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मैं भीष्म पितामह ( भाग – 2 )

Updated: Apr 12




युगादिदेव ऋषभदेव भगवान के भरतादि सौ पुत्र थे। उनमें से एक कुरु नामक पुत्र भी था। इसी कुरु के नाम से कुरु देश प्रसिद्ध हुआ था। कुरु के पुत्र हस्ति के नाम से हस्तिनापुर को बसाया गया। इस हस्तिनापुर के सिंहासन पर अनेक पुण्य-प्रतापी, शूरवीर राजाओं ने शासन किया। उन्हीं की परम्परा में शांतनु भी एक शूरवीर और न्यायी राजा हुआ। उसी शांतनु की संतान मैं गांगेय ‘भीष्म’। बचपन से ही चारण मुनियों की सतत सत्संगति से मैं अहिंसादि पांच व्रतों को यथाशक्ति धारण करता था। पूर्व में आपने देखा कि मैंने पिताश्री की सत्यवती नामक कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा पूर्ण करने के लिए आजीवन राजगद्दी का त्याग और ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार किया। आजकल संतानों को खुश रखने के लिए बुजुर्ग, माता-पिता आदि अपने सुख और मनोरथों का त्याग कर देते हैं अपनी भावनाओं को दबाकर रखते हैं। जबकि मैंने अपने पिताजी को खुश रखने के लिए, उनके सुख के लिए अपने जीवन की दो बड़ी खुशियों का बलिदान दिया। 

अब मैं मूल बात पर आता हूं। सत्यवती वास्तव में नाविक की पुत्री नहीं थी, बल्कि नाविक को वर्षों पहले यमुना के तट पर अशोक वृक्ष के नीचे तेज के भंडार स्वरूप यह बालिका मिली थी। उसके मुख को देखकर अत्यन्त प्रभावित हुए नाविक ने अपने ऊपर आयी जिम्मेदारी को खुशी-खुशी स्वीकार किया। उस पुत्री को हाथ में लेते ही आकाशवाणी हुई कि भरतपुर के राजा रत्नांगद की पत्नी रत्ना-वती ने पुत्री को जन्म दिया ही था। जन्म के तुरन्त बाद राजा के किसी गुप्त शत्रु ने इस बालिका का अपहरण करके यहां रख दिया है। तेज-तर्रार इस कन्या के साथ भविष्य में शांतनु राजा का विवाह होगा। नाविक ने आगे जाकर पुत्री से भी अधिक महत्त्व रखने वाली उस राजकन्या को ऐसे संस्कार और ऐसी शिक्षा प्रदान की कि उसकी भावी सन्तान भी संस्कार में जरा भी कम न हो बाकी तो मेरे जैसे रंक के घर ऐसा रत्न कहां से हो? मैं आज कृतार्थ हूं। सत्यवती अगर मेरी सगी पुत्री होती और मैं सत्यवती का पालक पिता न होता, तो मैंने कभी यह आग्रह न रखा होता कि सत्यवती का पुत्र ही राजा बनना चाहिए। मालिक अपनी वस्तु का मूल्य घटा सकता है, पर पालक उस मूल्य को कैसे घटा सकता है ?

महामानव भीष्म! आपको अगर मेरे कारण दुःख हुआ हो, तो क्षमा करें। मैंने कहा-हे नाविक श्रेष्ठ! आपके द्वारा सत्यवती को एक राजनेता बनने हेतु दी गयी शिक्षा सर्वतः स्वीकार होगी। माता सत्यवती के द्वारा हमारे कुरु वंश में विद्याधरों का पवित्र रक्त पुनः प्रवाहित होगा, क्योंकि यह विद्याधर पत्नी रत्नावती और विद्याधर राजा रत्नांगद-आदिनाथ प्रभु के पालक पुत्रों नमि-विनमि की संतानें हैं। केवल हमारा कुल ही नहीं, बल्कि समस्त हस्तिनापुर इस घटना से धन्य बनेगा। मेरे पालक नानाजी के रूप में मैंने आपके चरणों में मस्तक झुकाया है।

समय बहता है, साथ ही वय भी बहती है।

समय और वय किसी का इन्तजार नहीं करते। इन्हें कोई रोक नहीं सकता। व्यक्ति के अद्भुत कार्य ही समय को भी विस्मय में डाल देते हैं। मेरी भीष्म प्रतिज्ञाओं के कारण मैं गांगेय से ‘भीष्म’ बन गया। अभी तो मैं भरयौवन में आ गया था। मेरे पिता के समाधिस्थ मृत्यु पाने से पहले ही माता सत्यवती दो बालकों की माता बन चुकी थी। बड़े पुत्र का नाम चित्रांगद और छोटे का नाम विचित्रवीर्य था। दोनों मेरे सौतेले भाई थे, पर 

मैंने इन दोनों को सगे भाइयों से बढकर माना। चित्रांगद बड़ा था, तो मैंने उसे राजगद्दी पर बिठाया। जिससे नानाश्री नाविक श्रेष्ठ की इच्छा पूरी हुई। 

उत्तम माता-पिता की संतानें उत्तम ही होती हैं फिर भी इन्सान आखिर इन्सान ही होता है, भगवान नहीं। माता-पिता, बुजुर्गजनों की खामियाँ-खूबियाँ संतान में आती ही हैं। हमारे पिता महाराजा श्री शांतनु की अनेक खूबियाँ थीं पर एक खामी भी थी। उनकी कमजोर कड़ी थी-शिकार करना। इसने उनकी सभी खूबियों को ढक दिया था। चित्रांगद और विचित्रवीर्य में भी ऐसा ही कुछ हुआ। वे भी एक-एक कमजोर कड़ी के भोग बन गये।

ऐसा हुआ कि नीलांगद नामक बौद्ध राजा ने हमारे राज्य पर चढाई कर दी। मैंने युद्ध की तैयारी भी की, पर चित्रांगद के मन में इच्छा हुई। उसने मुझे कहा कि बड़े भाई! आप न जायें। इस समय मुझे युद्ध भूमि पर युद्ध करने के लिए पहले जाने दें। मैंने मना किया, पर वह नहीं माना। युद्धक्षेत्र में वह जीवित नहीं रह सका। बाल हठ के आगे मैं मजबूर बन गया और वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। बाद में तो मैंने नीलांगद को जीवित पकड़ा और तलवार के एक ही वार में उसे यमलोक पहुंचा दिया। पर याद रखो-बड़ों का कहना न मानने पर चित्रांगद की जो दशा हुई, वही दशा किसी भी संतान की हो सकती है।

बड़े लोग अनुभवी होते हैं। उनकी वय अनुभव युक्त होती है, उन्होंने कितने उतार–चढाव, बसन्त-पतझड़ देखे होते हैं। उनका चिर-अनुभव संतानों के लिए अमृतबेल का काम करता है। संतानों को तो मात्र वर्तमान ही दिखाई देता है, पर इन बुजुर्गों की नजरों के आगे संतानों का विशाल भविष्य और स्वयं का भूतकाल खड़ा हुआ होता है। संतानों के भविष्य को भव्य बनाने के लिए ये बुजुर्ग अपने भूतकाल का अमृत परोस देते हैं। अत: कभी भी बुजुर्गों के हितकारी वचनों की अवगणना नहीं करनी चाहिए। दिमाग में न बैठे, तो भी इनकी आज्ञा और गौरव का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। अनेक संस्कारी कुलों में बड़ों की आज्ञा, वचनों की मर्यादा और संस्कारों को जीवन में उतारने वालों की पीढी दर पीढी सुखी हो जाती इसके विरुद्ध बड़ों की अवगणना-अविनय करने वालों की अनेक पीढ़ियां जीवन में हार पाती हैं। सावधान! कोई भी हितचिंतक बुजुर्ग आपके परिवार और घर के लिए वरदान है, वट वृक्ष की छाया है। उनको कभी नजर अन्दाज मत करना। 

चित्रांगद आज मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसका मरणोत्तर कार्य करके छोटे भाई विचित्रवीर्य को राजगद्दी पर बिठाया। एक ही राजपरिवार में काशी नरेश की तीन पुत्रियों-अंबिका, अंबालिका और अंबा के साथ उसका विवाह करवाया। माता सत्यवती के पुत्र और मेरे छोटे भाई विचित्रवीर्य ने राज्यधुरा का कुशलतापूर्वक संचालन किया, जिसमें नेतृत्व मेरा था। इससे प्रजा निश्चिन्त थी। राजा और प्रजा सुखमय जीवन जी रहे थे। पर मेरे नेतृत्व में निश्चिन्त विचित्रवीर्य अपनी रानियों में कामासक्त हो गया। अति कामुकता के कारण उसके शरीर पर असर दिखाई देने लगी। मैंने तुरन्त उसका ध्यान उस तरफ खींचा। माता सत्यवती का इशारा भी काम कर गया। बेशक! विचित्रवीर्य समझदार था।

उसकी तीनों रानियों को एक-एक पुत्र हुआ। माता सत्यवती की खुशी का पार ही नहीं था। वे अब दादी बन गयी थीं और मुझे मेरा फर्ज पूरा करने का संतोष था। अंबिका की कोख से धृतराष्ट्र ने जन्म लिया, जो जन्म से अंधा था। विचित्रवीर्य की कामांधता ने ही उसकी आँखों को अंधापन प्रदान किया था। अंबालिका ने पांडु को जन्म दिया। वह जन्म से पांडुरोगी था, अत: उसका नाम पांडु पड़ गया। विचित्रवीर्य की वासना ने यह कार्य किया था। अंबा ने विदुर को जन्म दिया। तीनों ही राजपुत्र सभी तरह से पुण्यवान और भाग्यवान थे। किशोरावस्था में सफलतापूर्वक विद्याभ्यास करके यौवन के प्रांगण में प्रवेश किया। 

इधर विचित्रवीर्य की वासना ने पुनः जोर पकड़ा। हमारा उपदेश तो वह भूल ही गया था, पर अब तो दिन और रात्रि का भी ख्याल नहीं रहा। राज-रानियों का कहना भी नहीं माना। शरीर में खांसी, श्वास और क्षय जैसे रोगों ने घेरा डाल दिया। शरीर-सौष्ठव और आरोग्य को खो बैठा। अति स्त्री-संगम के कारण वह परलोक सिधार गया। भोगों की ‘अति’ ने उसका भोग ले लिया। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’। सत्यवती सहित समस्त परिवार निराधार हो गया जवानी जीवन जीने के लिए होती है। पर वह तो जवानी में ही न चल बसा। इसीलिए जैन शास्त्रों में श्रावक के लिए चतुर्थ अणुव्रत में परस्त्री-त्याग के साथ स्वस्त्री के विषय में भी संभव हो, उतनी मर्यादा एवं संयम रखने के लिए कहा गया है। मनुष्य की पुण्य-शक्ति, शरीर-शक्ति और भोग-शक्ति सीमित होती है। डॉक्टर और वैद्य भी जितना हो सके, उतना संयम बरतने की सलाह देते हैं। ब्रह्मचर्य यानि सदाचार की चुस्त पालना। इसके द्वारा कितने ही महा-अनिष्टों से सुरक्षा होती देखी गयी है। ये हैं…

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बस! यही भीष्म पितामह का भावभरा वंदन! मेरे जीवन का पूर्वार्द्ध पूर्ण हुआ। मेरे जीवन का उत्तरार्द्ध बाद में अन्तिम लेख में लिखकर मेरा पात्र पूर्ण हो जायेगा महाभारत के पात्रों का जन्म हो चुका है। हमें संक्षेप में महाभारत पढना है।

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