकमालोकयाम:।
मोह पिघल गया, और पूरी दुनिया घास-तृण के समान दिखने लगी। घास, मात्र घास।
घर अपने वालम कहो रे, कौण वस्तुनी खोट?
अभयकुमार दीक्षा ले, या ना ले, भगवान को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। अभयकुमार के दीक्षा लेने से भगवान के घर में कुछ बढ़ने वाला नहीं था, और वह शायद दीक्षा ना ले, तो भगवान के घर से कुछ भी कम नहीं होने वाला था। हाँ, भगवान की औचित्यप्रवृत्ति से उनका कर्मक्षय अवश्य होने वाला था। पर प्रभु को उसमें परिणाम का कोई भी औत्सुक्य नहीं था, हर्ष-शोक नहीं था। क्योंकि अपने उपदेश से बाहर क्या असर हुई, उसका क्या परिणाम आया, प्रभु की दृष्टि इस ओर थी ही नहीं। प्रभु का यह उद्देश्य था ही नहीं। प्रभु समझते थे कि यह परिणाम उनका परिणाम था ही नहीं, वह परिणाम तो अभयकुमार का परिणाम था।
याद आता है अध्यात्मसार :
पराश्रितानां भावानां कर्तृत्वाद्यभिमानतः।
कर्मणा बध्यतेऽज्ञानी, ज्ञानवाँस्तु न लिप्यते ॥
जो वस्तु ‘पर’ आश्रित है, उसका कर्तृत्व खुद में मानना, यह मिथ्या-भिमान के सिवा और कुछ भी नहीं है। उससे अज्ञानी कर्म से बँध जाता है, ज्ञानी ऐसे कर्तृत्व भाव में लिप्त नहीं रहते।
फोगट तद किम कीजिये प्यारे, शीश भरम की पोट
भ्रम का पोटला ही तो मिथ्याभिमान है न? गलत मान्यता रखना मिथ्याभिमान है। बारदाने को सिंहासन मानना मिथ्याभिमान है। बाह्य स्थिति में सुख मानना मिथ्याभिमान है। परभावों का कर्तृत्व खुद में मानना मिथ्याभिमान है।
छगन ने रास्ते में एक इलेक्ट्रिक के खंभे पर एक नया बोर्ड देखा। बोर्ड पर क्या लिखा था, वह ठीक से पढ़ा नहीं जा रहाँ था। छगन खंभे के ऊपर चढ़ गया और पढ़ने लगा। लिखा था कि, “नया कलर किया गया है, इसलिए कोई भी इस खंभे को छूना नहीं।“
फोकट, व्यर्थ। आपके हित का मुद्दा हो, करना बहुत जरूरी हो, नहीं करने से निश्चित नुकसान होने वाला हो, और उसे करने पर यदि कोई नुकसान हो जाये, तो बात फिर भी समझ में आती है।
पर जो हित का मुद्दा ना हो, जिसे करना बिल्कुल भी जरूरी ना हो, जिसके नहीं करनी पर कोई भी नुकसान नहीं होने वाला हो, फिर भी उसे करने जाना और भारी नुकसान उठा लेना, उसका नाम है फोकट।
फोकट तद किम लीजिए प्यारे,
शीश भरम की पोट?
भ्रम का पोपला ही पाप का पोटला है। भ्रम का पोटला ही भवभ्रमण का पोटला है। भ्रम का पोटला सच में फोकट है। उसे सर पर चढ़ाने से आत्मा का कोई भी हित नहीं होता।
तत्वज्ञ को कीड़े से लेकर इन्द्र तक के जीवों के सर पर भ्रमणा का पोटला दिखाई देता है। उनकी दौड़, उनका रुख, उनकी दृष्टि, उनका वर्तन इन सभी का मूल उस पोटले में होता है।
सर पर से भ्रमणा के पोटले को उतारने का अर्थ यही कि आपने अपने आपको भवसागर से पार उतार लिया है।
यदि कोई कहे कि, ‘यह मेरा बेटा है,’ तो इसका शुद्ध आध्यात्मिक अनुवाद होगा कि, ‘यह मेरे भ्रम का पोटला है।’
‘मेरी पत्नी’ इसका शुद्ध आध्यात्मिक अनुवाद है – ‘मेरे भ्रम का पोटला’।
‘मेरी संपत्ति’ इसका शुद्ध आध्यात्मिक अनुवाद है – ‘मेरे भ्रम का पोटला’।
भ्रम का जीवन, यही संसार का जीवन है। सांसारिक जीवन का एकमात्र आधार भ्रम है। भ्रम ही सांसारिक जीव का जीवन है। संसार का अर्थ इतना ही है – ‘भ्रम का पोटला’।
‘फोगट क्यूँ’ – इस प्रश्न पर बहुत मनोमंथन करने की जरूरत है। जब मंथन होगा, तब भीतर से जवाब मिलेगा, तब मोक्ष मिलेगा।
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