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महाभारत का इतिहास तो भारतवर्ष का चिर-कालीन इतिहास है। अन्य इतिहास तो बदलते रहे हैं, लेकिन यह महाभारत का इतिहास नहीं बदला, इसीलिए रामायण और महाभारत की समीक्षा अन्य काव्य कृतियों की समीक्षा से अलग की जानी चाहिए। यह इतिहास और काव्य अमर बना इसके पात्रों के कारण, उसमें भी स्त्री पात्रों का स्थान थोड़ा ऊपर रहा है। क्योंकि महाभारत की रचना में स्त्री पात्रों का योगदान अधिक रहा है। और उसमें भी पाण्डवों की पत्नी महारानी द्रौपदी का योगदान सर्वोपरी रहा है। कैसे? आइए देखते हैं …
अर्जुन की पत्नी सुभद्रा ने जब अभिमन्यु को जन्म दिया, तब दिग्विजय करके लौट रहे धर्मराज युधिष्ठिर ने इस निमित्त से जिनभक्ति महोत्सव आयोजित किया। देश-विदेश से राजा-महाराजा और स्नेही-स्वजन आए। दुर्योधन भी कैसे पीछे रहता, वह भी आया।
इस अवसर पर धर्मराज ने एक दिव्य सभा आयोजित की, जिसकी रचना अद्भुत और अभूत-पूर्व थी। दुर्योधन को प्रेमपूर्वक वह सभा दिखाने के लिए धर्मराज आगे चल रहे थे, और दुर्योधन उनके पीछे-पीछे चल रहा था।
मैं द्रौपदी हूँ, मेरे बिना अन्तःपुर अधूरा रहता है। किसी भी प्रसंग की चमक स्त्री के बिना अधूरी रहती है, प्रत्येक अवसर की पहचान स्त्री से ही बनती है। ऊपर से मैं पाण्डवों की पत्नी, राज्य की रानी और भर यौवन वय की थी, इसलिए मुझे भी कटाक्ष करना अच्छा लगता था। दुर्योधन ने दिव्य सभा में पानी से भी ज्यादा पारदर्शक स्फटिक फर्श को पानी समझ लिया और कपड़े गीले न हो इसलिए ऊँचे करके चलने लगा। यह देखकर पीछे चल रही मैं और भीम हँसने लगे। फिर आगे स्फटिक की एक पारदर्शक दीवार उसे नहीं दिखी, तो दुर्योधन उससे टकराया और उसका सर फूटा। यह देखकर तो हम जोर से हँस पड़े। मजाक में मेरे मुँह से निकल पड़ा, ‘अन्धे का पुत्र अन्धा।’
लेकिन यह हँसी बहुत भारी पड़ी, ऊपर से धर्मराज युधिष्ठिर यह सब देखकर मौन रहे। यदि वे उस समय मुझे थोड़ा डांट देते, तो भविष्य में इतना बड़ा अनर्थ नहीं होता। मेरे बोलने के कारण जो नुकसान हुआ, शायद उतना ही नुकसान धर्म-राज के न बोलने के कारण भी हुआ।
सत्य है कि, जहाँ बोलना चाहिए, वहाँ कुछ न बोला तो नुकसान की सम्भावना अधिक होती है, और जहाँ नहीं बोलना चाहिए वहाँ बोल देने से नुकसान की सम्भावना कम होती है। जहाँ मैंने बोला, वहाँ यदि धर्मराज बोल देते तो दुर्योधन को इतना नहीं चुभता।
मेरे ‘पिता’ के नाम से बोले गए शब्द, भीम द्वारा मेरा साथ देना और युधिष्ठिर का मौन रहना दुर्योधन के मन में असह्य अपमान का बीजारोपण कर चुका था। यहीं से महाभारत के महासंहार का जन्म हुआ। दुर्योधन अब पाण्डवों का पक्का शत्रु बन चुका था, इसीलिए जब द्यूतसभा में धर्मराज मुझे हार चुके थे तब भरी सभा में दुर्योधन ने अपनी जांघें बताकर मुझे वहाँ बैठने हेतु कहने की क्रूर और विकृत मजाक की। इतना ही नहीं, मैं उस समय रजस्वला थी, इस बात की परवाह किए बिना उसने दुःशासन को मेरे बाल खींचकर राजसभा में घसीट कर लाने का घृणित आदेश दिया।
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उस समय दुर्योधन की माता गान्धारी और पितामह भीष्म को आगे आकर दुर्योधन को फटकार लगानी चाहिए थी, किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। भीष्म और गान्धारी जैसे बड़े लोग भी मौन रहे, जहाँ बोलना था, वहाँ नहीं बोले, इसलिए नुकसान अधिक हुआ। यहीं से महाभारत की जड़ें गहरी हुई। निःसंदेह दुर्योधन की भूल कोई छोटी नहीं थी, पूरे महाभारत का खलनायक वही था, किन्तु इसकी पृष्ठभूमि में मेरे द्वारा बोले गए अपमानजनक शब्द और गान्धारी आदि का मौन भी काम कर रहा था, अस्तु।
बेशक सुबह उठते ही किए जाने वाले राईअ प्रतिक्रमण के भरहेसर की सज्झाय में ‘देवई, दोवई, धारिणी’ पद में दोवई के रूप में मेरा नाम प्रातः स्मरणीय महासती में लिया जाता है, क्योंकि मैं सती नहीं, अपितु महासती थी। सीता आदि सतियों को आजीवन चौबीसों घण्टे एक ही पुरुष में सर्वथा ओत-प्रोत रहना था, किन्तु मुझे नारद जी द्वारा की गई व्यवस्थानुसार प्रतिवर्ष पांच में से एक पुरुष को पति के रूप में स्वीकार करना था, और बाकी चारों को उस वर्ष के लिए भाई के रूप में देखना था। हर वर्ष पति बदले, और भूतपूर्व पति बार-बार भाई बन जाए, ऐसी स्थिति निभाना दुष्कर से भी दुष्कर कार्य था। पिछले वर्ष जिसके साथ पति जैसा व्यवहार किया, उसके साथ नव वर्ष के प्रभात के साथ ही सगे भाई जैसा वर्तन करना कितना कठिन कार्य है? किन्तु मैंने निष्ठापूर्वक यह रिश्ता निभाया, इसलिए मुझे सती नहीं, बल्कि महासती की पहचान मिली।
उपरान्त मैं महासती ही नहीं, वरन् बुद्धिशाली भी थी। इसीलिए वस्त्रहरण के समय भरी सभा में मैंने सूक्ष्म और अनुत्तर प्रश्न करके सबके सर शर्म से झुका दिए थे। जो व्यक्ति खुद को हार चुका हो, तो उसका पत्नी पर अधिकार ही नहीं रहा, वह पत्नी को दांव पर कैसे लगा सकता है? और जो व्यक्ति सत्य और स्पष्ट बात करने की हिम्मत नहीं कर सकते ऐसे भीष्म आदि लोगों को सम्माननीय पुरुष कैसे कहा जा सकता है ?
जिस प्रकार मुझ में महासतीत्त्व और बुद्धिमत्ता जैसे उच्च कोटि के गुण थे, उसी प्रकार क्रोध आदि दोष भी थे। जैसे, मैंने धर्मराज को बेबाक रूप से मुँह पर बोल दिया था कि आपकी जगह यदि आपकी माता ने पुत्री को जन्म दिया होता तो वह आपसे लाख अच्छी होती, आप तो नपुंसक के समान हैं – आदि शब्दों द्वारा अनेक बार क्रोध जताया। उसमें भी भीम आदि के साथ के कारण, या कभी जुए के प्रसंग के कारण, या वन-वास में हुए कष्ट के कारण मेरे गुस्से का दावानल अनेक बार फूटा।
जब अश्वत्थामा ने मेरे पांच पुत्रों को एक ही रात में मार डाला था, तब उसे तत्काल पकड़कर मेरे सामने उसका सर कलम करने के लिए मैंने वहीं पर भारी जिद पकड़ी थी। मेरे हठ भी असामान्य ही होते थे। एक बार वनवास में एक कमल उड़ते हुए मेरी गोद में आ गिरा। कमल बहुत सुन्दर था, मैंने वैसे ही कमल लाने की जिद पकड़ी। भीम ने उस कमल के उद्भव स्थान को ढूंढा, तो एक तालाब मिला। उसने उस तालाब के मालिक की सहमति के बिना वहाँ प्रवेश किया, और कमल लेने के लिए तालाब में उतरा तो वहीं डूबने लगा। भीम की तलाश में अर्जुन आदि बाकी भाई भी वहाँ पहुँचे, और उन्होंने भी वही गलती की, और वे भी उस तालाब में डूब गए। अन्त में युधिष्ठिर की भी वही हालत हुई।
इधर माता कुन्ती और मैंने पाण्डवों के जीवन के लिए कायोत्सर्ग प्रारम्भ किया। पूरी रात हम पंच परमेष्ठी के ध्यान में इतने मग्न बन गए थे, कि हमारा शरीर तो मानो ठूंठ जैसा बन चुका था। उस समय आकाशमार्ग से जा रहा देव-विमान हमारे ध्यानबल के कारण स्खलित हुआ। उसमें बैठे इन्द्र ने अपने ज्ञानयोग से वस्तुस्थिति का पता लगाया और अपने दूत को पाताल के नागराज के पास भेजा। और वहाँ उस तालाब के मालिक देव से पाण्डवों को पुनः प्राप्त करवाया। सुबह होने पर देवदूत पाण्डवों को विमान में बिठाकर हमारे पास लेकर आया, सबका सुखद मिलन हुआ। पदार्थ की जिद मनुष्य को कितनी विपदा में डाल देती है, और परमेष्ठी के प्रति की जिद कितना सुख देती है, यह इस प्रसंग से पता चलता है।
कुछ मनुष्य पदार्थ-प्रभावी, कुछ पुण्य-प्रभावी और कुछ परमात्म-प्रभावी होते हैं। पदार्थ-प्रभावी लोग भोगप्रधान होते हैं, पुण्य-प्रभावी लोग त्यागप्रधान होते हैं और प्रभु-प्रभावी लोग योग-प्रधान होते हैं। इस प्रसंग से मैं इतना ही कहूँगी कि आवश्यकताएँ जितनी कम होंगी, पाप उतने ही कम होंगे, और परेशानियाँ भी कम होती जाएँगी। कायोत्सर्ग की सूक्ष्म ताकत, अर्थात् आध्यात्मिक बल की इतनी ताकत होती है, यह इस प्रसंग से सिद्ध होता है।
ऐसी ही एक अन्य घटना देखिए। मैं एक बार जंगल में सबसे बिछड़ने के कारण अकेली हो गई, और विकट परिस्थिति में फंस गई। रात का समय था, मुझसे यह कैसी भूल हुई? भयानक जंगल में इधर-उधर घूमता हुआ एक भूखा शेर दिखा, मैं तो स्तब्ध रह गई। किन्तु धर्म को धारण करते हुए खड़ी रही। सिंह हमला करने को उद्यत था, इतने में मैंने रेत पर एक लकीर बनाई, और सिंह की ओर देखकर बोला,
यदि मे प्राणनाथेन सत्यरेखा न लङ्घिता।
तदा तमप्यमूं रेखां मा स्म शार्दुल लङ्घय ॥
हे वनराज ! मेरे पति ने यदि कभी भी सत्यरेखा का उल्लंघन न किया हो, तो आप भी इस रेखा का उल्लंघन मत करना।
और मानो, जैसे सिंह पर सत्य और सतीत्व का असर हुआ, और उसने अपना रास्ता बदल दिया। मैं आगे बढ़ी, तो एक सर्प फुंकार करते हुए मेरे सामने आया। मैंने उसे देखकर सिंह गर्जना की, ‘यदि मैंने मन, वचन और काया से अपने पांच पतियों के साथ जरा भी कपट नहीं किया हो, तो हे सर्प! तू यहाँ से चला जा।’ वह सर्प तुरन्त वहाँ से चला गया।
सत्य है, मुझे अपने पांचों पतियों के प्रति अत्यन्त प्रेम था, और मैं उनके प्रति पूर्ण समर्पित भी थी। वन-वास के दौरान मैं पांचों पतियों और माता कुन्ती को भोजन करवाने के बाद ही स्वयं भोजन करती थी।
मेरे पांच पति कैसे हुए? एक पति हो, तो स्त्री को सती कहते हैं। मेरे पांच पति थे, फिर भी मैं महासती क्यों कहलाई? इसका जवाब इस जन्म में नहीं, मेरे पूर्वभव की घटना से मिलेगा।
पूर्वभव में मैं सुकुमालिका नामक साध्वी थी। गुरु के मना करने पर भी मैंने साधुओं की भांति जंगल में सूर्य की आतापना लेने का कष्टमय तप करती थी। एक बार मैंने थोड़ी दूर किसी वेश्या को पांच पुरुषों के साथ क्रीड़ा करते हुए देखा, और मुझे भी वैसी ही चेष्टा करने वाली स्त्री बनने का मन हुआ। उसी समय मैंने नियाणा (संकल्प) किया, और की गई साधना की कमाई को मोहराजा के संसार के जुए में लगा दिया। माता-पिता और गुरु की आज्ञा के विरुद्ध किया गया अच्छा कार्य भी सफलता नहीं दिलाता।
गुरु की बात का कभी विरोध नहीं किया जाता, गुरु की आज्ञा के विरुद्ध की गई तपस्या और आतपना मुझे भारी पड़ी। उसी के फलस्वरूप मैं राधावेध साधने वाले अर्जुन के गले में स्वयंवर की वरमाला डालने गई, लेकिन वह वरमाला बाकी चार के गले में भी पड़ गई। योगानुयोग उस समय आकाश में स्थित देवों ने यह कार्य किया, इसलिए विडम्बना में पड़े पिता राजा द्रुपद के लिए आकाशवाणी हुई, कि राजन्! आप किंकर्तव्य-विमूढ़ न बनें, इसके पूर्वभव के कर्मों का ही यह फल है। यह उससे बच नहीं सकती। यह सुनकर मेरे पिता ने मुझे पांच पतियों के लिए सहमति दी।
मेरे जीवन के संध्याकाल में मैंने दीक्षा ग्रहण की, सुंदर संयम साधना करते हुए स्वर्गलोक गमन किया।
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