महाभारत के पात्रों में नेत्रदीपक पात्रों के रूप में विपुल प्रेरणा देने वाले पात्रों के रूप में पहले श्रीकृष्ण आते हैं, तो लगभग उनकी बराबरी में मेरा नंबर लगता है। बहुत सारी चीजों में मैं अर्जुन से भी बहुत बढ़कर (सवाया) था।
किसी भी कार्य के पीछे पाँच कारण काम करते हैं। उसमें कहीं पर पुरुषार्थ, कहीं पर कर्म, कही पर काल तो कहीं पर भवितव्यता भी मुख्यतः या गौण रूप से काम करती है।
मेरे जीवन में जैसे कि नियति ही नियत हो चुकी हो ऐसा लगता है। और वह भी अनुकूल नहीं, बल्कि प्रतिकूल। जन्म के साथ ही मेरी सगी माता कुन्ती ने मुझे यमुना नदी की धारा में कांस्य की पेटी में रखकर, कानों में कुंडल पहनाकर बहा दिया। यह बात आपको कुन्ती के पात्र से जानने को मिली होगी।
वह कांस्य की पेटी को तैरती-तैरती किनारे पर खड़े हुए एक सारथी ने देखी। पानी में से बाहर निकालकर खोलकर देखा तो उसे कानों में सुंदर कुंडल पहने हुए नवजात शिशु दिखाई दिया, और उसने मुझे अपनी पत्नी राधा को सौंप दिया। निःसंतान राधा को उस रात सूर्यदेव ने स्वप्न में दर्शन देकर महापराक्रमी पुत्र के मिलने का संकेत दे दिया था। और उस संकेत के अनुसार सूर्यपुत्र के रूप में, कानों में कुंडल होने से कर्ण, और राधा के पुत्र होने से राधेय; इस प्रकार तीनों नाम से मेरी प्रसिद्धि हुई। उसमें ‘कर्ण’ नाम विशेष प्रचलित हो गया। मेरे पालक पिता सारथी का नाम अतिरथी था।
आप इतने में समझ ही गए होंगे कि, मेरी नियति जन्म के साथ ही कितनी भयंकर रही है। भविष्य में होने वाले पति ‘पांडु’ की ही संतान होने पर भी, विवाह के पूर्व ही मेरा जन्म होने पर घबराई हुई माता ने यह ऐसा कदम उठाया, कि …
किसकी भूल ?? किसे सजा ??
जन्म से ही, संतान की यदि ऐसी अवदशा हो तो वह जी कैसे सकता है? हाँ, मैं तो ऐसी अवस्था में सिर्फ जिया ही नहीं था, परंतु आयी हुई हृदय विस्फोटक आपत्तियों को मैं जीतता भी रहा था।
मेरी पालकमाता राधा मुझे दिल से चाहती थी, तो मैंने भी कभी भी माता राधा को अपने हृदय से अलग नहीं किया था। मैं मातृभक्त था, इसलिए राधा के पुत्र – ‘राधेय’ के नाम से प्रचलित होने में, मैं अत्यंत गौरव महसूस करता था।
मैं थोड़ा बड़ा हुआ। कौरव-पांडवों के शस्त्र विद्या के शिक्षण के समय पर मैं दूर खड़ा रहकर सब कुछ सीखने लगा। जब राजकुमारों की परीक्षा हुई तब मैंने भी अपना बाण-कौशल देखने की विनती की। उस समय कृपाचार्य ने मुझे ‘सारथी-पुत्र’ होने के कारण अपात्र घोषित करवाया। और भीम ने मेरा उपहास किया, ‘जा-जा… तेरे बाप के साथ रथ चला, घोड़े चला… यहाँ तेरा काम नहीं है।’ उस समय सदमे से मेरे पेट में बल पड़ गये थे। उस समय पांडवों के प्रति अविरत ईर्ष्या की आग में झुलसते हुए दुर्योधन में बड़ी चतुराई से बहुत ही योग्य मौका देखकर मेरे पास आकर मुझे इस आघात में बहुत ही आश्वासन दिया, और उसने घोषित किया कि मैं अभी के अभी कर्ण का अंगदेश के राजा के रूप में अभिषेक करता हूँ। वहीं के वहीं यह विधि संक्षिप्त में पूरी की गई। भारी उपकार के बोझ तले दबकर मैंने गद्गदित होकर दुर्योधन से कहा कि, मैं आपका अत्यंत ऋणी हूँ। आप मुझ से क्या चाहते हैं ? दुर्योधन ने तुरंत जवाब दिया कि ‘आजीवन वफादारी-पूर्ण मैत्री!’ मैंने तुरंत उसे ‘तथास्तु’ कहा। दुर्योधन ऐसी बातों में बड़ा होशियार था। वह समझता था कि, पांडवों में अर्जुन का मुकाबला करना होगा तो कर्ण के सिवा (कौरव पक्ष में) किसी में इतना सामर्थ्य नहीं है। उसने सच में समय को पहचान कर मेरे नाम का ‘राधावेध’ साध लिया था।
धिक्कार की अग्निवर्षा के अभी और भी कुछ प्रसंग बताता हूँ।
अंगदेश के राजा के रूप में मैं द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित हुआ, तब दासी से ‘सूत-पुत्र कर्ण’ ऐसा जानकर द्रौपदी ने मुंह बिगाड़ दिया था। जब राधावेध साधने के लिए मैंने बाण उठाया तब भी सूत-पुत्र कहकर मेरी हँसी उड़ायी गई।
उस समय आघात से मैंने बाण को वापस रख दिया था। द्रौपदी के इस हीन व्यवहार से मुझे बहुत बुरा लगा। द्रौपदी के साथ मेरा वैर बंध गया, और मैं मंडप छोड़कर चला गया।
सूत-पुत्र होने के कारण से ही, यदि मैं युद्ध में उपस्थित रहूँ, भीष्म सेनापति पद लेने को तैयार नहीं थे। भीष्म की उस हठ की खातिर मैंने उनके सेनापति काल के दस दिनों के युद्ध में युद्धभूमि पर पैर नहीं रखा था।
युद्ध के इन अठारह दिनों में दो दिन के लिए मैं सेनापति पद पर रहा। तब मैंने सारथी-कला में कुशल मद्रराज शल्य, जो नकुल-सहदेव के मामा थे, उनकी माँग की थी।
तब मजबूरी से सारथी बने हुए मद्रराज ने उन दो दिनों में मुझे धिक्कारने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उन्होंने मुझे सूत-पुत्र कहा, उसके अलावा, ‘तेरी माँ ने तेरी जगह लड़की पैदा की होती तो अच्छा होता।’ ‘मैं क्षत्रिय हूँ, तेरे जैसे दासी-पुत्र का आदेश कभी नहीं मानूंगा।’ ‘धरती में फंसे हुए रथ के पहिये को कभी नहीं निकालूँगा।’ इत्यादि शब्दों ने मेरे अंतर को भेदकर छलनी जैसा कर डाला था। इसीलिए ही मैं तो मरने से पहले ही मर गया था, ऐसा कहूँ तो गलत नहीं होगा।
कीचड़ में फंसा हुआ रथ का पहिया निकालने की जद्दोजहद करते हुए मैंने अर्जुन को कहा कि, निःशस्त्र पर तू बाण नहीं चला सकता। परंतु ऐसा मौका मिले बिना मेरी मृत्यु होना सम्भव नहीं था। इसलिए श्रीकृष्ण ने द्रौपदी के वस्त्रहरण के प्रसंग पर मैंने जो गलत शब्द बोले थे, उसकी याद दिलाकर अर्जुन को बाण छोड़ने की आज्ञा की। बस, मैं असहाय उस रणभूमि पर ही खतम हो गया।
इतने सारे धिक्कार के प्रसंगों के बीच भी मैंने कभी भी मेरे सद्गुण-सुमनों को मुर्झाने नहीं दिये थे, परंतु उन्हें पूरी ताजगी से से खिलाये रखा था।
मेरे अनेक गुणों में नेत्रदीपक कक्षा के चार गुण थे।
निरहंकार पूर्वक मैं आपको यह बताना चाहता हूँ:
» मैं अत्यंत पराक्रमी शूरवीर था। इसीलिए कृष्ण ने – विष्टिकार के रूप में अपने पक्ष में मुझे लेने की कोशिश की थी। जब दुर्जेय हो चुके भीमपुत्र घटोत्कच को एकाधनी नामक शस्त्र से मैंने मारा था, तब हर्षावेश में आकर कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि, अब हम युद्ध जीत गये हैं, क्योंकि जो शस्त्र एक ही बार इस्तेमाल हो सकता है, वह तो घटोत्कच को मारने में खर्च हो गया था, जिसे मैंने अर्जुन को मार डालने के लिए संभालकर रखा था।
» मेरी वफादारी अजोड़ थी। दुर्योधन को दिया हुआ मैत्री का वचन मैंने जीवन भर, चाहे कैसी भी मुसीबतें आयी, फिर भी उसे आजीवन निभाया था। जब कुन्ती द्वारा दिया गया लालच कि, ‘तू कौन्तेय है, जयेष्ठ पांडव है, हस्तिनापुर का राजा तू ही हो सकता है, इसलिए दुर्योधन को छोड़कर हमारे पक्ष में आ जा।’ इस बात को नम्रतापूर्वक नकार के मैंने कहा था कि, मैं राधेय रहने में ही अपना गौरव मानता हूँ। मैंने मेरे अनन्य उपकारी महाराजाधिराज दुर्योधन को अपना जीवन सौंप दिया है। मैं उनके साथ कभी भी गद्दारी नहीं कर सकता।
» राधा ने मुझे दिल दिया, दूध पिलाया, प्रेम दिया, छोटे से बड़ा किया। इस कारण मैं बड़े गौरव से अपने आपको ‘राधेय’ कहलवाता था। फिर भले ही मैं दासी पुत्र के रूप में हँसी का पात्र बना। मैंने राधा को ‘सगी माँ’ माना था, तो दुर्योधन को सगा बाप माना। इन दोनों के प्रति की मेरी कृतज्ञता अनोखी थी।
» ‘कुन्ती’ मेरी सगी माता थी, इस बात की जानकारी सबसे पहले मुझे विष्टिकार कृष्ण ने दी थी। बाद में गंगा के तट पर कुन्ती ने भी बताया। तब कुन्ती ने मेरे समक्ष एक स्वार्थी याचना की, कि इस धरती पर पाँच पांडव ही रहने चाहिये। उस समय तुरंत उस बात का वचन देते हुए मैंने कहा था कि, यदि मेरे हाथ से अर्जुन मरेगा तो भी तब मैं भी पांडव हूँ। और यदि अर्जुन के हाथों में मरूँगा तो भी पाँच पांडव रहेंगे ही। इस प्रकार (अर्जुन के सिवा के) चार पांडवों के अभयदान का वचन माता कुन्ती के कहने से मैंने तुरंत दे दिया था। इसलिए जब मुझे एक बार भीम की जान लेने मौका मिला, तब मैंने इस वचन को याद करके उसे छोड़ दिया था। इसके अलावा अन्य धर्मों में भी मैं दानेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध हूँ।
और अंत में…….
मेरी मृत्यु के बाद कुन्ती ने दुर्योधन आदि भाइयों की अंतिम विधि करते समय साथ-साथ मेरी भी विधि करने के लिए युधिष्ठिरादि को यह बात कही। वह बात सुनकर आक्रोश करते हुए युधिष्ठिर ने उन्हें कहा कि, यदि परीक्षा मंडप में ही (कर्ण के कुंडल से कर्ण को कौन्तेय के रूप से) तूने यह बात जान ली थी तो, तभी ही बता देना था ना! तो यह सब महाभारत होता ही नहीं!
काश! नियति के लेख कौन मिथ्या कर सकता है?
बेशक, मूल से मैं महान ही था। कभी-कभी संयोगों ने मुझे अधम बनने की प्रेरणा की। जिससे महासती द्रौपदी के चीर हरण की पलो में उसे मैंने पाँच पुरुषों की पत्नी व्यभिचारीणी कहा था। खैर… पर उन सभी के पीछे कुछ कारण थे।
मैं सुंदर ही था। मुझ में जो कुरूपता दिखती है वह सहज नहीं है, संयोग-जन्य ही है।
कौरव-पांडवों के परीक्षा-मंडप में पाट पर कुन्ती बैठी थी। मेरे (कर्ण के) कुंडलों को देखकर उसने जान लिया था कि मैं उनका ही पुत्र हूँ। परंतु इस बात को उसने उस समय किसी से नहीं कहा। यदि उसने यह बात प्रकट कर दी होती तो महाभारत के महाभयानक युद्ध का सृजन होता ही नहीं। उसी पल में पाँचों पांडव ज्येष्ठ भ्राता के रूप में मेरे गले लग जाते। परंतु नियति को ही जब यह मंजूर ना हो, तो वहाँ क्या आशा कर सकते हैं।
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