top of page

मैं कुन्ती हूँ

Updated: Apr 12




यौवन के शिखर तक पहुँचते हुए मेरा रूप, गुण, चातुर्य और सौन्दर्य सोलह कलाओं सा खिल चुका था। मेरे पिता अंधकवृष्णि आदि बड़े मेरे विवाह के लिए चिन्तित थे, कि मेरे योग्य कुमार कौन होगा? पिता ने ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय से सलाह की। समुद्रविजय को स्वयंवर के आयोजन में रुचि नहीं थी, इसलिए उन्होंने मेरा चित्रपट बनाकर सभी राजाओं-राजकुमारों को भेजने की बात कही, और जिसकी ओर से जवाब आए उस पर विचार करने की बात कही। मेरे पिता को यह बात अच्छी लगी, तो उन्होंने मेरा चित्रपट तैयार करवाया और एक राजपुरुष के हाथों उसकी प्रतियाँ अनेक राजाओं तक पहुँचाई।

वह राजपुरुष चित्र लेकर हस्तिनापुर की सीमा पर पहुँचा। ठीक उसी समय भीष्म और पाण्डु भ्रमण पर निकले हुए थे। मेरा चित्र देखकर भीष्म स्तब्ध और पाण्डु मुग्ध हो गए। मेरे बारे में अधिक जानकारी लेने के लिए भीष्म उस राजपुरुष को अपने साथ राजमहल लेकर गए, उसका सत्कार किया। राजपुरुष ने शौर्यपुर के राजा अंधकवृष्णि और रानी सुभद्रा के 10 पुत्रों के बाद हुई इकलौती राजकुमारी कुन्ती के रूप में मेरा सुन्दर वर्णन किया। पाण्डु का चित्त और दृष्टि मानो मेरे चित्रपट से हटने का नाम नहीं ले रहे थे। उन्हें लग रहा था कि चित्र में दिखने वाली राजकुमारी मानो साक्षात् उन्हें देख रही हो, और उनके चेहरे के आकर्षक भाव देख रही हो।

राजपुरुष ने पितामह से कहा कि, “पितामह ! आपके राजा पाण्डु अभी अविवाहित हैं और कुन्ती के लिए योग्य वर हैं। कुन्ती को भी राजकुमार अवश्य पसन्द आएँगे।” भीष्म को भी पाण्डु के विवाह की आतुरता थी, इसलिए उन्हें भी राजपुरुष की बात अच्छी लगी। राजा पाण्डु का विवाह मुझसे शीघ्र हो, इसलिए उन्होंने तुरन्त ही अपने निजी सेवक प्रसन्नहस्ती को राजपुरुष के साथ मेरे पिता के पास भेजा। पाण्डु भी अत्यन्त प्रसन्न थे।

वे दोनों शौर्यपुर के राजा, मेरे पिता अंधकवृष्णि के दरबार में पहुँचे और सारी बातचीत बताई। भ्राता समुद्रविजय भी राजा पाण्डु के गुणों की प्रशंसा सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। इस विवाह के लिए सभी सहमत थे, और घोषणा होनी बाकी ही थी, कि मेरे पिता यह बात बताने के लिए मेरी माता सुभद्रा के पास गए। मेरी माता ने पीले पाण्डु के साथ मेरे विवाह के लिए स्पष्ट मना कर दिया। सुनकर सबके चेहरे का पानी उतर गया, और सभी लोग स्तब्ध रह गए।

पिता अंधकवृष्णि ने माता सुभद्रा का निर्णय स्वीकार किया, और सारी बात आई-गई हो गई। प्रसन्नहस्ती ने वापिस लौटकर भीष्म पितामह को भारी मन से सारी बातें बताई। पितामह ने सावधानी पूर्वक यह बात राजा पाण्डु को बताई। सुनकर राजा पाण्डु को बड़ा आघात लगा। उन्होंने रोते हृदय से प्रसन्नहस्ती से पूछा, “भले ही कुन्ती के पिता ने विवाह स्वीकार नहीं किया, किन्तु मेरे बारे में बताते समय कुन्ती के मुख पर कैसे भाव थे” प्रसन्नहस्ती ने कहा, “राजकुमारी कुन्ती तो रोम-रोम से आपको ही चाहती है। किन्तु माता सुभद्रा के मना करने पर मानो भूकम्प आया हो, ऐसी विषाद की रेखाएँ कुमारी के मुख पर दिख रही थी।”

इसी को संसार कहते हैं, जो आपको एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य की ओर, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र की ओर, एक समय से दूसरे समय की ओर, एक संयोग से दूसरे संयोग की ओर, एक भाव से दूसरे भाव की ओर, एक योग से दूसरे योग की ओर और एक वियोग से दूसरे वियोग की ओर ले जाता रहता है। किसी का सोचा हुआ काम नहीं होता। सोचा हुआ काम सिर्फ मालिक का होता है, और मालिक दो होता हैं, एक धर्मसत्ता और दूसरी कर्मसत्ता। और सभी सांसारिक जीव मात्र इसकी कठपुतलियाँ हैं।

मेरे और राजा पाण्डु के जीवन में तो योग से पहले ही वियोग हो गया। योग से वियोग और वियोग से योग का सिलसिला तो इस संसार की परम्परा है। और इस परम्परा के भँवर में मैं और राजा पाण्डु दोनों गोते खा रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो हम एक-दूसरे से नहीं, बल्कि पूरी दुनिया से ही अलग हो गए थे। दोनों को एक-दूसरे में अपना पूरा संसार दिख रहा था। समय के सहारे एकान्त व्यतीत करते हुए राजा पाण्डु एकदा अकेले ही वन में घूमने निकले। उन्हें वन की प्रत्येक लता, शाखा, पुष्प और पत्तियों में मेरा ही रूप दिख रहा था। मोह मनुष्य को भ्रमित करता है, और यह भ्रम ही उसे संयोगों से युद्ध करवाता है, और परिस्थितियों के आगे मजबूर करता है।

शरीर से पाण्डु वन में थे, किन्तु उनका मन तो मुझमें रमण कर रहा था। इतने में उन्होंने एक वृक्ष के नीचे किसी मूर्छित व्यक्ति को देखा। उसके मुख पर राजाओं जैसा तेज था, किन्तु पूरा शरीर रक्त से लथपथ था। पास की भूमि पर भी रक्त बिखरा हुआ था। पांच बड़े कील ठोककर उसके शरीर को धरती पर गाड़ा हुआ था। राजा पाण्डु को उसके प्रति करुणा उत्पन्न हुई, और वे अपनी मानसिक पीड़ा भूलकर उसके कील निकालने लगे।

वह व्यक्ति होश में आकर बैठा, वन की गुणकारी औषधियों से थोड़ा स्वस्थ हुआ, और उसने राजा पाण्डु से पूछा, “मेरे प्राणदाता ! आप कौन हैं? यहाँ तक कैसे पहुँचे?” तो राजा पाण्डु बोले,    “मैं तो घूमते हुए यहाँ तक पहुँचा, लेकिन तुम कौन हो?” तो वह बोला, “मैं विशालाक्ष विद्याधर हूँ, वैताढ्य पर्वत पर मेरा निवास स्थान है। मेरे परम शत्रु ने मुझे वहाँ से उठाकर यहाँ पटका और पांच कीलों के साथ भूमि पर गाड़ दिया। किन्तु आपने अकारण ही मुझ पर वात्सल्य करके मुझे बचाकर बड़ा उपकार किया है। मैं इस उपकार का बदला तो नहीं चुका सकता, किन्तु मैं यह अंगूठी आपको देता हूँ, इसके प्रभाव से आपको इच्छित फल की प्राप्ति होगी। इतना ही नहीं, आप जिसे चाहें, उसे वश में भी कर पाएँगे। और कितना भी गहरा घाव लगा हो, वह सूख जाए ऐसी तीन दवा भी इसमें है। कृपा करके इसे स्वीकार करें।”

इतना कहकर कृतज्ञ भाव से उसने वह अंगूठी राजा पाण्डु को दी, और आकाश मार्ग से चला गया। राजा पाण्डु अहोभाव से उसे देखते रहे।

फिर उन्होंने अपनी हृदयेश्वरी कुन्ती, यानी मुझे याद किया, और अचानक ही चमत्कारिक रूप से उन्होंने अपने आप को किसी अन्य स्थान पर पाया। वहाँ मैं विरह की अग्नि में जलते हुए अपने एकमेव पति और प्राणेश्वर के रूप में सिर्फ राजा पाण्डु का वरण करने हेतु अधीर बनी, अपनी धाय माता के निःश्वास ले रही थी, और फांसी लगाकर मृत्यु पाने की लालसा कर रही थी। मेरी धाय माता मुझे अच्छे से समझा रही थी, और अधीर न बनने हेतु सांत्वना दे रही थी। किन्तु सम्राट पाण्डु के विरह में मेरे प्राण मेरी देह में स्थिर रहने को तैयार नहीं थे। धाय माता के लाख समझाने के बाद भी मैंने फांसी का फंदा तैयार करके गले में डाला और वन देवता को पुकारा, “हे वन देवता ! इस जन्म में गुणवान राजा पाण्डु को प्राप्त न कर सकी, किन्तु आने वाले भव में यही पाण्डु राजा मेरे प्राणनाथ बने, यही मेरी प्रार्थना है।”

इतने में उस अंगूठी के प्रभाव से उसी वन में खड़े राजा पाण्डु ने मेरी आवाज सुनी, और मेरी ओर भागकर आए। फांसी का फंदा मुझे मृत्यु के मुख में डाले, उससे पूर्व ही उन्होंने अपनी तलवार से वह फंदा काट दिया। मैं अचेत होकर सीधे उन्ही की गोद में जाकर गिरी। उन्होंने प्रयास करके मुझे पुनः सचेत किया। मेरी आँखें खुली और मैं अनेक संकल्प-विकल्प करने लगी, कि मैं कहाँ हूँ, किस पुरुष की गोद में सो रही हूँ ?

इतने में राजा पाण्डु ने अपना परिचय दिया, तो मेरा शोक दूर हुआ और मैं हर्ष के अतिरेक में आ गई। पक्षी शुभ शकुन करने लगे, और चतुर धाय माता ने हम दोनों के कुल की उद्घोषणा करते हुए हमारा गान्धर्व विवाह करवाया, और हमें थोड़ी ही दूर स्थिर हरी झाड़ियों में विश्राम करने के लिए कहा।

कुछ ही देर में रात हुई। वन की असीम शान्ति में हम एकमेक हो चुके थे। मन तो पहले से ही अभेद था, आज तन से अभेद होकर शारीरिक सुख की पराकाष्ठा तक पहुँचे। माता-पिता की अनुमति के बिना हम यह संबंध बनाया। रात्रि पूर्ण होने पर धाय माता ने हम दोनों के पुनर्मिलन का वादा करते हुए हमें अलग किया।

मेरी एकमेव विश्वस्त धाय माता अत्यन्त चतुर थी। पाण्डु द्वारा हुए मेरे गर्भ को छुपाने में उन्होंने अत्यन्त सावधानी रखी। मेरे माता-पिता को भनक भी न लगने दी। अन्ततः मैंने यथासमय एक पुत्र को जन्म दिया। मैं डरी हुई थी। एक दुष्कार्य छुपाने के लिए दूसरा दुष्कार्य करना पड़ रहा था। राज परिवार और अन्य किसी को भी इस बात का पता नहीं था। अन्त में डर और शर्मवश होकर मैंने देव जैसे सुन्दर कुमार को उसी के भाग्य के निर्भर छोड़ने का निर्णय लिया।

मैंने धाय माता के साथ योजना बनाई, और गंगा के तट पर मणिमय कुण्डल के साथ सुशोभित पुत्र को एक ताम्रपेटी में डाला। अपने कलेजे के टुकड़े, उस नवजात कुमार को अनिच्छा से गंगा नदी के प्रवाह में छोड़ दिया।

भविष्य के महाभारत की यह बहुत बड़ी दुर्घटना थी। अब तक तो मैं अपने पति पाण्डु के विरह में पीड़ित थी, अब पुत्र विरह की पीड़ा उसमें और जुड़ गई। मेरे तन-मन की प्रसन्नता समाप्त हो चुकी थी।

मेरे माता ने मेरे सतत दुर्बल होते हुए शरीर को देखा, तो उन्होंने धाय माता पर दबाव डालकर सारी बात जानी। सत्य जानने के बाद माता सुभद्रा ने विचार किया कि, ‘इस अनहोनी के लिए दोषी कौन? धाय माता? कुन्ती? पाण्डु? मेरे मना करने के कारण ही तो यह सब कुछ हुआ, यह तो मेरी ही जिद का परिणाम है। अब जो हो चुका उसका शोक करना व्यर्थ है।’ उन्होंने मेरे पिता अंधकवृष्णि, भीष्म पितामह आदि को सन्देश भेजा और मेरा विधिवत् विवाह पाण्डु से करवाया। समस्त हस्तिनापुर प्रसन्न था, और हमारा दाम्पत्य जीवन भी आनन्द से गुजरने लगा।

मेरी बाकी की कहानी द्रौपदी के अगले पात्रा-लेख में मिलेगी।

Comments


Languages:
Latest Posts
Categories
bottom of page